अयोध्या (Ayodhya) में जमावड़े के पीछे वीएचपी की मंशा भी अलग है और शिवसेना का मकसद भी.
नई दिल्ली:
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग (Ram Mandir in Ayodhya) को लेकर विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, विभिन्न अखाड़ों से जुड़े साधू-संत और तमाम हिंदूवादी संगठन इकट्ठा हुए हैं. वहीं, शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) भी अपने कुनबे के साथ अयोध्या (Ayodhya) में डेरा डाले हुए हैं. एक तरफ, वीएचपी इस जमावड़े को धर्म संसद का नाम दे रही है. तो दूसरी तरफ, उद्धव ठाकरे का कहना है कि वे राजनीति करने नहीं आए हैं, बल्कि सोये हुए कुंभकर्ण को जगाने आए हैं. कुंभकर्ण से उनका तात्पर्य केंद्र सरकार है. हालांकि अयोध्या में जमावड़े के पीछे वीएचपी की मंशा भी अलग है और शिवसेना (Shiv Sena) का मकसद भी. 2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तब तमाम हिंदूवादी संगठनों में राम मंदिर निर्माण को लेकर उम्मीद जगी, इसके पीछे वजहें भी थीं. एक तो खुद सीएम से पीएम बने नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की छवि और दूसरी बीजेपी (BJP) का मंदिर निर्माण को लेकर किया गया वादा. हालांकि दिन और महीने बीतते रहे, लेकिन इस मसले पर केंद्र सरकार की तरफ से कोई सुगबुगाहट नहीं हुई.
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हां...इस बीच सुप्रीम कोर्ट में हलचल जारी रही. पिछले साल जब उत्तर प्रदेश में बीजेपी (BJP) बंपर बहुमत से सत्ता में आई और खुद 'हिंदू हृदय सम्राट' कहे जाने वाले योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) मुख्यमंत्री बने तब हिंदूवादी संगठनों की उम्मीदों को और बल मिला, लेकिन सीएम योगी से भी कुछ हासिल नहीं हुआ. अब 2019 का चुनाव सिर पर है. ऐसे में विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे तमाम हिंदूवादी संगठन इसे एक मौके के रूप में देख रहे हैं और सरकार पर मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने का दबाव बनाया जा रहा है. इसी क्रम में वे अयोध्या में जुटे हैं. खुद बीजेपी के अंदर से भी अध्यादेश लाने के स्वर उठे हैं और जब पिछले दिनों आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने मंदिर निर्माण को लेकर बयान दिया तो ये स्वर और मुखर हुए.
क्या है शिवसेना का मकसद ?
उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) भले ही यह कह रहे हों कि वह अयोध्या (Ayodhya) राजनीति करने नहीं आए हैं, लेकिन पूरी कवायद सियासी मंशा से ही की गई है. शिवसेना अयोध्या में राम मंदिर निर्माण मुद्दे (Ram Temple in Ayodhya) के जरिये अपनी खोई हुई जमीन वापस पाना चाहती है. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद शिवसेना की छवि कट्टर हिंदूवादी दल की बनी और पार्टी को इसका फायदा भी मिला, लेकिन धीरे-धीरे इसका असर कम होने लगा. महाराष्ट्र में इसका असर दिखा और राज्य की सियासत में पार्टी की पकड़ कमजोर हुई. इसके बरक्स अन्य दलों ने जगह बनाई. खुद, एक ही विचारधारात्मक धरातल पर खड़े बीजेपी को इसका फायदा हुआ. जो बीजेपी महाराष्ट्र में शिवसेना के पीछे खड़ी दिखती थी वह समानांतर खड़ी हो गई.
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बीजेपी शिवसेना को नहीं देना चाहती है माइलेज
अयोध्या में हिंदूवादी संगठनों के जमावड़े और उद्धव ठाकरे की रैली के बीच हर फ्रंट पर राम मंदिर (Ram Mandir) का मुद्दा उठाने वाली बीजेपी भले ही प्रत्यक्ष तौर पर नजर नहीं आ रही है, लेकिन शिवसेना की मौजूदगी ने पार्टी की चिंता बढ़ा दी है. बीजेपी को इस बात का इल्म है कि अयोध्या में उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) की मौजूदगी के क्या मायने हैं और शिवसेना किस तरह इससे सियासी माइलेज हासिल कर सकती है, जिसका सीधा नुकसान बीजेपी को ही है. यही वजह है कि अब बीजेपी खुद मोर्चे पर दिख रही है और शिवसेना (Shiv Sena) की कवायद से निपटने की कोशिश की जा रही है. इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य (Keshav Prasad Maurya) ने साफ-साफ कहा है कि मंदिर आंदोलन में शिवसेना की कोई भूमिका ही नहीं थी. मौर्य ने कहा कि अगर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे राम लला के दर्शन करने जा रहे हैं तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन राम मंदिर निर्माण के लिहाज से वह जो कुछ भी कर रहे हैं, अगर बाला साहेब ठाकरे जिन्दा होते, तो वह उद्धव को ऐसा करने से अवश्य रोकते. केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि न तो पहले मंदिर आंदोलन (Ram Mandir Movement) में शिवसेना की कोई भूमिका थी और न ही आज हो रही धर्म सभा (Dharm Sabha in Ayodhya) में. मौर्य के बयान से साफ है कि बीजेपी शिवसेना को इस सियासी कवायद का माइलेज देने के मूड में नहीं है.
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उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) भले ही यह कह रहे हों कि वह अयोध्या (Ayodhya) राजनीति करने नहीं आए हैं, लेकिन पूरी कवायद सियासी मंशा से ही की गई है. शिवसेना अयोध्या में राम मंदिर निर्माण मुद्दे (Ram Temple in Ayodhya) के जरिये अपनी खोई हुई जमीन वापस पाना चाहती है. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद शिवसेना की छवि कट्टर हिंदूवादी दल की बनी और पार्टी को इसका फायदा भी मिला, लेकिन धीरे-धीरे इसका असर कम होने लगा. महाराष्ट्र में इसका असर दिखा और राज्य की सियासत में पार्टी की पकड़ कमजोर हुई. इसके बरक्स अन्य दलों ने जगह बनाई. खुद, एक ही विचारधारात्मक धरातल पर खड़े बीजेपी को इसका फायदा हुआ. जो बीजेपी महाराष्ट्र में शिवसेना के पीछे खड़ी दिखती थी वह समानांतर खड़ी हो गई.
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