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This Article is From Apr 20, 2021

प्रवासी मजदूरों की जुबानी सुनिए, क्यों दिल्ली में रुकने के लिए नहीं हैं तैयार

दिल्ली में लॉकडाउन के ऐलान के साथ ही प्रवासी श्रामिकों के पलायन का सिलसिला तेज हो गया. किसी के सिर पर बोरी है तो किसी ने कंधों पर बैग के साथ बाकी जरूरी सामानों को बांधा हुआ है.

क्या कारण है कि दिल्ली में रुकने को तैयार नहीं प्रवासी मज़दूर

नई दिल्ली:

दिल्ली में लॉकडाउन के ऐलान के साथ ही प्रवासी श्रामिकों के पलायन का सिलसिला तेज हो गया. किसी के सिर पर बोरी है तो किसी ने कंधों पर बैग के साथ बाकी जरूरी सामानों को बांधा हुआ है. कोई सूटकेस को पकड़े दिखा तो कोई गोद में बच्चे लिए अपने गांव की तरफ जाती बस को तलाश रहा है. लोगों से खचाखच भरे आनंद विहार बस अड्डे पर कोई भी बस आती है तो चंद मिनटों के अंदर भर जाती है. आलम ये है कि लोग बसों की सीढ़ियों पर लटकने से लेकर छतों पर बैठकर, किसी भी तरह दिल्ली से दूर जाना चाहते हैं, लोगों की इस बेचैनी को जानने की कोशिश तो पहले लॉकडाउन का दर्द छलक कर बाहर आ गया. लोगों ने बताया कि किस तरह परेशानियों के साथ सैकड़ों मीलों का सफर पैदल तय करके गए थे.  

आनंद विहार बस स्टेशन से घर लौटते मजदूरों ने बताया कि लॉकडाउन के ऐलान होते ही मालिकों ने अब तक का हिसाब कर दिया, अब खाने और परिवार को पालने के लिए दिल्ली में गुजर बसर करना मुश्किल होगा. श्रामिकों को इस बात का भी डर है कि लॉकडाउन बढ़ने के साथ ही बस और ट्रेनें बंद हो जाएंगी फिर पिछले साल की तरह पैदल ही सफर न करना पड़े. लोगों को न ही सरकार पर विश्वास हो रहा है और न ही सिस्टम भरोसा. चावड़ी बाजार में काम करने वाले सुनील पाण्डेय बताते हैं कि बाजार बंद हैं, जिसके कारण मालिक पैसा देना नहीं चाहते हैं. मालिकों ने हिसाब करके वापस भेज दिया है. राय बरेली के लिए जाते सूर्य कुमार सरकार की बात करते ही गुस्सा हो गए. भरे गले के साथ उन्होंने कहा कि न मालिक पैसा देता और न ही सरकार ख्याल रखती है. उन्होंने बताया कि मालिक ने एक दिन का पैसा नहीं दिया, कुछ लोगों के पास तो अपने दर्द को जाहिर करने का समय तक नहीं था. 

देश में कोविड महामारी के प्रकोप का एक साल से भी ज्यादा का समय आ गया है, पहली लहर के बाद हालात नियंत्रित दिखे तो लोगों को भरोसा था कि सरकार नई आपदाओं के लिए पहले से ज्यादा तैयार होगी लेकिन दूसरी लहर ने सारी कलई खोलकर रख दी. एक साल बाद भी हालात जस के तस बने हुए हैं. न अस्पतालों में दवाई मौजूद हैं और न ही ऑक्सीजन के सिलेण्डर. सबसे बड़ी चोट मजदूरों को लगी है जो एक साल बाद भी वहीं खड़े हैं जहां पहले खड़े थे.   

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