जब शहर में एक बार भीड़ बनती है तो वो एक चुनाव से गायब नहीं होती. वो उन घरों में रहती है जहां उन्हें पनाह मिलती है. अगर जेएनयू मामले में दिल्ली पुलिस ने अपना काम निष्पक्षता से किया होता तो इतनी जल्दी एक और भीड़ गार्गी कॉलेज के कैंपस में धावा नहीं बोलती. लड़कियों के कॉलेज में सैकड़ों की संख्या में मर्दों की भीड़ घुस आती है. उनके साथ वो वो करती है जिन्हें ठीक ठीक बताया जाना चाहिए. ऐसे मर्दों की भीड़ अक्सर हमारे शब्दों के लिहाज़ से बच निकलती है. उन्हें लगता है कि हम अंग्रेज़ी में ग्रोपिंग कह लेंगे लेकिन हिन्दी में कैसे बताएंगे कि गार्गी कॉलेज में जो भीड़ गई थी वो लड़कियों की छाती दबोच रही थी. यौन हिंसा को लेकर शब्दों की कमी इतनी भी नहीं है कि हिंसा करने वालों की भीड़ इस कारण से बच निकले. यह उस महानगर का किरदार है जो भारत को विश्व गुरु बनाने की राजधानी बनने की ख्वाहिश भी रखता है और गुंडे भी पालता है. कॉलेज में सीसीटीवी तो होगा ही तो कायदे से प्रिंसिपल को सामने रख देना चाहिए ताकि दिल्ली देख सके कि जो भीड़ आई थी उसका व्यवहार कैसा था. उसके चेहरे कैसे थे.
गार्गी कॉलेज में शाम चार बजे जिस गेट को बंद हो जाना था उसे फांद कर बड़ी संख्या में बाहरी छात्र और मर्द भीतर आने लगे. आप वीडियो में देख सकते हैं कि सुरक्षाकर्मी खड़े हैं. लेकिन कोई इस भीड़ को गेट पर रोकने के लिए पहल नहीं कर रहा है. एक एक करके भीतर उस ग्राउंड में इतनी भीड़ हो गई जहां 6 फरवरी को जुबिन नौटियाल का कार्यक्रम होना था. गार्गी की हर लड़की को एक पास मिला था. एक लड़की को एक ही पास मिला था. मगर जितने पास जारी हुए थे उससे कहीं ज्यादा भीड़ आ गई. कायदे से प्रिंसिपल को तुरंत सतर्क होना था और पुलिस बुलानी थी. मगर छात्राओं ने बताया कि उनके सीनियर ने प्रिंसिपल और प्रशासन से संपर्क भी किया मगर किसी ने कार्रवाई नहीं की. संगीत का कार्यक्रम होता रहा. लड़कियां चेन बना कर खुद को ही बचाने का प्रयास करती रहीं. यही नहीं कॉलेज के मैदान का जो हिस्सा डियर पार्क से लगा है वहां की दीवार पर लगी जाली फांद कर भी मर्द भीतर आ गए. कई लड़कियों ने बताया कि जो भीतर आए थे उनमें से ज़्यादातर 25 साल से अधिक उम्र के थे. अगले दिन कॉलेज बंद हो गया लेकिन सोशल मीडिया पर लड़कियां लिखने लगीं कि उनके साथ क्या-क्या हुआ है. भीतर घुस आई मर्दों की भीड़ दारू पीने लगी. लड़कियों के ऊपर दारू फेंकने लगी. मैदान में बैठ कर मर्द सिगरेट पीने लगे. फब्तियां कसने लगे. शरीर के अंगों को छूने लगे. स्टेज के पास गार्गी की लड़कियों के लिए बैरिकेड एरिया बना था. जो लड़कियां बैरिकेड के बाहर रह गई थीं उनके अनुभव बहुत बुरे थे. यही नहीं आर्ट सोसायटी ने एक पोस्टर बनाया था. उस पर गॉरी लंकेश, फाये डिसूज़ा, चंद्रशेखर आज़ाद की सराहना की गई थी. यह पोस्टर दो दिन तक आराम से रहा लेकिन छह फरवरी को यह कह कर हटा दिया गया कि लोगों ने शिकायत की है. ये शिकायत करने वाले कौन हैं, इसका पता नहीं चला है.
