डे-नाइट टेस्ट क्रिकेट : आखिर क्रिकेट जगत को क्यों पड़ी इसकी जरूरत?

डे-नाइट टेस्ट क्रिकेट : आखिर क्रिकेट जगत को क्यों पड़ी इसकी जरूरत?

ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के बीच पहला डे-नाइट टेस्ट गुलाबी गेंद से खेला जा रहा है (सौजन्य : AP)

नागपुर:

टेस्ट मैचों का दर्जा क्रिकेट में हमेशा से टॉप पर रहा है। खिलाड़ियों के बीच इसकी लोकप्रियता को लेकर कभी कोई शक नहीं रहा और शायद होगा भी नहीं, लेकिन हाल के दिनों में ऐसा क्या हुआ कि आईसीसी को वह करना पड़ा, जो बीते 138 साल के इतिहास में नहीं हुआ?

आज क्रिकेट के तीन फॉर्मेट हैं। हर फॉर्मेट की अपनी महत्ता और लोकप्रियता का ग्राफ है। जब वनडे और टी-20 नहीं हुआ करते थे, तब प्रथम श्रेणी मैच थे, लेकिन तब भी टेस्ट क्रिकेट ही टॉप पर था। आज भी टेस्ट क्रिकेट टॉप पर है, लेकिन वनडे और खासकर टी-20 के ग्लैमर से दर्शकों में इसका आकर्षण कम हो गया।

दर्शकों की जरूरत
भले ही खिलाड़ियों के बीच इसके आकर्षण में कोई कमी न आई हो, लेकिन कोई भी खेल सिर्फ खिलाड़ियों से सफल नहीं होता। उसकी लोकप्रियता को मापने के लिए दर्शकों की संख्या और टीवी पर टीआरपी की जरूरत होती है और वैश्विक खेलों में राष्ट्रीय टीमों को अपने प्रशंसकों की तालियों से बल मिलता है।

बाजार का असर
आज का खेल बाजार से प्रभावित है। टी-20 सबसे अधिक और वनडे क्रिकेट उससे कुछ कम। टेस्ट क्रिकेट पर भी बाजार का असर है। कोई सीरीज होती है, तो उसके लिए टी-20, वनडे और टी-20 के लिए एक ही प्रसारणकर्ता होता है। प्रसारणकर्ता अधिकार हासिल करने के लिए करोड़ों डॉलर खर्च करता है। उसे टीवी दर्शकों की संख्या से मतलब होता है। उसे टीआरपी से मतलब होता है। टीआरपी पर ही उसकी कमाई आश्रित होती है।

दर्शकों की संख्या का विज्ञापन पर असर
टेस्ट क्रिकेट में दर्शकों की संख्या में काफी कमी आई है। ऐसे में निश्चित तौर पर बाजार प्रभावित होगा। प्रसारण अधिकारों में बोली कम लगेगी और इसका सीधा असर विज्ञापनों की दर पर पड़ेगा। ऐसे में कोई भी प्रसारणकर्ता नुकसान झेलकर काम नहीं करना चाहेगा। अब ऐसे में नियामक संस्थाओं पर कुछ करने का दबाव बनेगा।

इसी क्रम में 2009 में क्रिकेट की नियामक संस्था - एमसीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि एशेज जैसी आइकॉनिक सीरीज को छोड़ दिया जाए तो दुनिया भर में टेस्ट क्रिकेट को देखने वालों की संख्या में खतरनाक स्तर पर कमी आई है। इससे तो क्रिकेट का यह फॉर्मेट मर जाएगा। इसके बाद ही एमसीसी ने दिन-रात के टेस्ट क्रिकेट की परिकल्पना को दुनिया के सामने रखा।

एमसीसी का यह कहना बिल्कुल सही है। क्रिकेट के गढ़ों में से एक भारत में आज हालात यह हैं कि भारतीय टीम का सामना विश्व की सर्वोच्च वरीयता प्राप्त टेस्ट टीम से हो रहा है और स्टेडियम लगभग खाली रह रहे हैं। बीते 5 सालों की बात करें, तो 2013 में जब सचिन तेंदुलकर ने संन्यास लिया था, तब उनके करियर के आखिरी टेस्ट मैच के दौरान भारत में कोई स्टेडियम पूरी तरह भरा था। उससे पहले और उसके बाद के आंकड़े निराशाजनक हैं।

डे-नाइट टेस्ट : सकारात्मक बदलाव
इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने गुलाबी रंग की गेंद के साथ छह साल तक दुनिया भर में परीक्षण करने के बाद आखिरकार 27 नवंबर से दुनिया के सबसे पुराने क्रिकेट स्टेडियमों में से एक एडीलेड ओवल में पहला आधिकारिक डे-नाइट का टेस्ट कराने का फैसला किया। यह एक ऐतिहासिक घटना थी और पूरी दुनिया इसे टेस्ट क्रिकेट के हक में सकारात्मक बदलाव के रूप में देख रही है।

आईसीसी ने अपना पक्ष साफ करते हुए कहा कि यह ऐतिहासिक मैच टेस्ट क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ाने की योजना का हिस्सा है। आईसीसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डेविड रिचर्डसन ने कहा कि दिन-रात के टेस्ट मैच से ऐसे देशों में क्रिकेट के इस फॉर्मेट की लोकप्रियता में इजाफा लाने में मदद मिलेगी, जहां टेस्ट देखने स्टेडियम में बहुत कम संख्या में दर्शक पहुंचते हैं।

रिचर्डसन ने कहा, "वास्तविकता यही है कि टेस्ट क्रिकेट कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है, जैसे कुछ देशों में दर्शकों की संख्या में कमी। इसके अलावा टेस्ट क्रिकेट को सीमित ओवरों वाले फॉर्मेट से भी काफी चुनौती मिल रही है। या तो हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और टेस्ट क्रिकेट के प्रति रुचि खत्म हो जाने दें या तो बिल्कुल नई रचनात्मकता के साथ सर पर खड़ी इस समस्या का समाधान निकालें।"

समस्याएं भी आएंगी
ऐसा नहीं है कि डे-नाइट के टेस्ट मैचों में दिक्कतें सामने नहीं आएंगी। हाल के दिनों में क्रिकेट जगत में इन मुश्किलों को लेकर अच्छी खासी बहस चल रही थी। इसका मुख्य कारण यह है कि शाम के वक्त बल्लेबाजों को गेंद को देखने में दिक्कत हो सकती है और फिर रात के दौरान बल्लेबाजों को अधिक स्विंग का सामना करना होगा।

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आईसीसी ने हालांकि इन तमाम बातों को नजरअंदाज करते हुए डे-नाइट के टेस्ट को प्रमोट करने का फैसला किया है। जाहिर तौर पर आईसीसी बिना अपने स्थायी, सम्बद्ध और अस्थायी सदस्यों के समर्थन के बगैर ऐसा नहीं कर सकता था।