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This Article is From Mar 05, 2019

किसानों, मज़दूरों के मुद्दे मीडिया से ग़ायब क्यों?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 05, 2019 23:04 pm IST
    • Published On मार्च 05, 2019 23:04 pm IST
    • Last Updated On मार्च 05, 2019 23:04 pm IST

रेलवे के ग्रुड-डी के नतीजे आए हैं, बड़ी संख्या में परीक्षार्थी रेल मंत्री पीयूष गोयल की टाइम लाइन पर लिख रहे हैं कि जो अंक मिले हैं उसकी प्रक्रिया जानना चाहते हैं. मुझे भी बहुत से मैसेज आए हैं कि 100 अंक के पेपर में किसी को 110 या 148 नंबर कैसे मिल सकते हैं. नौजवान किसी नॉर्मलाइज़ेशन की बात कर रहे थे, जिसके कारण ऐसा हुआ है, उनके मन में तरह-तरह के सवाल हैं. एक सवाल यही कि पहले मूल अंक दिखाना चाहिए फिर नॉर्मलाइज़ेशन के अंक को जोड़कर औसत अंक बताना चाहिए. बेहतर है कि रेल मंत्री या रेल मंत्रालय छात्रों को प्रक्रिया के बारे में बताए और उनके सवालों के जवाब दे. वे काफी परेशान हैं. कई बार हम ये सोचते हैं कि जिनका नहीं हुआ है वही हल्ला कर रहे हैं, तब भी परीक्षा की विश्वसनीयता के लिए ज़रूरी है कि प्रक्रिया के बारे में सबको बताया जाए.

ऐसे छात्रों से निवेदन है कि रेल मंत्री को ही मैसेज करें. जब वे आपके सवाल का जवाब न दें और कह दें कि आप लोगों ने सवाल पूछकर सेना पर शक किया है तब मुझे परेशान कीजिएगा तब आप मुझे परेशान न करें. इन नौजवानों को भी यह अनुभव करने का मौका मिलेगा कि ट्विटर के आने से सरकार और जनता के बीच संवाद बेहतर हुया है या वो बेहतर दिखने की कोई दुकान है. ट्विटर और फेसबुक को गर्वनेंस में पारदर्शिता का नमूना मानने वाले नमूनों की कोई कमी नहीं है, लेकिन मैं अकेला क्या कर सकता हूं. ऐसा दुनिया ही मानने लगी है. मैं प्रदर्शनों और इन बेचैनियों को क्यों दिखाता हूं, इसलिए कि पता चले कि सरकार के सामने लोग समस्या आने पर कैसे शून्य में बदल दिए जाते हैं.

ये प्रदर्शन लखनऊ का है. लिख कर दे सकता हूं कि अगर ये परेशान न होते तो उसी मीडिया में खोए हुए थे जो इन्हें जनता की सूची से बाहर निकाल चुका था, अब ये मीडिया खोज रहे हैं. मीडिया ने जब से जनता को छोड़ भावनात्मक और डिबेट के मुद्दों की तरफ रास्ता किया है, वह जनता के तरफ जाने का रास्ता भूल चुका है. इनकी मांग सुनिए और सोचिए कि राज्य व्यवस्था कैसे चल रही है. यूपी पुलिस सिपाही भर्ती 2013 की परीक्षा पास करने के बाद ये 2019 में क्यों प्रदर्शन कर रहे हैं. इस दौरान इन्होंने कितनी बार नेताओं के, वकीलों और अधिकारियों के चक्कर काटे, उसकी सूची बनाएंगे तो आपको समझ आएगा कि यह सब करते हुए भी इन्हीं लोगों के बीच से नागरिकता का बोध या जनता होने की ताकत को समाप्त किया जा सकता है. इनकी संख्या बेमानी हो चुकी है, क्योंकि बाकी जनता का इनकी तकलीफ से कोई मतलब नहीं, जैसे इन्हें बाकी जनता की तकलीफ से कोई मतलब नहीं.

11,786 नौजवान परीक्षा पास कर चुके हैं. कोर्ट का आदेश इनके हक में है फिर भी नियुक्ति पत्र नहीं मिला है. कायदे से इन्हें सिपाही बनने के लिए नियुक्ति पत्र मिल जाना चाहिए मगर नहीं मिला. ये वीडियो और फोटो भी इन्हीं छात्रों का है. अक्सर कहता हूं कि भारत में एक डेमोक्रेसी इंडेक्स बनना चाहिए, जिसमें हर छोटे बड़े प्रदर्शनों की सूची बने. एक मुद्दे को लेकर कितनी बार कहां कहां प्रदर्शन हुए, उनके मेमोरेंडम से लेकर आश्वासन तक, क्या कार्रवाई हो, इसकी पूरी डिटेल हो. ताकि साल के अंत में हम देख सके कि भारत की जनता ने एक साल के भीतर कितनी बार प्रदर्शन किए, आवाज़ उठाई मगर बेनतीजा रही. डेमोक्रेसी इंडेक्स के बिना इसकी समझ नहीं बनेगी. हमें समझना होगा कि आखिर कुछ प्रदर्शनों में ऐसा क्या होता है जिनके नाम पर सरकारें तुरंत कार्रवाई करती हुई दिखने लगती हैं और कुछ प्रदर्शनों के हज़ार बार होने के बाद भी किसी को फर्क नहीं पड़ता.