इस दिल्ली में आपको लगता होगा कि आपके चारो तरफ मीडिया है. दरअसल मीडिया कहीं नहीं है. होता तो 6 की घटना का अंदाज़ा 9 या 10 फरवरी को नहीं लगता. एक सकारात्मक बदलाव यह हुआ है कि अब ऐसी घटनाओं के लिए गृहमंत्री अमित शाह या दिल्ली पुलिस जिम्मेदार नहीं होती है. ज़िम्मेदारी के ऐसे सवाल यूपीए दौर में शिवराज पाटिल के हटाए जाने के साथ ही समाप्त हो गए. लोकसभा में मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ने कहा है कि गार्गी कॉलेज में जो घटना हुई है उसके बारे में पता चला है. कॉलेज प्रशासन से कहा है कि कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए. लेकिन छात्राएं तो कॉलेज प्रशासन पर ही आरोप लगा रही हैं कि उन्होंने उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया. समय रहते पुलिस नहीं बुलाई और गेट पर सुरक्षा व्यवस्था मुस्तैद नहीं थी.
मानव संसाधन मंत्री भी मान रहे हैं कि लड़कियों के साथ मोलेस्टेशन यानी यौन हिंसा हुई है. लेकिन यह नहीं माना कि प्रिंसिपल और प्रशासन से चूक हुई है. यह कोई साधारण घटना तो नहीं है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इस घटना पर ट्वीट करते हुए दुख जताया है और कहा है कि कोई दोषी नहीं बचाना चाहिए. क्या 6 फरवरी की इस घटना को 8 तारीख के मतदान के कारण सामने नहीं आने दिया गया. 6 फरवरी को जब छात्राएं प्रिंसिपल प्रोमिला कुमार के पास गईं थीं तब उन्होंने पुलिस को क्यों नहीं बताया. कॉलेज के बाहर पुलिस भी रहती है. वहां मौजूद पुलिस ने क्या रिपोर्ट किया, उसे क्या पता चला. यही नहीं आज जब गार्गी की छात्राओं ने प्रदर्शन किया तो प्रिसिंपल को घेर लिया. प्रिंसिपल ने मीडिया में कहा था कि छात्राओं ने शिकायत नहीं की है लेकिन छात्राओं ने सरेआम उन्हें घेर लिया तो प्रिंसिपल के जवाब लड़खड़ा गए. दिल्ली पुलिस ने एक जांच कमेटी बनाई है. एडिशनल एसीपी की टीम जांच करेगी.
सोमवार को कॉलेज खुलते ही लड़कियों का गुस्सा यहां प्रकट होने लगा. कॉलेज के प्रांगन में लड़कियां अपनी पूरी तैयारी के साथ जमा हो गईं. इंकलाब के नारे लगने लगे और कॉलेज प्रशासन से सवाल होने लगे. पता चला कि कॉलेज में इंटरनल कम्पलेन कमेटी तक नहीं है जहां यौन हिंसा की स्थिति में शिकायत की जाती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार ये कमेटी होनी चाहिए थी. यह कमेटी होती तो उसी वक्त छात्राएं अपनी शिकायत दर्ज करा सकती थीं. पूरे मामले में चार दिनों की देरी हुई है. जो अपराधी होंगे वो अब जा चुके होंगे. जबकि उन्हें उसी वक्त कॉलेज के भीतर पकड़ा जा सकता था. नाराज़ छात्राओं ने अपने पोस्टरों पर लिखा है कि प्रिंसिपल प्रोमिला कुमार इस्तीफा दें. शीला मैडम इस्तीफा दें. प्रिंसिपल प्रोमिला कुमार को छात्राओं के बीच आना पड़ा. वो जितना जवाब देतीं छात्राओं के सवाल उतने ही तीखे हो जाते थे. प्रिंसिपल ने आश्वासन दिया है कि एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी बनेगी. इस कॉलेज में 17 कोर्स हैं. हर कोर्स की एक टीचर और एक छात्रा इस कमेटी का हिस्सा होगी. छात्राएं जानना चाहती हैं कि कॉलेज सुरक्षा पर कितना पैसा खर्च करता है. जैसे ही प्रिंसिपल ने कहा कि मैं भरोसा दिलाती हूं कि आनेवाले दिनों में ये सुरक्षित जगह होगी तो छात्राओं ने एक स्वर से पूछा कि कैसे. खुली सभा में प्रिंसिपल ने छात्राओं से माफी मांगी. मैं पहले एक दो सवाल है. किसी मीडिया को बोला नहीं है कि आपने तो कहा कि हमने कंप्लेन फाइल नहीं किए हैं. तब छात्रों ने ताली बजा दी.
