नई दिल्ली:
दोस्ती जिंदगी का सबसे खूबसूरत रिश्ता होने के साथ ही बॉक्स ऑफिस का ऐसा फार्मूला है, जो दशकों से फिल्मों की सफलता की गारंटी रहा है। फिल्म 'दोस्ती', 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' से लेकर 'शोले', 'दिल चाहता है', 'थ्री इडियट्स', 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' आदि दर्जनों फिल्मों की सफलता इस बात की गवाह है कि दोस्ती का जज्बा हमेशा जिंदा रहा है।
मुंबई में रह रहे फिल्म इतिहासकार एसएमएम औसजा ने कहा, भारतीय जनमानस का तानाबाना बचपन से ही कुछ इस तरह बुना जाता है, जिसमें संबंधों का पैमाना जन्म से तय होता है। लेकिन खून के रिश्तों से अलग हटकर दोस्ती का रिश्ता कम मजबूत नहीं होता और हिन्दी फिल्मों में तो दोस्तों ने बाकायदा एक-दूसरे की खातिर जान देकर इसे साबित भी किया है। दर्शकों को यह बात पसंद आई।
फिल्म आलोचक राशिद कुरैशी ने कहा, दर्शकों को ऐसी फिल्में पसंद आती हैं, जिनसे वह खुद को आसानी से जोड़ सकते हैं। दोस्ती पर आधारित फिल्म इसलिए दर्शकों को पसंद आती है, क्योंकि खुद उनके भी दोस्त होते हैं और वह फिल्म के किरदार को अपने बेहद करीब समझ बैठते हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसका कोई दोस्त न हो।
फिल्म समीक्षक राजकमल ने कहा, जब दर्शक फिल्म में बताई जा रही स्थिति से खुद को जोड़ लेते हैं, तो उनके मन में कहानी के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है, इसीलिए दोस्ती का फार्मूला कारगर होता है। 1964 में 'दोस्ती' ने एक नेत्रहीन और एक विकलांग की दोस्ती को बेहद मार्मिक तरीके से पर्दे पर पेश किया। इसी साल राजकपूर 'संगम' लेकर आए। यह फिल्म राजकपूर और राजेंद्र कुमार की दोस्ती तथा दोनों का प्यार वैजयंती माला पर केंद्रित था।
दुनिया के कई देशों में 5 अगस्त को फ्रेंडशिप डे मनाया जाता है। दोस्ती के प्रतीक इस दिन पर ही दोस्तों को याद करना जरूरी नहीं है, क्योंकि यह रिश्ता तो सदाबहार होता है। यही वजह है कि हिन्दी फिल्मों में इस रिश्ते को पूरा महत्व दिया गया। 70 और 80 के दशक में अमिताभ की 'शोले', 'याराना', 'नमक हराम', 'दोस्ताना', 'नसीब' जैसी फिल्मों का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला।
इन फिल्मों में बॉक्स ऑफिस के लिए सभी मसाले तो थे, लेकिन दोस्ती को आधार बनाया गया था। औसजा ने कहा, इन फिल्मों की सफलता का मुख्य कारण यह था कि लोगों को दोस्ती विषय बहुत अच्छा लगा। बाकी मसाले तो फिल्म में होते हैं। जब इस तरह की थीम पर फिल्म बनाई जाती है और उसे सफाई से तराशा जाता है, तो निश्चित रूप से वह सफल होती है।
मुन्ना भाई शृंखला की फिल्मों में मुन्ना और सर्किट की जोड़ी का आधार भी दोस्ती ही है। युवा फिल्म निर्माता फरहान अख्तर की 'दिल चाहता है' को सुपरहिट बनाने में भी दोस्ती का ही फॉर्मूला आधार रहा। 'पार्टनर' में गोविंदा और सलमान खान रोमांटिक कॉमेडी करते नजर आए। राजकमल के अनुसार, हर पीढ़ी एक फिल्मी दौर की दर्शक होती है। अपने आसपास के माहौल से हर पीढ़ी प्रभावित होती है और हर दौर रूपहले पर्दे पर किसी न किसी रूप में खुद को पेश करता है। अपने दोस्तों और उनकी कहानी से मिलताजुलता घटनाक्रम पर्दे पर सभी को पसंद आता है।
