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सामान्य रूप से एक न्यूज़ ऑर्गेनाइज़ेशन के लिए लाभ कमाने का रास्ता उन समझौतों से होकर जाता है, जो पत्रकारिता की प्रकृति को बदल देते हैं. अक्सर ऐसा होता है कि जब इसकी पहचान एक न्यूज़ चैनल की नहीं रह सकती है. भारत में ख़बरिया चैनलों के भीड़ भरे बाज़ार में मुनाफे की तलाश में कई विकल्प संभव हैं और विभिन्न चैनलों ने अलग-अलग रास्ते चुने भी हैं, लेकिन इन रास्तों में से किसी के भी साथ जितनी अधिक सफलता मिलती है, न्यूज़ जर्नलिज़्म (पत्रकारिता) का नेचर उतना ही बदल जाता है.
पहला और सबसे लोकप्रिय विकल्प है टैबलॉइड के रूप में मशहूर होना. दरअसल, देखा जाए तो आज भारत का हर एक हिन्दी न्यूज़ चैनल इस समय विकृत रूप से टैबलॉइड जैसा ही है. यह सब मर्डोक के स्टार न्यूज़ के NDTV साथ विभाजन के बाद शुरू हुआ. कुछ सालों तक स्टार का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. यह एक गंभीर न्यूज़ चैनल था, लेकिन कम व्यूअरशिप के कारण घाटे का सामना कर रहा था. ऐसे में स्टार न्यूज़ ने टैबलॉइड को अपनाने का फैसला किया. टैबलॉइड न्यूज़ की कामयाबी को देखने के बाद लगभग हर हिन्दी न्यूज़ चैनल टैबलॉइड हो गया. मुझे याद आता है और मैं इसे अब तक के निचले स्तर के रूप में याद करता हूं कि जब एक हिन्दी न्यूज़ एंकर (स्टार न्यूज़ नहीं) ने अपने बालों में अंगुलियां फेरीं, कैमरे की ओर देखा और कहा, 'ब्रेक के बाद आपको एक रेप दिखाएंगे.'
लेकिन केवल हिन्दी चैनलों को ही दोष क्यों दें? प्रतियोगिता और सुर्खियां हासिल करने के लिए टेबलॉइडाइज़ेशन एक ग्लोबल ट्रेंड बन चुका है, लेकिन इससे कहीं अधिक इसे अच्छी पत्रकारिता की 'मौत' के तौर पर देखा जाना चाहिए. सामान्य बातों को तो भूल जाइए, यह देखना काफी तकलीफदेह है कि शानदार नेशनल जियोग्राफिक और डिस्कवरी चैनल्स भी सेक्स और हिंसा वाले शीर्षक के साथ डिज़ाइन किए जा रहे प्रोग्राम लाकर फिसलन भरे रास्ते की ओर बढ़ते जा रहे हैं.
भारत में टैबलॉइड हिन्दी न्यूज़ चैनलों के साथ एक अन्य समस्या है. विज्ञापन देने वाले, एजेंसियां, सीईओस और मार्केटिंग हेड्स हिन्दी न्यूज़ नहीं देखते. वे इंग्लिश न्यूज़ चैनल ही देखते हैं, इसलिए विज्ञापन रेट्स और खर्चे विशुद्ध रूप से दर्शकों की संख्या पर निर्भर होते हैं न कि चैनल की गुणवत्ता पर. चूंकि कोई हिन्दी चैनल नहीं देखता, ऐसे में यूके के विपरीत, जहां एक गंभीर अखबार, टेबलॉइड की तुलना में अधिक ऊंचा एडवरटाइज़िंग रेट हासिल कर लेता है. भारत में इस तरह का कोई स्तरीकरण मौजूद नहीं है. मुझे यह कहने की ज़रूरत नहीं कि मुनाफे के लिए टैबलॉइड की ओर जाने की प्रवृत्ति ने पत्रकारिता को तबाह कर दिया है. मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि इस बात को व्यापक रूप से स्वीकार किया है कि भारत में ऐसा न्यूज़ चैनल, जो टैबलॉइड नहीं है, NDTV India है और मैं यह भी बताना चाहूंगा कि चैनल को घाटा हो रहा है!
