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This Article is From Oct 07, 2016

रिव्यू- 'मिर्ज़या' का हर फ्रेम खूबसूरत, लेकिन कमज़ोर है कहानी | 2 स्टार

रिव्यू- 'मिर्ज़या' का हर फ्रेम खूबसूरत, लेकिन कमज़ोर है कहानी | 2 स्टार
हर्षवर्धन कपूर और सैयामी खेर के पास फिल्म में ज़्यादा कुछ कर दिखाने का मौका नहीं था...
मुंबई: इस फ़िल्मी फ्राइडे रिलीज़ हुई है राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फ़िल्म 'मिर्ज़या'.  इस फ़िल्म की पटकथा लिखी है मशहूर गीतकार गुलज़ार ने. फ़िल्म में हर्षवर्धन कपूर और सैयामी खेर मुख्य भूमिका में हैं, दोनों ने इस फ़िल्म से बॉलीवुड में क़दम रखा है. हर्षवर्धन अभिनेता अनिल कपूर के बेटे हैं. इन दोनों के अलावा फ़िल्म में अनुज चौधरी, अंजलि पाटिल, के के रैना और ओम पुरी ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं.

फ़िल्म का नाम 'मिर्ज़या' इसलिए है क्योंकि ये मिर्ज़ा और साहिबा की प्रेम कहानी है जिसे आज के दौर के हिसाब से गढ़ा गया है. जैसे लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद या फिर रोमियो-जूलियट की प्रेम कहानियां इतिहास में दर्ज हैं मिर्ज़ा-साहिबा की कहानी भी वैसी ही है पर फ़िल्मकार राकेश ओम प्रकाश मेहरा आज के किरदारों के ज़रिए घटनाओं के सहारे इशारों-इशारों में मिर्ज़ा-साहिबा की प्रेम कहानी सुनाते हैं.

बात खामियों की
ऐसा लगता है जैसे निर्देशक मान बैठे हैं कि मिर्ज़ा-साहिबा की कहानी से सभी वाक़िफ़ हैं. वो इस बात पर ग़ौर नहीं करते कि वो पर्दे पर दो अलग-अलग दौर के दृश्य दिखाकर मिर्ज़ा-साहिबा की कहानी और आज की कहानी की तुलना कर रहे हैं. शायद कई दर्शकों को दो कहानियों को मिलाकर फ़िल्म समझने में दिक्कत हो. ये है तो प्रेम कहानी पर इससे जुनून और दर्द ग़ायब है. और प्रेम में जुनून महसूस न हो तो बिछड़ने का दर्द भी दर्शकों को छू नहीं पाएगा और इसकी ज़िम्मेदार है कमज़ोर स्क्रिप्ट. फ़िल्म में गुलज़ार की बेहतरीन शायरी तो दिखती है पर कहानी को बढ़ाने वाली स्क्रिप्ट नहीं. जब भी आप भावनाओं के घोड़े पर सवार होंगे तभी कोई गाना आकर आपको उस घोड़े से गिरा देगा. ये गाने बेहद अच्छे हैं पर भावनाओं पर ब्रेक लगाते हैं. ये एक ख़ूबसूरत फ़िल्म है पर बिना रूह के! ऐसा इसलिए क्योंकि फ़िल्म का हर फ़्रेम खूबसूरत चित्र जैसा प्रतीत होता है पर कोई भी चित्र दिल को छूने वाली कहानी बयां नहीं करता.

फ़िल्म के दोनों कलाकारों के पास ज़्यादा कुछ दिखाने का मौका नहीं था. फ़िल्म के बाक़ी ताम-झाम में ये दोनों कहीं खो से गए. 'मिर्ज़या' दोनों के लिए एक बड़ा बैनर ज़रूर थी पर इसे अच्छी शुरुआत नहीं कह सकते. ओम पुरी का फ़िल्म में इस्तेमाल ढंग से नहीं हुआ ये मुश्किल से दो या तीन सीन में आपको नज़र आएंगे. इनकी ग़ैरमौजूदगी से भी कुछ ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता.

ये हैं फिल्म की खूबियां
फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ूबी है इसकी सिनेमाटोग्राफ़ी जो फ़िल्म के हर किरदार पर भारी पड़ती है. इसके लिए फिल्म के सिनेमाटोग्राफ़र पॉवेल डाइलस की जितनी तारीफ़ करें कम है. फ़िल्म के एक-एक फ्रेम पर उन्होंने नक्काशी की है. हर फ्रेम मंत्रमुग्ध करता है. फ़िल्म की दूसरी ख़ूबसूरती है गुलज़ार के गानों के बोल. चाहे वो गीत 'मिर्ज़या' हो, 'एक नदी' हो या फिर कोई और गाना. साथ ही इन बोलों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से संगीतकार जोड़ी शंकर-एहसान-लॉए ने अपनी धुनों में पिरोया है. ये धुनें आपको जगह और कहानी की रूह का एहसास करा जाती हैं जो फ़िल्म की स्क्रिप्ट से नहीं हो सका. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि यह फ़िल्म एक शादी के ख़ूबसूरत मंडप की तरह है जहां स्वागत अच्छा है पर भावना रहित मेहमानवाज़ी है और खाना बेस्वाद. बेहतरीन सिनेमाटोग्राफ़ी और ख़ूबसूरत गीत-संगीत के लिए मेरी ओर से 'मिर्ज़या' को 2 स्टार.

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