आज देश के कई जगहों पर 13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम के खिलाफ प्रदर्शन हुए. ये वीडियो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का है. जम्मू कश्मीर में भी इस मांग को लेकर प्रदर्शन हुआ है. इलाहाबाद में विरोध प्रदर्शन हुआ है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद ही ये समस्या पैदा हुई है. पहले यूनिवर्सिटी या कॉलेज को एक यूनिट मानकर खाली सीटों को आरक्षण के हिसाब से बांटा जाता था. इसके कारण पता होता था कि कौन सी सीट जनरल के लिए आएगी और कौन सी आरक्षित वर्ग के लिए. 

13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम में विभाग को यूनिट माना गया है, जब यह लागू किया गया तो देखा गया कि वैकेंसी में कोई भी सीट आरक्षित वर्ग के लिए नहीं आई, क्योंकि किसी विभाग में एक साथ इतने पद कभी खाली नहीं होते हैं. यही नहीं इसका सबसे बुरा असर अनुसूचित जनजाति पर पड़ने वाला था, क्योंकि उनके हिस्से में सीट आने के लिए 14 पोस्ट का खाली होना जरूरी था. चार से कम पोस्ट निकलेगा तो ओबीसी को नहीं मिलेगा.

इसके खिलाफ देश के कई कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन हो रहे हैं. आंदोलन में शामिल लोगों का कहना है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी को आरक्षण से बाहर करने के लिए यह रोस्टर लाया गया है. सरकार को विरोध करना चाहिए था मगर नहीं किया. दिल्ली विश्वविद्यालय में इसे लेकर कई बार प्रदर्शन हुए हैं. आज भी डूटा और अन्य संगठनों ने मंडी हाउस से जंतर मंतर तक मार्च निकाला, जिसमें बड़ी संख्या में शिक्षकों ने हिस्सा लिया. शिक्षक संघ चाहता है कि पूरे कॉलेज में जितने पद खाली होंगे उसमें आरक्षित सीटों का बंटवारा हो यानी पुरानी व्यवस्था लागू हो. विभाग को यूनिट मानने की नई व्यवस्था समाप्त हो. कई लोगों को लगता है कि आरक्षण का लाभ मिल रहा है, मगर हकीकत ये है कि आरक्षण की व्यवस्था लागू ही नहीं होती है.

'इंडियन एक्सप्रेस' ने जनवरी में एक रिपोर्ट छापी थी. उसमें बताया था कि भारत के 40 केंद्रीय विश्वविद्लायों के 2620 प्रोफसरों में से अनुसूचित जाति के मात्र 130 और जनजाति के 34 प्रोफेसर हैं. सोचिए 2620 प्रोफेसरों में से अनुसूचित जाति और जनजाति के मात्र 164 प्रोफेसर हैं. क्या यह असंतुलन अब भी उस बात को साबित नहीं करता है कि आरक्षण सिर्फ कागज़ों पर रहा. देने की बारी आई तो न देने की तरकीबें निकाली गईं. मगर अब अनुसूचित जाति और जनजाति और ओबीसी तबके में इन पदों को लेकर पहले से कहीं अधिक जागरुकता है. यही कारण है कि मीडिया की चमक से दूर भी छात्र प्रदर्शन करते रहे. उन्हीं के दबाव का नतीजा है कि सरकार को कहना पड़ा कि जल्दी ही 13 प्वाइंट रोस्टर को समाप्त करने के लिए सरकार अध्यादेश लाएगी. साफ है कि किसी आंदोलन को मीडिया में नहीं दिखाने के बाद भी सरकार पर असर पड़ जाता है. क्या आंदोलन की सफलता के पीछे सामाजिक आधार की ताकत का होना ज़रूरी है, इस केस में तो यही साबित होता है. वरना मीडिया का बस चले तो पांच सेकेंड न अनुसूचित जाति और जनजाति के आंदोलन को दिखाए.

हमारे सहयोगी परिमल कुमार और सुशील महापात्रा ने दिल्ली में इस मार्च को कवर किया. प्रदर्शन में आए शिक्षकों ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले 4-5 सालों मं स्थाई नियुक्तियां नहीं हुई हैं. 4 से 5 हज़ार एडहॉक नियुक्तियों के तहत काम कर रहे हैं, जिसमें से 2000 शिक्षक अनुसूचित जाति और जनजाति और ओबीसी के होते. अगर 13 प्वाइंट रोस्टर लागू होगा तो इन सबका मौका समाप्त हो जाएगा.