टैबलॉइड में जाने का दूसरा विकल्प, जो पारस्परिक रूप से एक्सक्लूसिव नहीं है, रेटिंग के साथ हेरफेर करना है. दअरसल भारत के हर शहर में 'रेटिंग कंसलटेंट' हैं, जो अपेक्षाकृत छोटी फीस में किसी भी चैनल के लिए ऊंची रेटिंग सुनिश्चित कर देते हैं. इसका तरीका आसान है, कंसल्टेंट उन घरों के बारे में पता करता है, जहां व्यूअरशिप को मापने वाला पीपुल मीटर स्थित है. ये अनजान घर होते हैं, लेकिन कंसल्टेंट इनका पता लगा लेते हैं. वह पीपुल-मीटर वाले घर जाता है, उन्हें 60 इंच का ब्रैंड न्यू प्लाज़्मा टीवी देता है और कहता है, 'आप इस बड़े टीवी पर जो चाहे, देख सकते हैं, लेकिन जो टीवी पीपुल-मीटर से अटैच है, उस पर आपको इन बताए गए चैनलों को ही देखना है.' जो फैमिली कहे गए अनुसार ऐसा करती है, उसे साल के अंत में अतिरिक्त इनाम मिलता है. नीलसन ने अपने ग्लोबल हैड ऑफ सिक्योरिटी को भारत भेजा था और चार माह की विस्तृत जांच के बाद उसने कहा, 'मैंने नीलसन सिस्टम का इतना भ्रष्टाचार दुनिया में किसी जगह पर नहीं देखा.'
टैबलॉइड और रेटिंग में हेरफेर के अलावा कई और भी तरीके हैं, जो लाभ कमाने के लिए कुछ चैनल करते हैं - मसलन ब्लैकमेल और जबरिया वसूली, यह आरोप ब्रिटेन में भी मीडिया पर लगे हैं. भारत में 'पेड न्यूज़' का भी चलन है, जहां अख़बार, कंपनी या राजनेताओं को एडिटोरियल स्पेस के लिए रकम का भुगतान करने के लिए कहते हैं. रीडर, यानी पाठक को यह पता नहीं होता कि यह एडवर्टोरियल है. कुछ समय पहले एक प्रमुख न्यूज़पेपर चेन की रीजनल एडिटर से हमारी मुलाकात हुई, जो अपना न्यूज़पेपर छोड़ना चाहती थीं और NDTV के साथ काम करना चाहती थीं. जब हमने उनसे पूछा कि क्यों - तो उन्होंने कहा, 'जहां तक मनोरंजन की बात है तो इसमें मुझे पेड न्यूज़ से फर्क नहीं पड़ता, मैंने यह सालों तक किया है, लेकिन पिछले सप्ताह जब मुझे पहले पेज पर एक फर्जी मेडिकल प्रोडक्ट के बारे में पॉज़िटिव आर्टिकल छापना था तो मैंने फैसला कर लिया कि मुझे छोड़ना है.' मुझे यह बताने की ज़रूरत नहीं कि यह न्यूज़पेपर काफी लाभ कमाता है. इन सारे तरीकों में एक बात समान है कि लाभ कमाने की होड़ में इतने अधिक समझौते करने पड़ते हैं कि चैनल्स या तो अपनी ईमानदारी गंवा देते हैं या फिर वे न्यूज़ चैनल कहलाने के लायक नहीं रह जाते.
भारत का मीडिया भले ही संपूर्ण नहीं हो, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में टीवी और प्रिंट मीडिया दोनों ही लोकतंत्र के लिए काम कर रहे हैं. तमाम समस्याओं के बावजूद भारत का मीडिया पिछले कई सालों में इतना बढ़ा है कि अभी तक ज़्यादातर ख़बरें अच्छी ख़बरें रही हैं. अब तक हमने बंधनमुक्त पत्रकारिता का अच्छा पहलू ही देखा है, लेकिन कोई भी ताकत बहुत ज़्यादा दूर ले जाने वाले पर कमज़ोरी बन जाती है और हमारा मीडिया तेजी से अपनी ही नियामक संस्था की ओर बढ़ रहा है. यह ऐसी गंभीर स्थिति में है कि सरकार इसे नियंत्रण में लेने की कोशिश कर सकती है.
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