बात पुरानी है. पशुओं से हमारे रिश्ते एक जैसे कभी नहीं रहे. एक प्रजाति के तौर पर हमने अपने लालच को सामने रखकर तय किया कि किसे घर में रखना है और किसका संहार करना है. जिससे लाभ हुआ उसे पवित्र और धार्मिक घोषित कर दिया गया. जिससे कोई प्रत्यक्ष लाभ होता नहीं दिखा और जो प्रभुत्व के सन्दर्भों में मनुष्य को बराबर की 'टक्कर' दे सकता था और कथित 'प्रगति' में बाधक था, उसे 'निपटा' देने की नीति तय हुई. आज भी मानव से इतर जीव-जगत के बारे में यही आदिम नीति ही 'आधुनिक' नीति है.
मनुष्य और वनों के के रिश्तों में एक काव्यगत रूमानियत भी थी. आज के बरक्स उस आदिम युग में लालच शायद इतना बड़ा न था कि जंगल के भीतर रहने वाले और जंगल की सरहदों पर रहने वालों में आज जितनी मारामारी मचे. ऋग्वेद का अरण्यानी सूक्त वनों, वन्य जीवों और मनुष्य के बीच सह-अस्तित्व की वह नैतिक घोषणा है जिसका पालन केवल एक पक्ष ने नहीं किया. कोई कवि-सुलभ ऋषि सीधे अरण्य देवता से ही पूछता है कि तुझे अरण्य की निर्जनता भयभीत नहीं करती "अरण्यान्यारण्या न्यसौ या प्रेव नस्यसि कथा ग्रामं न प्रक्षसी न त्वा भीरिव विन्दति ओं.''
तब का मनुष्य वन के प्रदेयों से अभिभूत था. कृतज्ञ भाव से वह जंगल पर उतरती हुई शाम को देखता तो धन्यवाद के भाव से भर उठता. उन जंगलों में गाय भी चरती (उत गावः इव अदान्तति) और गाय जैसे दूसरे पशु भी विचरते (उत वेश्म इव दृश्यते). जंगल दोनों का था. अपनी सीमित लालच-विहीन जीविका के लिए जितना जरूरी था, वह जंगलों से लेकर सई-सांझ घर लौटता, तो ऐसा लगता मानो वन-देवता उन्हें खुद वापस घर लौटने की कह रहा हो- 'उतो अरण्यानि: सायं शकटीरिव सर्जती '(ऋग्वेद,अरण्यानी). एक-दूसरे के प्रति न हिंसा का भाव था न प्रति-हिंसा की उपस्थिति. जंगल किसी को अकारण नुकसान नहीं पहुंचाते;(अरण्यानि: न वः हन्ति) तो दूसरे भी उन्हें क्षति क्यों पहुचाएं (अन्य: च् न अभि गच्छति).
वह भी क्या खूब मनुष्य रहा होगा जिसने वनों को 'मृगों की माता' कहकर इस सह-जीवन को काव्यमय कर दिया होगा (प्राहं मृगाणं मातरं अरण्यानि).
वनों से काव्यमय स्पंदन भरे हुए सम्बंध टूटे तो असर बाघों तक पड़ना ही था. अपने रहस्य में लिपटा हुआ यह वन पशु प्राचीन कालखंडों से ही मनुष्य के साथ रहता आया. जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, कृषि के लिए भूमि की जरूरत बढ़ती गई. जंगल साफ होते गए. बाघों के घर भी छोटे होते गए. ऊपर से मनुष्य के निजी जीवन में बाघ से कोई प्रत्यक्ष लाभ तो था नहीं. ऊपर से बारूद की खोज से पहले उसका शिकार इतना आसान भी न था. सो जंगल में बाघों की बादशाहत चलती रही. जंगल के बाहर आदमी की. बारूद की खोज ने पलड़ा उलट दिया.
