यह ख़बर 20 सितंबर, 2011 को प्रकाशित हुई थी

'समाज की परिभाषाओं ने मुझे नाजायज ठहराया'

खास बातें

  • भट्ट कहते हैं, भारतीय दर्शकों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उन्हें पर्दे पर सच्चाई तो चाहिए मगर साथ में हैप्पी एंडिंग का तड़का भी चाहिए।
New Delhi:

लोग महेश भट्ट को फिल्म निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता समेत कई भूमिकाओं में देखते आए हैं, मगर भट्ट का कहना है कि इन सब भूमिकाओं से इतर भी उनका एक रूप है, जो समाज की परिभाषाओं को आंख मूंद कर स्वीकार नहीं करता। 20 सितंबर 1949 को मुंबई में जन्मे भट्ट कहते हैं, समाज में कुछ परिभाषाओं को शाश्वत मान लिया गया है और जो इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उसे नाजायज कह दिया जाता है। मेरे पिता एक ब्राह्मण थे और मां मुस्लिम। दोनों समाज की, परिवार की परिभाषा के तहत फिट नहीं बैठे, इसलिए मुझे एक नाजायज औलाद भी कहा गया। हालांकि भट्ट मानते हैं कि जायज और नाजायज की इसी कशमकश ने उन्हें इन परिभाषाओं से इतर सोचने का हौंसला दिया और उन्होंने समाज के बंधे हुए दायरे से बाहर निकल कर सोचना शुरू किया। अर्थ, सारांश, डैडी, जनम और जख्म जैसी फिल्मों के जरिए समाज में मौजूद कई धारणाओं पर गहरा आघात करना तो दूसरी तरफ वो लम्हे, जन्नत और मर्डर जैसी फिल्मों के जरिए वक्त के साथ बदल रहे समाज और रिश्तों को भी उतनी ही गहराई से पेश करने वाले भट्ट कहते हैं, मैंने बदलते हुए वक्त की नब्ज को पहचान कर उसके साथ चलने की कोशिश की है, ताकि मैं पीछे नहीं छूट जाऊं। इंसानी रिश्तों की जटिलताओं और समाज में मौजूद विरोधाभासों को हमेशा से अपनी फिल्मों के केंद्र में रखने वाले भट्ट का कहना है कि उन्होंने अपनी जिंदगी के दौरान जो देखा, सीखा, समझा और भोगा उसी को आलोचना और परिणाम की परवाह किए बगैर पर्दे पर उतारा। हालांकि उनका कहना है कि आज दर्शकों का अधिकांश हिस्सा गंभीर फिल्मों से ऊब महसूस करता है और सिर्फ मनोरंजन की तलाश में सिनेमाघरों तक जाता है। भट्ट कहते हैं, भारतीय दर्शकों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उन्हें पर्दे पर सच्चाई तो चाहिए मगर साथ में हैप्पी एंडिंग का तड़का भी चाहिए। उन्होंने कहा, दर्शकों की इसी बदलती हुई मांग और बाजार में बने रहने के लिए मैं अपनी फिल्मों में यह बदलाव लाया, हालांकि जड़ें अभी भी उतनी ही मजबूत हैं और एक अच्छी पटकथा की जरूरत मेरी फिल्मों से कभी दूर नहीं हुई। हिन्दुस्तानी सिनेमा के बदल रहे स्वरूप को स्वीकार करने वाले भट्ट को एक बात बहुत परेशान करती है, वक्त के साथ बदलाव को स्वीकार करने तक तो ठीक है मगर आज के हिन्दुस्तानी सिनेमा में धीरे-धीरे हिन्दुस्तान ही खत्म होता जा रहा है। हालांकि उनका मानना है कि युवा पीढ़ी में शिद्दत, प्यास और ऊर्जा का जबर्दस्त प्रवाह है, बस गहराई की कमी होती जा रही है। महेश भट्ट ने अपने सिने करियर की शुरुवात वृत्तचित्र सकट से की और वर्ष 1982 में आई उनकी फिल्म अर्थ के जरिए उन्हें पहचान मिली।


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