5 जनवरी को जेएनयू के हॉस्टल में नकाबपोश गुंडे घुसते हैं, तोड़फोड़ करते हैं, लड़कियों को मारते हैं, प्रोफेसर को मारते हैं, आज तक उनमें से एक भी गिरफ्तार नहीं हुआ. एक महीना से ज़्यादा हो गया. कहीं ऐसा तो नहीं कि जेएनयू का मामला देश के ताकतवर गृहमंत्री के मंत्रालय के दायरे से बाहर है. राजनीति को लगता है कि जो वह समझा देती है लोग समझ कर सवाल भूल जाते हैं. लोगों के पास इसे ग़लत साबित करने का मौका मिलता अगर गोदी मीडिया उनके सवालों को जगह देता. होता यह है कि हर बार गोदी मीडिया आपके और सरकार के बीच लोहे की दीवार बन कर खड़ा हो जाता है. फिर एक दिन जब आप अपने तरीके से ग़लत साबित कर देते हैं तो वह आपको गाली देता है. कहता है कि आप स्मार्ट फोन में व्यस्त हैं. आप शराब की पार्टी में व्यस्त हैं. जबकि आपको पता होना चाहिए कि स्मार्ट फोन के इस्तमाल से झूठ की खेती किसने की. किसने आप तक सही सूचनाओं को नहीं पहुंचने दिया. अब जब आपकी आंखें दुखनी लगी हैं तो गोदी मीडिया आपको ही दुश्मन घोषित कर रहा है. मैं हर बार कहता हूं गोदी मीडिया आपका यानि जनता का विरोधी है. इसलिए उसे विरोध में खड़ी जनता ही अपराधी नज़र आती है.
मैं नहीं मानता कि हॉस्टल के भीतर लाठी डंडे लेकर घुस आए इन गुंडों की गिरफ्तारी के सवाल आपको परेशान नहीं कर रहे हैं. जेएनयू के हॉस्टल में घुस कर सामान तोड़ देना. लड़कियों को मारना, प्रोफेसर के सर फोड़ देना, आप सभी को परेशान कर रहा होगा. आपकी आवाज़ को अब जगह नहीं मिलती है. आपको समझाया जाता है कि जेएनयू वाले कम्युनिस्ट हैं. गुंडे हैं. जो मार खाया है, जिसका सर टूटा है उसी को गुंडा साबित कर दिया जाता है. यही गोदी मीडिया की कामयाबी है. वो हंगामा इसलिए करता है ताकि जेएनयू की घटना को लेकर आपके सवाल खो जाएं. आपको याद है कि कैसे एक एसआईटी बनाई गई, 12 जनवरी को एक प्रेस कांफ्रेंस हुई, 7 लोगों के पहचान की बात हुई, उस दिन भी पुलिस की प्रेस कांफ्रेंस की तस्वीरों को लेकर कई सवाल उठ गए. पुलिस अधिकारी ने कहा कि यह पहली सूचना है. जैसे-जैसे जानकारी मिलेगी प्रेस के सामने लेकर आएंगे. आज तक दोबारा नहीं आए. एक महीना से अधिक हो गया. अभी तक जेएनयू में हिंसा करने वाले गुंडे नहीं पकड़े गए.
