मुंबई:
फिल्म 'द ग़ाज़ी अटैक' रिलीज हो चुकी है और इसका निर्देशन किया है डेब्यूटान्ट संकल्प रेड्डी ने और इस फिल्म को तेलुगू और हिन्दी में एक साथ बनाया गया है. हिन्दी में इस फ़िल्म के डिस्ट्रिब्यूटर हैं करण जौहर की कंपनी धर्मा प्रोडक्शन्स और एए फ़िल्म्स. फ़िल्म के किरदारों की बात करें तो इनमें अहम किरदार निभाएं हैं, ओमपुरी, राणा डग्गूबति, केके मेनन, अतुल कुलकर्णी, तापसी पन्नू और नस्सर ने.
कहानी
हालांकी 'द ग़ाज़ी अटैक' की शुरुआत में एक डिस्क्लेमर आता है कि ये फ़िल्म और इसके कलाकार काल्पनिक हैं पर सूत्रों की मानें तो ये फ़िल्म 1971 के हिंदुस्तान-पाकिस्तान युद्ध के दौरान घटी सत्य घटनाओं से प्रेरित है, जहां पाकिस्तान की सबमरीन यानी पनडुब्बी पीएनएस गाज़ी के डूबने की घटना घटी थी. फ़िल्म के अंत में फिल्मकार उस दौर के कुछ तथ्य भी पेश करते हैं, हालांकी ये बात भी सही है कि फ़िल्म में दिखाए गए कई दृश्य काल्पनिक लगते हैं. ख़ैर सच्चाई कुछ भी हो, बात करते हैं फ़िल्म की कहानी की जिसमें नेवी के आला अफ़सर, हिंदुस्तानी सबमरीन के कैप्टन रणविजय सिंह (केके मेनन) को संमदर के अंदर पाकिस्तान की गतिविधियों पर नज़र रखने का आदेश देते हैं, क्योंकी वो जानते हैं कि रणविजय आक्रामक विचारधारा के हैं इसलिए इस ज़िम्मेदारी का हिस्सा वो लेफ़्टिनेंट कमांडर अर्जुन वर्मा (राणा डग्गूबति) को भी बनाते हैं.
हिंदुस्तानी पनडुब्बी को जब भनक लगती है कि पाकिस्तानी पनडुब्बी विशाखापटनम की तरफ़ बढ़ रही है और उसका इरादा आईएनएस विक्रांत को तहस नहस करने का है तो कप्तान पीएनएस ग़ाज़ी पर हमला बोलने का मन बना लेता है. पर उसके आड़े आता है अर्जुन जो रणविजय को नेवी के आदेशों के ख़िलाफ़ जाने से रोकता है. उधर पाकिस्तानी पनडुब्बी के कप्तान को भी हिन्दुस्तानी पनडुब्बी की भनक लग जाती है और वो उसे नेस्तनाबूद करने की तैयारी कर लेता है.... पर क्या पाकिस्तानी नेवी ये कर पाएगी? कमांडर अर्जुन कैप्टन रणविजय को अपने इरादों में कामयाब होने देगा? इन सब सवालों के जवाबों के लिए आपको फिल्म देखनी चाहिए और इसलिए भी देखनी चाहिए क्योंकि संमदर के अंदर का युद्ध हिंदी सिनेमा में आप पहली बार देखेंगे और बाकी फ़ैसला आप फ़िल्म की ख़ामियां और ख़ूबियां सुनकर ले लीजिए.
ख़ामियां
फ़िल्म की एक ख़ामी है फ़िल्म का मध्यांतर से पहले का हिस्सा जहां कहानी में विरोधाभास थोड़ा कमज़ोर लगता है, ख़ासतौर पर केके मेनन और राणा डग्गूबति के बीच की नोक-झोंक, जिसे देखकर लगता है की रुचि बनाए रखने के लिए इसे ज़बरदस्ती डाला गया है पर ये दृश्य असरदार साबित नहीं होते. फ़िल्म की दूसरी कमी है इसके स्पेशल इफ़ेक्ट्स जो थोड़ा नकली लगते हैं, अगर इनकी तुलना आप हॉलीवुड फ़िल्मों से करें. इसके अलावा फ़िल्म के टेक्निकल टर्म्स यानी तकनीकी शब्दावली दर्शकों के नज़रिये से बाधा बन सकती है और कई जगह कुछ डायलॉग्स इतनी जल्दी में बोले गए हैं कि वो सर के ऊपर से निकल जाते हैं.