मुंबई में रह रहे फिल्म इतिहासकार एसएमएम औसजा ने कहा, भारतीय जनमानस का तानाबाना बचपन से ही कुछ इस तरह बुना जाता है, जिसमें संबंधों का पैमाना जन्म से तय होता है। लेकिन खून के रिश्तों से अलग हटकर दोस्ती का रिश्ता कम मजबूत नहीं होता और हिन्दी फिल्मों में तो दोस्तों ने बाकायदा एक-दूसरे की खातिर जान देकर इसे साबित भी किया है। दर्शकों को यह बात पसंद आई।
फिल्म आलोचक राशिद कुरैशी ने कहा, दर्शकों को ऐसी फिल्में पसंद आती हैं, जिनसे वह खुद को आसानी से जोड़ सकते हैं। दोस्ती पर आधारित फिल्म इसलिए दर्शकों को पसंद आती है, क्योंकि खुद उनके भी दोस्त होते हैं और वह फिल्म के किरदार को अपने बेहद करीब समझ बैठते हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसका कोई दोस्त न हो।
फिल्म समीक्षक राजकमल ने कहा, जब दर्शक फिल्म में बताई जा रही स्थिति से खुद को जोड़ लेते हैं, तो उनके मन में कहानी के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाती है, इसीलिए दोस्ती का फार्मूला कारगर होता है। 1964 में 'दोस्ती' ने एक नेत्रहीन और एक विकलांग की दोस्ती को बेहद मार्मिक तरीके से पर्दे पर पेश किया। इसी साल राजकपूर 'संगम' लेकर आए। यह फिल्म राजकपूर और राजेंद्र कुमार की दोस्ती तथा दोनों का प्यार वैजयंती माला पर केंद्रित था।
दुनिया के कई देशों में 5 अगस्त को फ्रेंडशिप डे मनाया जाता है। दोस्ती के प्रतीक इस दिन पर ही दोस्तों को याद करना जरूरी नहीं है, क्योंकि यह रिश्ता तो सदाबहार होता है। यही वजह है कि हिन्दी फिल्मों में इस रिश्ते को पूरा महत्व दिया गया। 70 और 80 के दशक में अमिताभ की 'शोले', 'याराना', 'नमक हराम', 'दोस्ताना', 'नसीब' जैसी फिल्मों का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोला।
इन फिल्मों में बॉक्स ऑफिस के लिए सभी मसाले तो थे, लेकिन दोस्ती को आधार बनाया गया था। औसजा ने कहा, इन फिल्मों की सफलता का मुख्य कारण यह था कि लोगों को दोस्ती विषय बहुत अच्छा लगा। बाकी मसाले तो फिल्म में होते हैं। जब इस तरह की थीम पर फिल्म बनाई जाती है और उसे सफाई से तराशा जाता है, तो निश्चित रूप से वह सफल होती है।
मुन्ना भाई शृंखला की फिल्मों में मुन्ना और सर्किट की जोड़ी का आधार भी दोस्ती ही है। युवा फिल्म निर्माता फरहान अख्तर की 'दिल चाहता है' को सुपरहिट बनाने में भी दोस्ती का ही फॉर्मूला आधार रहा। 'पार्टनर' में गोविंदा और सलमान खान रोमांटिक कॉमेडी करते नजर आए। राजकमल के अनुसार, हर पीढ़ी एक फिल्मी दौर की दर्शक होती है। अपने आसपास के माहौल से हर पीढ़ी प्रभावित होती है और हर दौर रूपहले पर्दे पर किसी न किसी रूप में खुद को पेश करता है। अपने दोस्तों और उनकी कहानी से मिलताजुलता घटनाक्रम पर्दे पर सभी को पसंद आता है।
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