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This Article is From Nov 19, 2021

यह लोकतंत्र की बड़ी जीत है, लेकिन और बड़ी लड़ाइयां और चुनौतियां बाक़ी हैं.

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2021 20:33 pm IST
    • Published On नवंबर 19, 2021 11:25 am IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2021 20:33 pm IST

जो काम दरअसल सालभर पहले हो जाना चाहिए था, वह प्रधानमंत्री ने अब जाकर किया. तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे लाखों किसानों को दिल्ली की सरहदों पर गर्मी, ठंड और बारिश में बैठे रहने को मजबूर किया, उन्हें आतंकवादी, नक्सली, खालिस्तानी, देशद्रोही सब बताया, उनके ख़िलाफ़ मुक़दमे किए, उन पर बातचीत न करने का आरोप लगाया, संसद के दो-दो सत्र अपनी ज़िद की वजह से जाया हो जाने दिए और जब यह सब नाकाम हो गया तो अपने राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान का हिसाब लगाते हुए तीनों कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान कर दिया. प्रधानमंत्री को यह एहसास हो चला था कि इन क़ानूनों की वजह से उनको यूपी-पंजाब में हारना पड़ सकता है और 2022 में इन राज्यों को गंवाने का मतलब 2024 में अपनी सत्ता गंवाना भी हो सकता है. 

लेकिन ठीक है. लोकतंत्र इसीलिए अहमियत रखता है. वह प्रचंड बहुमत से आई ज़िद्दी सरकारों के अहंकार के पहाड़ को पानी में बदल देता है. धरना-प्रदर्शन, आंदोलन इस लोकतंत्र में रक्त-संचार का काम करते हैं. यह रक्त-संचार बना रहना चाहिए वरना धमनियां मोटी होने लगती हैं, शरीर फूलने लगता है, और एक दिन फेफड़े और दिल काम करना बंद कर देते हैं. भारतीय लोकतंत्र जब ऐसी सुषुप्त-शिथिल अवस्था में दिख रहा था तब किसान आंदोलन ने उसमें नया रक्त संचार किया है. क्योंकि बीते एक साल में यह मुद्दा बस किसानों का नहीं रह गया था, यह भारतीय लोकतंत्र की कसौटी बन गया था. यह इस बात की अग्निपरीक्षा का मामला था कि जब चुनी हुई सरकारें मनमाने फ़ैसले थोपने लगें तो जनता उनके बाजू मरोड़ने में कामयाब होती है या नहीं. आज प्रधानमंत्री जो विनम्रता दिखा रहे हैं, वह दरअसल लोकतंत्र की इसी ताकत का प्रमाण है. वरना ख़ुद उन्होंने, उनकी सरकार के दूसरे मंत्रियों ने और उनके डरावने समर्थकों ने किसान नेताओं और किसानों को इस देश का खलनायक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अफ़सोस बस इतना है कि सरकार ने इस विवेक और विनम्रता का प्रदर्शन तब किया जब क़रीब सात सौ किसान इस आंदोलन के दौरान मारे गए. वरना सरकारी अहंकार का आलम यह था कि उसके नेता और मंत्री किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले लोगों का बचाव कर रहे थे. इस ढंग से देखें तो कृषि क़ानून भले वापस हो गए, किसानों के गुनहगार अभी बचे हुए हैं. प्रधानमंत्री को तत्काल अब अपने गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी का इस्तीफ़ा लेना चाहिए जिनके बेटे की गाड़ी से किसान कुचले गए और जिसकी राइफ़ल की फॉरेंसिक जांच की रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि उससे गोली भी चली थी.  

बहरहाल, किसान आंदोलन की इस जीत के सबक़ भी बहुत साारे हैं और इसके बाद की चुनौतियां भी. यह समझना ज़रूरी है कि यह आंदोलन इतना कामयाब और स्थायी कैसे हो सका. क्योंकि इसने बहुत दूर तक अहिंसक मूल्यों को अपनाए रखा, और जन भागीदारी को अपनी शक्ति बनाए रखा. सच यह है कि 26 जनवरी, 2021 को जब दिल्ली और लाल क़िले तक पहुंचे किसानों ने कुछ उत्पात मचाया और हिंसा की, तभी यह आंदोलन अचानक कमज़ोर पड़ गया. बल्कि उस हिंसा ने सरकार को यह उम्मीद बंधा दी कि अब तो आंदोलन ख़त्म हो जाएगा. उसने प्रशासन से किसानों का बोरिया-बिस्तरा बंधवाने को भी कह दिया. लेकिन यहां ज़ोर-ज़बरदस्ती फिर किसान आंदोलन के अहम पर तीर की तरह लगी. जो राकेश टिकैत अरसे से आंदोलन की कमज़ोर कड़ी माने जा रहे थे, उनके आंसुओं ने आंदोलन में नई जान डाल दी- खुद राकेश टिकैत इसके बाद एक बड़े और सर्वमान्य नेता के रूप में उभरे. यह बात बताती है कि दरअसल जनांदोलन नेताओं का भी निर्माण करते हैं. इस आंदोलन से टिकैत ही नहीं, चढूणी, योगेंद्र यादव और कई और नेता उभरे हैं जो संगठन और विवेक के साझा दम पर यह लड़ाई लड़ते रहे. 