खूबियां
फ़िल्म की पहली और सबसे बड़ी खूबी है इसकी पृष्ठभूमी यानी संमदर और उसके अंदर पनडुब्बी में सवार सिपाही जो 250 मीटर पानी के अंदर वहां के हालातों का कई दिनों तक सामना करते हुए युद्ध भी लड़ते हैं. हिंदी सिनेमा में इस विषय पर और इस पृष्ठभूमी पर 'ग़ाज़ी अटैक' पहली फ़िल्म है और इसलिए ये ख़ास हो जाती है, हालांकी फ़िल्म की कहानी एक लाइन में बहुत छोटी है, पर उसे अच्छे से फैलाया गया है, अगर कुछ पहलुओं को छोड़ दें तो. मसलन राणा डग्गूबति और केके मेनन के बीच के सीन जिनका ज़िक्र मैं ख़ामियों के दौरान कर रहा था. एक पनडुब्बी के अंदर का नज़ारा कैसा होता है, अंदर क्या क्या परेशानियां आ सकती हैं, अंधेरे और गहरे समंदर में किस तरह नेवी को दुश्मनों का आभास होता है और किस तरह वहां हथियारों का इस्तेमाल होता है, ये सब हलचल फ़िल्म में आपकी रुचि बनाए रखती है और आप भी संमदर के अंदर गहरे पानी में खो जाते हैं. फ़िल्म की एक और ख़ासियत है और वो है इसके कलाकार केके मेनन का काबिल-ए तारिफ़ काम. फ़िल्म में उन्होंने एक आक्रामक अफ़सर की भूमिका बेजोड़ तरीक़े से निभाई है और इतनी ही तारीफ़ के काबिल है अतुल कुलकर्णी, जिनका फ़िल्म में कमाल का अभिनय और कमाल के हाव भाव नज़र आते हैं. वहीं राणा डग्गूबति भी अपनी कद काठी और अभिनय के सहारे अपने किरदार में जंचते भी हैं साथ ही अदाकारी में केके और अतुल से ज़्यादा पीछे नज़र नहीं आते. तापसी के लिए फ़िल्म में ज़्यादा सीन्स नहीं पर जितने है उन्होंने बिना ज़्यादा बोले अपने एक्सप्रेशन्स के ज़रिये बहुत कुछ कह दिया है. इस फ़िल्म में नयापन भी है, देशभक्ति भी है और रोमांच भी, तो जाइए अपना वीकेंड रोमांचक बनाइए ये फ़िल्म देखकर, मेरी और से इस फ़िल्म को 3.5 स्टार्स.
कहानी
हालांकी 'द ग़ाज़ी अटैक' की शुरुआत में एक डिस्क्लेमर आता है कि ये फ़िल्म और इसके कलाकार काल्पनिक हैं पर सूत्रों की मानें तो ये फ़िल्म 1971 के हिंदुस्तान-पाकिस्तान युद्ध के दौरान घटी सत्य घटनाओं से प्रेरित है, जहां पाकिस्तान की सबमरीन यानी पनडुब्बी पीएनएस गाज़ी के डूबने की घटना घटी थी. फ़िल्म के अंत में फिल्मकार उस दौर के कुछ तथ्य भी पेश करते हैं, हालांकी ये बात भी सही है कि फ़िल्म में दिखाए गए कई दृश्य काल्पनिक लगते हैं. ख़ैर सच्चाई कुछ भी हो, बात करते हैं फ़िल्म की कहानी की जिसमें नेवी के आला अफ़सर, हिंदुस्तानी सबमरीन के कैप्टन रणविजय सिंह (केके मेनन) को संमदर के अंदर पाकिस्तान की गतिविधियों पर नज़र रखने का आदेश देते हैं, क्योंकी वो जानते हैं कि रणविजय आक्रामक विचारधारा के हैं इसलिए इस ज़िम्मेदारी का हिस्सा वो लेफ़्टिनेंट कमांडर अर्जुन वर्मा (राणा डग्गूबति) को भी बनाते हैं.
