पांच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों (Assembly Elections 2022) से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने तीनों कृषि कानूनों (Farm Laws) को निरस्त करने और संसद के अगले सत्र में विधेयक लाने का ऐलान किया है. संभवत: उन्हें इस बात का एहसास हो चुका था कि किसानों के कल्याण के नाम पर डेढ़ साल पहले उठाया गया दांव बीजेपी (BJP) को उल्टा पड़ने लगा है. तभी तो प्रकाश पर्व के दिन और यूपी में एक समारोह में शामिल होने के लिए रवाना होने से पहले उन्होंने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर डाला.
कोविड काल में राष्ट्र के नाम करीब 18 मिनट के अपने 11वें संबोधन में प्रधानमंत्री ने गुरु नानक देव का जिक्र कर पंजाब-हरियाणा के किसानों के साथ आत्मीय रिश्ता कायम करने की कोशिश की. लगे हाथ उन्होंने इस गलती के लिए माफी भी मांगी और गुरु नानकदेव जी को उद्धृत करते हुए कहा कि सेवा मार्ग अपनाने से ही जीवन सफल होता है.
करीब 14 महीने से किसान कृषि कानूनों का विरोध कर रहे थे. दिल्ली की सीमा पर भी एक साल से किसान डटे हुए हैं और इन कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे थे. इनमें अधिकांश किसान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं.
राजस्थान, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के हालिया उप चुनावों में बीजेपी की करारी हार ने इस बात के सिग्नल दिल्ली दरबार तक पहुंचा दिए थे कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधान सभा चुनाव में बीजेपी की राह आसान नहीं रहने वाली है. लिहाजा, दो हफ्ते से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी इस गुणा-भाग में लगी थी कि 2022 में उसे कहां-कहां और कितना-कितना नुकसान उठाना पड़ सकता है?
BBC की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनावों तक मोदी सरकार की छवि किसानों में बहुत अच्छी थी. यही वजह है कि बीजेपी को किसानों का करीब 47 फीसदी वोट मिला, जबकि दूसरे व्यवसाय के 44 फीसदी लोगों ने बीजेपी को वोट किया. कहना न होगा कि अन्य व्यवसाय वर्ग के मतदाताओं की तुलना में दो से तीन फीसदी ज्यादा किसानों ने प्रधानमंत्री मोदी पर अपना भरोसा जताया लेकिन 2020 के सितंबर से यानी जब से कृषि कानून बना, तब से किसानों का भरोसा बीजेपी और मोदी सरकार से कमने लगा.
हालात तब विपरीत लगे जब उप चुनावों में हिमाचल प्रदेश में सत्ता में रहने के बावजूद बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा और कांग्रेस ने वहां क्लीन स्विप कर लिया. इसके बाद केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल की कीमतों में भी कटौती की.
उत्तर प्रदेश में राकेश टिकैत की अगुवाई में खासकर जाट किसान कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं. यूपी की करीब 80 विधानसभा सीटों पर जाट वोटरों का वर्चस्व रहा है. पूरे यूपी में वैसे तो जाट मतदाताओं की आबादी करीब ढाई फीसदी ही है लेकिन पश्चिमी यूपी के 22 जिलों में करीब 14 फीसदी जाट वोटर हैं.
यह लोकतंत्र की बड़ी जीत है, लेकिन और बड़ी लड़ाइयां और चुनौतियां बाक़ी हैं.
CSDS लोकनीति के मुताबिक 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में जाटों ने बीजेपी को वोट दिया था. इस वजह से पश्चिमी यूपी की 51 सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी. इस इलाके में 2017 में समाजवादी पार्टी ने 16, कांग्रेस ने दो और बसपा ने एक सीट जीती थी. रालोद को भी एक सीट मिली थी लेकिन बाद में उसके विधायक सहेंदर सिंह बीजेपी में शामिल हो गए थे.
अब जब जाट मतदाता बीजेपी से बिदके हुए दिख रहे हैं, तब केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी ने कृषि कानूनों पर यू-टर्न लेने का फैसला किया है. हालांकि, इससे पहले 2015 में बीजेपी सरकार भू-अध्यादेश पर भी यू-टर्न ले चुकी है.
अगले साल फरवरी-मार्च में वैसे तो पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं लेकिन इनमें सबसे अहम उत्तर प्रदेश है. 2017 में हुए चुनाव में 403 सीटों में से 312 पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी. उसे कुल 39.67 फीसदी वोट मिले थे. उस वक्त बीजेपी के साथ अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी थी. इन दोनों दलों को क्रमश: 0.98 और 0.70 फीसदी वोट मिले थे. यानी एनडीए को तब कुल 41.35 फीसदी वोट मिले थे.
अब सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी बीजेपी से अलग हो चुकी है और सपा के साथ गठबंधन कर चुकी है, जबकि जाट किसान ऐलान कर चुके हैं कि वो बीजेपी को वोट नहीं देंगे. अगर 2022 में यूपी में बीजेपी की हार होती है तो 2024 में लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी की राह मुश्किल हो सकती है क्योंकि यहां से 80 सांसद चुने जाते हैं जो केंद्र में सरकार बनाने में अहम भूमिका अदा करते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कृषि कानूनों की वजह से बीजेपी ने खुद के हाथ जला लिए हैं?
प्रमोद कुमार प्रवीण NDTV.in में चीफ सब एडिटर हैं...
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