इस आंदोलन की एक बड़ी सफलता तमाम किसान संगठनों की एकजुटता भी रही. किसी को उम्मीद नहीं थी कि तीन दर्जन से ज़्यादा किसान संगठन- जो पंजाब, यूपी-बिहार से लेकर कर्नाटक और महाराष्ट्र तक से आए हैं- इतने लंबे समय तक एक साथ रह पाएंगे. अक्सर उनके बीच टकराव, विवाद और मतभेद की खबरें भी आती रहीं. लेकिन इन सबसे ऊपर उन्होंने अपनी एकता बनाए रखी. उनको मालूम था कि वे टूटेंगे तो आंदोलन टूट जाएगा और इतना बड़ा आंदोलन में उनमें से कोई अकेले अपने बूते चला नहीं पाएगा.  

लेकिन इस कामयाबी ने किसान आंदोलन की भी- और इस देश की लोकतांत्रिक शक्तियों की भी- चुनौतियां बढ़ा दी हैं. कृषि क़ानूनों की वापसी एक उद्धत सरकार के अविवेकी फ़ैसलों के सामने किसानों के विनम्र प्रतिरोध की जीत है, लेकिन इससे कृषि क्षेत्र के संकट कम नहीं होने वाले. भारतीय कृषि को उसकी मौजूदा हताश हालत से उबारना एक अलग महायज्ञ की मांग करता है. उम्मीद करनी चाहिए कि किसान आंदोलन इस दिशा में भी सोचेगा.  

दूसरी बात यह कि किसान आंदोलन की यह सफलता कई दूसरे आंदोलनों में भी स्मृति और जीवन का संचार कर सकती है. भारत में लोकतांत्रिक प्रतिरोध पिछले वर्षों में जितना बढ़ा है, एक बड़े तबके का लोकतांत्रिक विवेक उतना ही शिथिल हुआ है. सरकार के या उसके क़ानूनों के विरोधियों को देशद्रोही और आतंकवादी कहने का चलन इतना आम है, और इसे सरकारी तंत्र का ऐसा व्यापक समर्थन हासिल है कि देखकर डर लगता है. तीन कृषि क़ानूनों से पहले नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ भी देश भर में व्यापक अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन और धरने चलते रहे. वे कोरोना काल में ख़त्म हो गए और कर दिए गए. जबकि इस पूरे दौर का इस्तेमाल सरकार ने प्रतिरोध की ताक़तों को कुचलने में किया. उनको झूठे मुक़दमों में जेल में डाला गया, उनको कुछ लिखने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनके साथ सड़कों पर भी बदसलूकी और बदतमीज़ी होती रही.  

शायद अब सरकार को यह समझना होगा कि मनमाने फ़ैसले नहीं चलेंगे. तीनों कृषि क़ानून बिना किसी चर्चा के लाए गए थे और उन्हें वापस भी बिना किसी चर्चा के किया गया. यानी मेज़ पर बातचीत अटकी रही, मंत्री और प्रधानमंत्री बताते रहे कि किसान जहां चाहें आकर बातचीत कर लें, और एक दिन उन्होंने चुपचाप कानूनों की वापसी का एलान कर दिया.  

इस हताशा के माहौल में यह जीत एक बड़े लोकतांत्रिक मूल्य की जीत है. इसे बनाए रखने के लिए हमें दूसरे सिलसिलों की ओर भी मुड़ना पड़ेगा. जल-जंगल और ज़मीन से जुड़े पुराने आंदोलन ज़िंदा करने होंगे और नागरिकता और अस्मिता से जुड़े मूल्यों की बहाली का संघर्ष भी चलाना होगा. निस्संदेह यह आसान नहीं होने जा रहा है. लेकिन कौन सी लड़ाइयां जीवन में आसानी से जीती जाती हैं. किसान आंदोलन ने याद दिलाया है कि देर तक, शांति से और अपने मूल्यों पर अडिग आंदोलन अंततः जीतते हैं. यह एक बड़ी जीत है लेकिन लोकतंत्र को बचाने की इससे भी बड़ी लड़ाइयां हमारे सामने बची हुई हैं. इंसाफ़ की एक चुनौती लखीमपुर मामले में ही बची हुई है. प्रधानमंत्री को अब दूसरा क़दम यह उठाना चाहिए कि वे अपने गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र से इस्तीफ़ा लें और यह सुनिश्चित करें कि उनके बेटे के विरुद्ध उचित कानूनी कार्रवाई की राह में सरकार जो रोड़े खड़े कर रही है, वे हटाए जाएंगे और इंसाफ़ होगा. 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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