हिंदुस्तानी पनडुब्बी को जब भनक लगती है कि पाकिस्तानी पनडुब्बी विशाखापटनम की तरफ़ बढ़ रही है और उसका इरादा आईएनएस विक्रांत को तहस नहस करने का है तो कप्तान पीएनएस ग़ाज़ी पर हमला बोलने का मन बना लेता है. पर उसके आड़े आता है अर्जुन जो रणविजय को नेवी के आदेशों के ख़िलाफ़ जाने से रोकता है. उधर पाकिस्तानी पनडुब्बी के कप्तान को भी हिन्दुस्तानी पनडुब्बी की भनक लग जाती है और वो उसे नेस्तनाबूद करने की तैयारी कर लेता है.... पर क्या पाकिस्तानी नेवी ये कर पाएगी? कमांडर अर्जुन कैप्टन रणविजय को अपने इरादों में कामयाब होने देगा? इन सब सवालों के जवाबों के लिए आपको फिल्म देखनी चाहिए और इसलिए भी देखनी चाहिए क्योंकि संमदर के अंदर का युद्ध हिंदी सिनेमा में आप पहली बार देखेंगे और बाकी फ़ैसला आप फ़िल्म की ख़ामियां और ख़ूबियां सुनकर ले लीजिए.
ख़ामियां
फ़िल्म की एक ख़ामी है फ़िल्म का मध्यांतर से पहले का हिस्सा जहां कहानी में विरोधाभास थोड़ा कमज़ोर लगता है, ख़ासतौर पर केके मेनन और राणा डग्गूबति के बीच की नोक-झोंक, जिसे देखकर लगता है की रुचि बनाए रखने के लिए इसे ज़बरदस्ती डाला गया है पर ये दृश्य असरदार साबित नहीं होते. फ़िल्म की दूसरी कमी है इसके स्पेशल इफ़ेक्ट्स जो थोड़ा नकली लगते हैं, अगर इनकी तुलना आप हॉलीवुड फ़िल्मों से करें. इसके अलावा फ़िल्म के टेक्निकल टर्म्स यानी तकनीकी शब्दावली दर्शकों के नज़रिये से बाधा बन सकती है और कई जगह कुछ डायलॉग्स इतनी जल्दी में बोले गए हैं कि वो सर के ऊपर से निकल जाते हैं.
खूबियां
फ़िल्म की पहली और सबसे बड़ी खूबी है इसकी पृष्ठभूमी यानी संमदर और उसके अंदर पनडुब्बी में सवार सिपाही जो 250 मीटर पानी के अंदर वहां के हालातों का कई दिनों तक सामना करते हुए युद्ध भी लड़ते हैं. हिंदी सिनेमा में इस विषय पर और इस पृष्ठभूमी पर 'ग़ाज़ी अटैक' पहली फ़िल्म है और इसलिए ये ख़ास हो जाती है, हालांकी फ़िल्म की कहानी एक लाइन में बहुत छोटी है, पर उसे अच्छे से फैलाया गया है, अगर कुछ पहलुओं को छोड़ दें तो. मसलन राणा डग्गूबति और केके मेनन के बीच के सीन जिनका ज़िक्र मैं ख़ामियों के दौरान कर रहा था. एक पनडुब्बी के अंदर का नज़ारा कैसा होता है, अंदर क्या क्या परेशानियां आ सकती हैं, अंधेरे और गहरे समंदर में किस तरह नेवी को दुश्मनों का आभास होता है और किस तरह वहां हथियारों का इस्तेमाल होता है, ये सब हलचल फ़िल्म में आपकी रुचि बनाए रखती है और आप भी संमदर के अंदर गहरे पानी में खो जाते हैं. फ़िल्म की एक और ख़ासियत है और वो है इसके कलाकार केके मेनन का काबिल-ए तारिफ़ काम. फ़िल्म में उन्होंने एक आक्रामक अफ़सर की भूमिका बेजोड़ तरीक़े से निभाई है और इतनी ही तारीफ़ के काबिल है अतुल कुलकर्णी, जिनका फ़िल्म में कमाल का अभिनय और कमाल के हाव भाव नज़र आते हैं. वहीं राणा डग्गूबति भी अपनी कद काठी और अभिनय के सहारे अपने किरदार में जंचते भी हैं साथ ही अदाकारी में केके और अतुल से ज़्यादा पीछे नज़र नहीं आते. तापसी के लिए फ़िल्म में ज़्यादा सीन्स नहीं पर जितने है उन्होंने बिना ज़्यादा बोले अपने एक्सप्रेशन्स के ज़रिये बहुत कुछ कह दिया है. इस फ़िल्म में नयापन भी है, देशभक्ति भी है और रोमांच भी, तो जाइए अपना वीकेंड रोमांचक बनाइए ये फ़िल्म देखकर, मेरी और से इस फ़िल्म को 3.5 स्टार्स.
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