लड़कियों से छेड़छाड़ की मानसिकता सिर्फ दिल्ली और मुंबई की नहीं है. भारत के किस कोने में किस रूप में यह मानसिकता पाई जा सकती है हमें अंदाज़ा भी नहीं. महाराष्ट्र के वर्धा में एक लेक्चरर पर पेट्रोल फेंक कर आग लगा दी. महिला को नहीं बचाया जा सका. इस घटना से महाराष्ट्र सदमे में है. पहले इलाज नागपुर के अस्पताल में चला. वहां से फिर उन्हें नवी मुंबई के नेशनल बर्न्स सेंटर लाया गया.
ऐसे वक्त में गुस्सा स्वाभाविक है. लेकिन जिस मानसिकता के कारण लेक्चरर की मौत हुई है हम उससे नहीं लड़ते. हिंसा की जो बीमारी लड़कों के भीतर तरह-तरह से ठेली जा रही है उससे लड़ना बहुत ज़रूरी है. किसी लड़की को देखकर अपना अधिकार समझ लेना यह वो बीमारी है जो एक लड़के को पेट्रोल छिड़कने की ताकत देती है और बहुत सारे लड़कों को दिल्ली के कालेज में घुस कर यौन हिंसा करने की छूट. हम समझते हैं कि एनकाउंटर या फांसी से यह बीमारी दूर होगी लेकिन नहीं होगी. फिर आप इस बीमारी को उस बीमारी से कैसे अलग करेंगे जो जयपुर में एक लड़के की जान ले लेती है.
जयपुर में कश्मीर के एक लड़के को उसके सहयोगी ने मार दिया. बासित ख़ान की उम्र 18 साल थी. वो जयपुर के एक कैटरर के यहां काम करता था. बासित और उसका सहयोगी पिक अप वैन से रात दो बजे लौट रहे थे. किसी मामूली बात पर कहासुनी हो गई. उसने बासित को इतना मारा इतना मारा कि उसकी मौत हो गई. आदित्य नाम है उसका. 20 साल उम्र है. जो राजनीति आपको दिन रात अपने ही हमवतन को पाकिस्तानी और आतंकवादी की पहचान सिखाती है वो राजनीति ऐसे नौजवानों को हत्यारे में बदल रही होती है. मां बाप ने तो सिखाया नहीं होगा कि आदित्य किसी की हत्या करेगा लेकिन उस राजनीति ने आदित्य के दिमाग में ज़हर भरा. मामूली बात अगर हत्या तक पहुंचने लगे तो समझना चाहिए कि वक्त आ गया है कि हम आदित्य के लिए भी रुक कर सोचें. जानें कि हत्या के पीछे गुस्से की वजह क्या थी. यह जानना ज़रूरी है. अगर ज़हर कारण है तो अब उस ज़हर को लेकर आप अपने घरों में बात कीजिए. अपने आदित्य को हत्यारा बनने से बचाने के लिए. कुपवाड़ा के बासित के पिता इस दुनिया में नहीं हैं. अब मां और दो बहनें बची हैं.
