15 सितंबर को जैसे ही श्रीनगर पहुंचा, वहां मौजूद कई मीडियाकर्मियों ने आगाह किया कि ज़रा संभल के। लोग मीडिया वालों की पिटाई कर रहे हैं। हर किसी का कैमरामैन तो पिट ही चुका है। लोग कैमरा छीनने या तोड़ने की भी धमकी दे रहे हैं, इसलिए कहीं 'बाहर' निकलने के पहले देख लेना।
कश्मीर में लंबा रह चुका हूं, इसलिए ये सुनकर अजीब लगा कि लोग आखिर मीडियावालों की पिटाई क्यों कर रहे हैं। वह भी इस आपदा के समय, जब ख़ुद मुश्किलों में घिरे हैं। ये जानने के लिए मैंने डाउन टाउन जाने का फैसला किया।
शुभचिंतकों की सलाह कानों में थी, सो आंखों से पहले माहौल भांपने की कोशिश कर रहा था। बटमालू, टैंकपोरा आदि से गुज़रते हुए खानियार पहुंचा। यहीं गोसिया सरकारी अस्पताल के सामने के चौक पर कुछ नवयुवकों को आती-जाती गाड़ी से पैसा मांगते देखा। साथ ही में एक राहत शिविर लगा था। ड्राइवर रफ़ीक डार को मैंने गाड़ी रोकने को कहा। गाड़ी से उतरा, तो ड्राइवर भी साथ चल पड़ा। कैमरामैन संजय कौशिक को कैमरे के साथ एहतियातन गाड़ी में ही छोड़ दिया।
ड्राइवर ने कश्मीरी में आवाज़ लगाकर राहत शिविर चलाने वाले को बुलाया। सामने मोहम्मद रफ़ीक बेग नामके शख़्स आए। मेरे पूछने पर बताया कि कोई सरकारी मदद अभी तक नहीं पहुंची है। लिहाज़ा चंदा कर 300-400 लोगों के खाने का इंतज़ाम लोगों ने आपस में मिलकर किया है। इसके साथ ही वे लोगों की एक-एक तकलीफ़ बताने लगे। कहा, कोई सुनने वाला नहीं।
मैंने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं एनडीटीवी से हूं, दिल्ली से आया हूं, साथ में कैमरा और कैमरापर्सन भी हैं। क्या आपकी शिकायत कैमरे पर रिकार्ड कर सकता हूं। सुना है कैमरा देखकर लोग यहां पिटाई कर देते हैं। उन्होंने मेरी तरफ देखा और कहा, यही तो तक़लीफ है। आप मीडिया वाले सिर्फ एक तरफ की बातें दिखा रहे हैं। इसने ये किया, उसने वो किया... कोई मीडिया हमारे पास नहीं आया देखने कि हम तक क्या पहुंचा। हमने जब शोर किया, तो हमें पत्थर मारने वाला बताकर बदनाम किया गया। हां हम पत्थरबाज़ी करते हैं, लेकिन क्यों करते हैं, मीडिया को इससे कोई मतलब नहीं।
मैंने उनसे कहा, पत्थरबाज़ी को किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने कहा कि लोगों में निराशा और हताशा है। ऐसे में कुछ लोग उनको बरगला लेते हैं। अगर इन तक मदद पहुंच जाती, तो ये किसी के बहकावे में नहीं आते।
अब तक यहां दर्जनों लोगों की भीड़ जुट चुकी थी। ये अपनी शिकायत के साथ कैमरे पर आने को राज़ी हुए। उन्होंने कहा कि सेना और एनडीआरएफ को लोगों तक पहुंचने का काम और तेज़ी से करना चाहिए था। लोग राज्य सरकार से ख़ासे नाराज हैं। वे मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की इस दलील को मानने को तैयार नहीं हैं कि सरकार खुद ही पानी से घिर गई थी।
लोगों ने राहत और बचाव में पक्षपात का आरोप लगाया। घरों में जमा पानी को निकालने का अब तक कोई इंतज़ाम नहीं किया गया है, यह शिकायत भी की। और इनकी तमाम शिकायतों को या तो मीडिया ने सुना ही नहीं या फिर सुना तो देश को दिखाया नहीं। इसलिए ये मीडिया के ख़िलाफ़ हो गए और मीडिया को निशाना बनाने लगे।
दरअसल, डाउन टाउन और डल के इलाक़े के लोगों की ये आम शिकायत नज़र आई कि बचाव से लेकर राहत तक, इनकी मदद के लिए कोई नहीं आया। इनके मुताबिक़ सेना और वायुसेना के हवाई जहाज़, हेलिकॉप्टर और एनडीआरएफ की बोट में चढ़े मीडियावाले पूरी तस्वीर को ऐसे बयां करते रहे, मानो राहत और बचाव हर ज़रूरतमंद तक पहुंच गया हो। जब पानी उफ़ान पर था तब की बात तो समझ में आती है कि हेलिकॉप्टर या बोट के सहारे ही रिपोर्टिंग हो सकती थी और रिपोर्ट वही होती जो हेलिकॉप्टर या बोट से दिखता। लेकिन यहां शिकायत यह है कि पानी उतर जाने के बाद भी मीडिया उन तक सीधे नहीं पहुंचा। बस राहत और बचाव काम के बखान में लगा रहा।
हेलिकॉप्टर पर पत्थर स्टोरी को सबसे बड़ा बनाकर डाउन टाउन के लोगों को बदनाम किया गया। जबकि इनके गुस्से के पीछे की वजह को कहीं कोई जगह नहीं मिली। लाचारी से उपजी निराशा आक्रामकता में बदल गई। कई मीडियाकर्मी पिट गए। हालांकि इसे कहीं से सही नहीं ठहराया जा सकता, इस बात को भी ये मानते हैं।
इस दौरे में एक बात बार-बार सुनने को मिली। इनके लिए कुछ भी कर लो, ये अपना होने वाले नहीं। बदक़िस्मती से कुछ मीडियाकर्मी भी इस ख़्याल के दिखे। ऐसा मानने वालों से मैंने पूछा कि यूपी और बिहार में बाढ़ आती है। उन्होंने कहा, हां आती है। मैंने पूछा, वहां राहत और बचाव का काम होता है। जवाब आया, हां होता है। फिर मैंने पूछा कि वहां भी कई लोग मदद न पहुंचने की शिकायत करते हैं। जवाब आया, हां करते हैं। नाराज़गी में डीएम-सीएम-पीएम के खिलाफ़ नारेबाज़ी करते हैं, हां करते हैं... तो फिर अगर यहां राहत और बचाव के काम को लेकर असंतोष है, तो इसे किसी और चश्मे से देखने की क्या ज़रूरत है?
यह सच है कि बहुत लोगों तक सरकारी मदद नहीं पहुंची है और लोग गुस्से में हैं। इसी मौक़े को अलगाववादी ताक़तें भुनाने की कोशिश में हैं। वे क़ामयाब न हों इसके लिए सरकार और मीडिया की तरफ से ज़्यादा सजगता और संवेदनशीलता की ज़रूरत है।