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सच समझकर देखा तो सच्चाई की कमी दिखी इसलिए 'अलीगढ़' की समीक्षा बस एक फ़िल्म के तौर पर करनी होगी। फ़िल्म विश्वविद्यालय के एक समलैंगिक प्रोफ़ेसर के बारे में है जिनका दो पत्रकारों द्वारा स्टिंग बनाया जाता है। अगले दिन यह घटना अखबारों में सुर्खियां बनती है जिसके बाद उन्हें यूनिवर्सिटी से सस्पेंड कर दिया जाता है। इसके बाद एक पत्रकार दीपू इस घटना के पीछे की साज़िश को भांपकर प्रोफ़ेसर सिरास को इंटरव्यू कर उनका पक्ष भी सबके सामने रखने की कोशिश में कामयाब होता है।
मनोज वाजपेयी की फिल्म
फ़िल्म में प्रोफ़ेसर की भूमिका में हैं मनोज बाजपेयी, पत्रकार दीपू बने हैं राजकुमार राव और सिरास के वकील बने हैं आशीष विद्यार्थी। हालांकि ऐसा कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ मनोज बाजपेयी की फ़िल्म है। उनकी परफ़ॉर्मेंस, हाव भाव, संवाद अदायगी में दर्द, अकेलापन, डर और संघर्ष जैसे छोटे छोटे भाव बारिकियों के साथ आप तक पहुंचेंगे। कई सीन में ऐसा लगा जैसे निर्देशक हंसल मेहता ने अभिनेताओं को अभिनय की सीमाएं लांघने की पूरी आज़ादी दे दी। मनोज ने यह सीमाएं ना सिर्फ़ लांघी हैं बल्कि उड़ान भरी है।
मनोज अपने ऐसे कई दृश्यों से अभिनय के अलग अलग रंग पेश करते हैं। मसलन लता मंगेशकर के गाने सुनते सुनते अपनी तनहाई खुद से बांटते हुए उनका एक दमदार सीन, साथ ही वह सीन जहां मनोज दुनिया की नज़रों से बचने के लिए अपने घर की खिड़की दरवाज़े बंद करते हैं। फ़िल्म के स्क्रीनप्ले और निर्देशन में ज़रा खामी दिखी। कहानी आपको कब कहां और क्यों ले जा रही है यह कई बार साफ़ नहीं होता। कई सीन्स अटपटे लगते हैं और झटका देते हैं मसलन राजकुमार राव का एक रोमांटिक सीन और उसी से जुड़ा मनोज का रोमांटिक सीन जिसे दर्शाने के लिए निर्देशन में नज़रिए की उलझन दिखती है।
फ़िल्म में राजकुमार राव का काम कम है पर जितना है अच्छा है। किरदारों की गहराई आपको छुएगी। एक संवेदनशील मुद्दे पर बहस को यह फ़िल्म दूसरे नज़रिए से समाज के सामने रख रही है। फ़िल्म को लेकर आपका मत जो भी हो पर लगता है कि 'अलीगढ़' में मनोज का अभिनय सिनेमा इतिहास में मील का पत्थर साबित होगी।
मेरी ओर से फ़िल्म को साढ़े तीन स्टार्स।
                                                                        
                                    
                                सच समझकर देखा तो सच्चाई की कमी दिखी इसलिए 'अलीगढ़' की समीक्षा बस एक फ़िल्म के तौर पर करनी होगी। फ़िल्म विश्वविद्यालय के एक समलैंगिक प्रोफ़ेसर के बारे में है जिनका दो पत्रकारों द्वारा स्टिंग बनाया जाता है। अगले दिन यह घटना अखबारों में सुर्खियां बनती है जिसके बाद उन्हें यूनिवर्सिटी से सस्पेंड कर दिया जाता है। इसके बाद एक पत्रकार दीपू इस घटना के पीछे की साज़िश को भांपकर प्रोफ़ेसर सिरास को इंटरव्यू कर उनका पक्ष भी सबके सामने रखने की कोशिश में कामयाब होता है।
मनोज वाजपेयी की फिल्म
फ़िल्म में प्रोफ़ेसर की भूमिका में हैं मनोज बाजपेयी, पत्रकार दीपू बने हैं राजकुमार राव और सिरास के वकील बने हैं आशीष विद्यार्थी। हालांकि ऐसा कह सकते हैं कि यह सिर्फ़ मनोज बाजपेयी की फ़िल्म है। उनकी परफ़ॉर्मेंस, हाव भाव, संवाद अदायगी में दर्द, अकेलापन, डर और संघर्ष जैसे छोटे छोटे भाव बारिकियों के साथ आप तक पहुंचेंगे। कई सीन में ऐसा लगा जैसे निर्देशक हंसल मेहता ने अभिनेताओं को अभिनय की सीमाएं लांघने की पूरी आज़ादी दे दी। मनोज ने यह सीमाएं ना सिर्फ़ लांघी हैं बल्कि उड़ान भरी है।
मनोज अपने ऐसे कई दृश्यों से अभिनय के अलग अलग रंग पेश करते हैं। मसलन लता मंगेशकर के गाने सुनते सुनते अपनी तनहाई खुद से बांटते हुए उनका एक दमदार सीन, साथ ही वह सीन जहां मनोज दुनिया की नज़रों से बचने के लिए अपने घर की खिड़की दरवाज़े बंद करते हैं। फ़िल्म के स्क्रीनप्ले और निर्देशन में ज़रा खामी दिखी। कहानी आपको कब कहां और क्यों ले जा रही है यह कई बार साफ़ नहीं होता। कई सीन्स अटपटे लगते हैं और झटका देते हैं मसलन राजकुमार राव का एक रोमांटिक सीन और उसी से जुड़ा मनोज का रोमांटिक सीन जिसे दर्शाने के लिए निर्देशन में नज़रिए की उलझन दिखती है।
फ़िल्म में राजकुमार राव का काम कम है पर जितना है अच्छा है। किरदारों की गहराई आपको छुएगी। एक संवेदनशील मुद्दे पर बहस को यह फ़िल्म दूसरे नज़रिए से समाज के सामने रख रही है। फ़िल्म को लेकर आपका मत जो भी हो पर लगता है कि 'अलीगढ़' में मनोज का अभिनय सिनेमा इतिहास में मील का पत्थर साबित होगी।
मेरी ओर से फ़िल्म को साढ़े तीन स्टार्स।
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                                        अलीगढ़, मनोज वाजपेयी, प्रोफेसर सिरास, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, Aligarh, Manoj Bajpai, Professor Siras, Aligarh Muslim University
                            
                        