Mumbai:
करप्ट सिस्टम से लड़ते ईमानदार पुलिस ऑफिसर पर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं। 'सिंघम' भी अलग नहीं है। गोवा बॉर्डर पर शिवगढ़ कस्बे के पुलिस इंस्पेक्टर बाजीराव सिंघम की जेल में कोई मुजरिम नहीं रहता। मामले आपसी समझ बूझ से रफा दफा हो जाते हैं। गांव वाले उसके मुरीद हैं लेकिन तभी एंट्री होती है विलेन जयकांत शिकरे की जिसे दो हफ्ते तक सिंघम के थाने जाकर हाज़िरी देनी है। इंटरवेल तक 'सिंघम' बहुत ही ठंडी है। स्टोरी घिसी पिटी है ट्रीटमेंट 80 और 90 के दौर की गांव की फिल्मों जैसा है। ना गांव वालों की कॉमेडी हंसाती है ना इंस्पेक्टर की लव स्टोरी दिल को छूती है एक्शन भी कम ही है। फिल्म में जान आती है इंटरवेल के बाद जब मेन विलेन और हीरो का सामना होता है। यहां अजय देवगन के कई अच्छे एक्शन सीन्स हैं। प्रकाश राज जैसा दमदार विलेन कहता है कि मेरे पास मां है पर बेटी नहीं। और हीरो का कहना है कि मेरी ज़रूरतें कम हैं इसीलिए मेरे ज़मीर में दम है। जब दोनों का ईगो टकराता है तो दर्शकों को तालियां पीटने का मौका मिल जाता है। जहां 'सिंघम' की सिग्नेचर टून माहौल में जोश भरती है वहीं कमज़ोर म्यूज़िक इसकी हवा निकाल देता है। हैरानी है कि कैसे रातों रात एक पूरे शहर का भ्रष्ट पुलिस डिपार्टमेंट ईमानदार बन जाता है। स्टोरी म्यूज़िक और केरेक्टराइज़ेशन के मामले में 'सिंघम' 'दबंग' से कमज़ोर है। सिंघम साफ सुथरी फिल्म है और फैमिली ऑडियेंस के लिए बनी है। विलेन प्रकाश राज और अजय देवगन बराबरी से एक्टिंग के मैदान में डटे हैं। फिर भी ये एवरेज फिल्म है क्योंकि डायरेक्टर रोहित शेट्टी ने कमज़ोर स्क्रिप्ट चुनी है। अगर आपको इंटरवेल तक कागज़ का शेर देखना है तो 'सिंघम' आपके लिए है। फिल्म के लिए मेरी रेटिंग 2.5 स्टार।
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