जनवरी महीने से अखबारों में पढ़ रहे हैं कि सरकार बिल या अध्यादेश लाने की तैयारी में है. अध्यादेश लाकर 13 प्लाइंट रोस्टर समाप्त करने के बाद दूसरा बड़ा सवाल खड़ा होता है कि कॉलेजों में सहायक प्रोफेसरों की नियुक्तियां कब होंगी. क्यों नहीं हुई इन पांच सालों में. यही नहीं आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके को आरक्षण तो मिला मगर उन्हें परीक्षा देने की उम्र में छूट नहीं मिली. बिहार और बंगाल से बहुत से छात्रों ने लिखा है और यह भी बताया है कि ब्लॉक और डिविजनल ऑफिस में प्रमाण पत्र नहीं बनाया जा रहा है, क्योंकि प्रमाण पत्र बनाने वालो को नोटिफिकेशन नहीं मिला है. इससे वे परीक्षा का फॉर्म नहीं भर पा रहे हैं. हम जनता ने भी अपने मुद्दों को खुद से हराया है. हवा तो सबका मुद्दा हो सकती थी मगर वो भी जनता का इंतज़ार कर रही है. ग्रीनपीस संस्था और स्वीस संस्था  IQ Air Visual ने एक रिपोर्ट निकाली है. उस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में सात अपने भारत के हैं.

ऐसा नहीं था कि हमने इस सवाल पर चर्चा नहीं की. 2016-17 के साल में दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर खूब चर्चा हुई. तरह-तरह की नौटंकियां हुई. एक कंपनी ने तो बस स्टैंड में एयर प्यूरीफायर लगा दिया था. प्रचार पाने के बाद वो हवा की तरह गायब हो गई. टीवी में खूब बहस हुई. डॉक्टरों ने बताया कि प्रदूषित हवा हमारे फेफड़ों को खराब कर रही है, हमारी जान ले रही है मगर अब यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है. साफ है लोग चुनाव से अपने लिए कम उम्मीद रखते हैं, नेताओं के शौक को पूरा करने के लिए भिड़े रहते हैं. वर्ना यह सुनकर कि 2018 में गुरुग्राम दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित शहर था, वहां के लोगों को सड़क पर उतर आना चाहिए, लेकिन वहां के लोगों को भी पता है कि इन मुद्दों से पॉलिटिक्स में मज़ा नहीं आता है. वो सारी समस्याओं को मोदी बनाम राहुल में देखते हैं, डिबेट सुनकर सो जाते हैं. वही हाल दिल्ली का है. गाज़ियाबाद, फरीदाबाद, भिवांडी, नोएडा, पटना और लखनऊ भी दुनिया के प्रदूषित शहरों में शामिल है.

आप पटना चले जाएं. वहां लोग हार्न बजाने से परेशान हैं. वायु प्रदूषण से परेशान हैं, मगर चर्चा किस बात को लेकर हो रही है, मोदी बनाम राहुल की. स्कूलों में पर्यावरण को लेकर कितने ड्राइंग कंपटीशन होते हैं, मगर उनका भी असर नहीं है.कुछ तो है कि हम अपने सवालों से हार चुके हैं. ग्रीनपीस साउथ एशिया के कार्यकारी निदेशक येब सानो ने कहा कि वायु प्रदूषण के कारण अगले साल दुनिया में 70 लाख लोग मारे जाएंगे. 225 बिलियन डॉलर का नुकसान होगा. हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा दिल्ली में ही बाहर गए. पूछने कि मुद्दा क्या होना चाहिए. क्या प्रदूषण होना चाहिए.

उधर पाकिस्तान से ख़बर ये है कि वहां की सरकार ने जैश-ए-मोहम्मद समेत कई प्रतिबंधित संगठनों के 44 सदस्यों को हिरासत में ले लिया है. इनमें जैश के सरगना मसूद अज़हर का बेटा हम्माद अज़हर और भाई मुफ़्ती अब्दुर रऊफ़ शामिल है. हालांकि पाकिस्तान ये भी कह रहा है कि पुलवामा हमले से जुड़े जो सबूत भारत ने दिए हैं वो कार्रवाई के लिए काफ़ी नहीं हैं. पाकिस्तान से एक और ख़बर ये है कि वहां के पंजाब प्रांत के सूचना और संस्कृति मंत्री फ़ैयाज़ुल हसन चौहान को हिंदुओं के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणी करने पर मंत्री पद से हटा दिया गया है... फ़ैयाज़ुल हसन पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पाकिस्तान-तहरीक़े-इंसाफ़ से जुड़े हैं. पार्टी ने अपने बयान में कहा है कि किसी के विश्वास को निशाना बनाना ग़लत है. सहनशीलता वो सबसे पहला स्तंभ है, जिसपर पाकिस्तान बना है. 

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