क्या राज्यपाल अपराधियों की जल्द रिहाई के लिए किसी नीति को मंजूरी दे सकते हैं? मामला संविधान पीठ को भेजा

हरियाणा सरकार की उम्रकैद की सजा काट रहे कैदियों को 14 साल से पहले रिहा करने की पॉलिसी को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया

क्या राज्यपाल अपराधियों की जल्द रिहाई के लिए किसी नीति को मंजूरी दे सकते हैं? मामला संविधान पीठ को भेजा

सुप्रीम कोर्ट.

नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने शुक्रवार को उस मामले को पांच जजों के संविधान पीठ (Constitution Bench) के समक्ष रैफर किया है जिसमें मुद्दा है कि क्या राज्यपाल अपराधियों को सजा के बावजूद दोषियों की जल्द रिहाई के लिए किसी नीति को मंजूरी दे सकते हैं? न्यायमूर्ति उदय यू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि पांच न्यायाधीशों की पीठ को संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत विभिन्न राज्यों के राज्यपाल के कार्यकारी आदेशों के माध्यम से ऐसी नीतियों की कानूनी पवित्रता की जांच करनी चाहिए. हरियाणा सरकार की उम्रकैद की सजा काट रहे कैदियों को 14 साल से पहले रिहा करने की पॉलिसी को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया है. 

सुप्रीम कोर्ट को ये फ़ैसला सुनाना था कि उम्र क़ैद की सजा काट रहे अपराधी को उम्र क़ैद की न्यूनतम 14 साल की क़ैद पूरी करने से पहले भी जेल से रिहा किया जा सकता है या नहीं, अगर सरकार ऐसे क़ैदी को अपनी नीति के तहत 14 साल से पहले रिहा करना चाह रही हो.

शीर्ष अदालत ने कानूनी मुद्दों को भी शामिल किया है, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या संविधान के अनुच्छेद 161 (राज्यपाल को क्षमादान या अनुदान प्राप्त करने की शक्ति) के तहत कोई नीति बनाई जा सकती है, जो धारा 433 ए आपराधिक प्रक्रिया संहिता के जनादेश के विरुद्ध हो. 

मामला हरियाणा सरकार द्वारा बनाई गई एक नीति से उत्पन्न हुआ, जिसमें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त, 2019 को राज्यपाल ने संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत शक्तियों (छूट, क्षमा आदि) के प्रयोग में राज्य में न्यायालयों द्वारा दी गई सजा के परिणामस्वरूप सजा काट रहे कैदियों को 
विशेष छूट दी.

नीति के अनुसार, राहत पाने के हकदार उन दोषियों में शामिल हैं, जिन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई है और उनकी उम्र 75 वर्ष या उससे अधिक है और वो 15 अगस्त, 2019 तक वास्तविक सजा के आठ साल पूरे कर चुके हैं. इस पॉलिसी के मुताबिक उन महिला कैदियों को राहत मिलेगी जो 65 वर्ष या उससे अधिक है और वो पैरोल अवधि को छोड़कर महिला दोषियों के मामले में छह साल की वास्तविक सजा काट चुकी हैं. साथ ही ये भी शर्त रखी गई कि सजा के दौरान ऐसे कैदियों का आचरण संतोषजनक हो और उन्होंने पिछले दो वर्षों में कोई बड़ा जेल अपराध ना किया हो. 

जब मामला शीर्ष अदालत में पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पहली नजर में ये नीति दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 433 ए के साथ संघर्ष में प्रतीत होती है. यह प्रावधान आजीवन कारावास की सजा पर रोक की शक्ति को प्रतिबंधित करता है, जब तक कि कम से कम 14 साल की जेल को पूरा न कर लिया जाए.

अदालत ने कहा था कि हरियाणा सरकार ने  संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत राज्य के राज्यपाल को दी गई शक्ति के तहत नीति को तैयार किया है लेकिन इसके जरिए  सीआरपीसी की धारा 433 ए से निकले सिद्धांतों को रद्द नहीं किया जा सकता. 

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सुनवाई के दौरान अदालत ने यह भी जानने की कोशिश की कि क्या सभी व्यक्तिगत मामले जिनमें नीतिगत लाभ दिए गए थे, उन्हें राज्यपाल के समक्ष रखा गया था. या क्या छूट के लाभ देने से पहले प्राधिकरण द्वारा व्यक्तिगत मामलों के तथ्यों पर विचार किया गया था.