आज के युवाओं से सारे देश को शिकायत है. लेकिन जब वे अपनी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी निभाते हैं तब कोई ध्यान नहीं देता. यह कितनी अच्छी बात है कि युवा दूसरों के मसलों के प्रति संवेदनशील हो रहे हैं. उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सटी में एक महीना पहले ठेके पर काम कर रहे 55 सफाई मज़दूरों को निकाल दिया गया. ऐसी छंटनी देश में जाने कहां कहां आराम से हो जाती है. किसी को फर्क नहीं पड़ता. यहां वकालत की पढ़ाई पढ़ने वाले छात्र इनकी लड़ाई का हिस्सा बन गए. तरह तरह के पोस्टर बनाए. ज़मीन पर मांगों को लिखा और हर दिन सफाई मजदूरों के साथ धरना प्रदर्शन में शामिल होने लगे. कुछ छात्र छुट्टी के वक्त घर नहीं गए और कुछ ने अपनी इंटर्नशिप छोड़ दी. मांग है कि इन्हें फिर से काम पर रखा जाए. संस्थान ने नए मज़दूरों को कांट्रेक्ट पर रख लिया है. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में बर्बाद हो रहे युवाओं से दुखी हो रहे दर्शकों को इन युवाओं के लिए अपने अपने घर में खड़े होकर ताली बजानी चाहिए. आप अपने आस पास देखिए जो नए लड़के लड़कियां वकालत की पढ़ाई पढ़ कर आ रहे हैं वो किस तरह से इस लोकतंत्र को समृद्ध कर रहे हैं. धरना प्रदर्शन में जाने वालों की मदद कर रहे हैं. सफाई कर्मियों को भी कितना अच्छा लगता होगा कि जिन भैया दीदी लोगों के कमरों को साफ करते होंगे, वो भैया दीदी उनके हक के लिए लड़ रहे हैं. इनके अंदर इच्छा शक्ति न होती तो मीडिया कवरेज से दूर चुप चाप 38 दिनों से प्रदर्शन न कर रहे होते. यहां के छात्र जब वकील बनेंगे और जब जज बनेंगे तो यकीनन कोई सरकार उनसे अपने मन का फैसला नहीं लिखवा सकेगी. आप किसी फैसले पर शक नहीं कर पाएंगे कि कहीं ये फैसला सरकार के हिसाब से या डर से तो नहीं लिखा गया है. शानदार नौजवानों. हमारे पास कॉलेज का पक्ष नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने आज भी शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन को हटाने का फैसला नहीं दिया. बल्कि अब 17 फरवरी को सुनवाई होगी. हाई कोर्ट ने भी शाहीन बाग के प्रदर्शन को हटाने का फैसला नहीं दिया था तब यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया था. जबकि याचिकाकर्ता अमित साहनी चाहते थे कि अदालत शाहीन बाग के प्रदर्शन को हटाने का आदेश दे ताकि कालिंदी कुंज और शाहीन बाग के बीच का रास्ता खुल सके. जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस के एम जोसेफ़ की पीठ इस मामले पर सुनवाई कर रही है. बीजेपी के पूर्व विधायक नंद किशोर गर्ग ने अपनी याचिका में मांग की है कि शाहीन बाग का धरना हटे और ऐसे प्रदर्शनों के लिए गाइडलाइन भी बने. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है. कोर्ट ने यह ज़रूर कहा कि पब्लिक एरिया में इतना लंबा प्रदर्शन नही चल सकता है. अगर हर जगह प्रदर्शन होने लगे तो क्या होगा.
उधर जामिया के छात्रों ने संसद तक मार्च करने का फैसला कर लिया. इन्हें रोकने के लिए पुलिस ने होली फैमिली के पास बैरिकेड लगाया था. इस मार्च में जामिया के छात्रों के साथ स्थानीय लोग भी थे. यह दूसरी बार हो रहा है जब छात्रों और पुलिस के बीच इस तरह की रोका रोकी हुई है. बैरिकेड के पास इतनी भीड़ हो गई कि कई छात्रों को हंफनी होने लगी. सांस फुल गई. इन छात्रों को स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया. लड़के और लड़कियां भी थोड़े समय के लिए चोटिल हो गए. मामूली चोटें आई हैं. पुलिस ने लाठी चार्ज नहीं किया है. छात्रों को समझाने के लिए जामिया के प्रोफेसर और प्रोक्टर भी आ गए और समझाने लगे. पुलिस ने कई लोगों को हिरासत में भी लिया है.