मुगल बादशाह शिकारी भी थे और वन्य-जीव प्रेमी भी. असली संकट अंग्रेज बाबुओं की तरफ से आया जब रोमांच के लिए बाघों को अंधाधुंध मारा जाने लगा. राजे-रजवाड़ों में राजकुमारों में बाघ का शिकार उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा होता था. राजे -रजवाड़ों के अपने निजी शिकारगाह होते जहां आम आदमी को घुसपैठ करने पर सजा दी जाती. यह केवल राजपरिवार और आमंत्रित अंग्रेज नौकरशाहों के लिए आरक्षित होते थे. इधर का 'राजा' जो अंग्रेजों के आने के बाद फर्जी का राजा था, जंगल के असली 'राजा' को मारकर अपनी कृत्रिम विजय कुंठा को शांत कर लेता.
जिम कॉर्बेट के मुताबिक सन् 1900 की शुरुआत तक देश के वनों में करीब एक लाख बाघ बचे हुए थे. केवल चालीस सालों में ही 1940 में जिम कॉर्बेट को लगने लगा कि बाघ शायद ही 21 वीं शताब्दी का सूरज देख पाएं. बाघों को प्रगति में एक बाधा माना गया. बेकर जो एक अंग्रेज अधिकारी और शिकारी थे, ने लिखा कि 1864 में सेन्ट्रल प्रोविंस की सरकार ने बाघों को मारने का एक अभियान चलाया जिसमें एक बाघ को मारने पर एक रुपया मिलता था. सोलह माह के इस अभियान में आम लोगों और शिकारियों ने मिलकर 349 बाघ मारे और 16480 रुपए इनाम की राशि के तौर पर बांटे गए. सोचिए जिस बाघ को मारने पर आज आसानी से जमानत नहीं मिलती कभी उसे कीटों की तरह मारा गया. दूसरे विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों को लकड़ी की बेतहासा जरूरत थी. रेलवे लाइन बिछाने के लिए तराई के जंगलों को काटना शुरू किया गया. कैम्पबेल, बेकर और इंगिलिश जैसे अंग्रेज शिकारी बाघों को घृणा की नजर से देखते थे . Sanderson और कॉर्बेट जैसे लोग दूसरे नजरिए के थे. सिर्फ उन बाघों को ही मारा जाए जो आदमखोर हों. हालांकि आदमखोर होने में भी आदमी की गलतियां ही ज्यादा होतीं. कॉर्बेट वन और बाघों के प्रति इसी संतुलन के हिमायती थे. जंगलों के बाहर आदमी जिए और जंगलों के भीतर बाघ.
आज यह संतुलन मिट रहा है. हम एक एक इंच जमीन को प्रकृति की हर उस प्रजाति से छीन लेने पर उतारू हैं जो हमसे कई करोड़ों वर्ष पूर्व से धरती पर घर बनाए हुए हैं. यह मनुष्य की 'नव-नैतिकता' है जहां उसके चिंतन-क्षेत्र में उसी के मुद्दों पर बहस हो रही है. उसी की खुशियां, उसी के गम. भविष्य की यात्रा में वह किसी को अपना सहयात्री बनाने को राजी नहीं है. न परिंदों को, न तितलियों को, न वनों को, न बाघों को. वह अकेला ही चलना चाहता है.
चलता तो बाघ भी अकेला ही है. कॉर्बेट उसे 'Large-Hearted Gentleman' कहते थे. ताकत के साथ विनम्रता का
सम्मिश्रण वन के बाघ में ही मिलता है. वह संग्रह के लिए 'शिकार' नहीं करता. उसका जंगल हमारे 'जंगल' के बनिस्बत ज्यादा सरल और सहज है. जब लोग कहते हैं कि 'जंगलराज' कायम है, तो मैं इस 'उपमा' के बारे में अक्सर सोचता हूं. क्या है यह 'जंगलराज'. जंगल में हर कोई किसी न किसी का भोजन है. यह प्रकृतिबद्ध है. वहां कोई किसी को अकारण नहीं मारता. नफरत और घृणा से भरकर नहीं मारता. शायद यही कारण तो नहीं कि जिसे हमारी 'नैतिकता' जंगल की 'क्रूरता' कहती है, वही वनों के आकर्षण का स्रोत है. क्रूर कौन है वनों के बाघ या वनों के बाहर हम. 'जंगलराज' कहां है-जंगलों के भीतर या जंगलों के बाहर. नफरतों से शहर लवरेज हैं या जंगल? हम जंगलों से सीख सकते हैं. काश हमारे शहर जंगल हो जाएं और हम सभी बाघ!
धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...
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