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This Article is From May 08, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : फ्रांस में राष्‍ट्रपति चुनाव में मैक्रों की जीत के मायने

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    May 08, 2017 23:13 IST
    • Published On May 08, 2017 23:13 IST
    • Last Updated On May 08, 2017 23:13 IST
दो तीन साल से तमाम राजनीतिक चर्चाकार यूरोपियन यूनियन के जनमत संग्रह, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के बाद उन नेताओं की प्रोफाइल करने में लगे थे जो अपने मुल्कों में दक्षिणपंथी उभार का नेतृत्व करने लगे थे. ऐसे नेताओं को इस रूप में देखा जाने लगा कि बस चुनाव होने की देर है, जीत इंतज़ार कर रही है. तमाम लेखों में दक्षिणपंथी उभार के तीन चार मुख्य बिंदु होते हैं जैसे आंतकवाद को लेकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ गुस्सा, नौकरियां दूसरे मुल्कों के नौजवान खा जा रहे हैं, बाहर से आकर बसने वाले टैक्स गटक रहे हैं. दूसरे देशों के नागरिकों को समस्या बताना, ग्लोबलाइज़ेशन को मलेरिया की तरह पेश किया जाने लगा जैसे दूसरे देश से मच्छर आकर उनके देश के लोगों को काट ले रहे हैं.

हमारा देश, हमारी कंपनी, हमारी नौकरियां. इस टाइप की राजनीति को जीत का फार्मूला मान लिया गया. जिस भी देश में इस तरह की बातें करने वाला कोई नेता देखा जाता है, मीडिया को उसमें भावी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नज़र आने लगता है. सबको लगता है कि राष्ट्रवाद की जो भी बात करेगा, जनता बहकावे में आती रहेगी. ब्रिटेन में यूरोपियन यूनियन के ख़िलाफ जनमत संग्रह के नतीजे और अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ट्रंप की विजय के बाद तो मान लिया गया कि दस बीस साल तक दक्षिणपंथ रहेगा. तभी 16 मार्च को नीदरलैंड में चुनाव के नतीजे आते हैं और वहां इस तरह की बातें करने वाले दक्षिणपंथी नेता या दल हार जाते हैं. 7 मई को फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आते हैं और दक्षिणपंथी उभार के ज़ोर पकड़ने के बाद भी उनकी करारी हार होती है. मुझे डर है कि राजनीतिक चर्चाकार अब यह न लिखने लगे कि दुनिया में दक्षिणपंथ अब समाप्त होने लगा है.

मैक्रों मात्र 39 साल के हैं. नेपोलियन के बाद पहली बार कोई इतनी कम उम्र का नौजवान फ्रांस की सत्ता के शिखर पर बैठने जा रहा है. मैक्रों खुद के बारे में कहते हैं कि वे न लेफ्ट हैं न राइट हैं. दोनों की खूबियों का मिश्रण हैं. ऐसा आदमी होता ख़तरनाक है, पता नहीं कब लेफ्ट हो जाए, कब राइट हो जाए. फिर भी मैक्रों को 66 प्रतिशत वोट मिले हैं. दक्षिणपंथी ला पेन को 34 प्रतिशत वोट मिल हैं. फ्रांस में अभी तक दक्षिणपंथी ताकतों को कभी इतना वोट नहीं मिला था. मैक्रो ग्लोबलाइज़ेशन के समर्थक हैं. यूरोपियन यूनियन में फ्रांस के बने रहने की वकालत करते हैं. वे इमिग्रेंट यानी प्रवासियों से भी नफरत नहीं करते हैं, ट्रंप की तरह नहीं कहते कि दूसरे देश से आने वाले नौजवान अमेरिकी नौकरियां नहीं खा सकते. मैक्रों की पत्नी ब्रिगिट मैक्रों 64 साल की है. मैक्रों जब 15 साल के थे तब ब्रिगिट उन्हें ड्रामा सिखाया करती थीं. 16 साल की उम्र में ही मैक्रों ने शादी का फैसला कर लिया था. मैक्रों जिस क्लास में थे उस क्लास में ब्रिगिट की बेटी भी पढ़ती थी मगर मैक्रों को अपनी टीचर से प्यार हो गया था. ब्रिगिट की पहली शादी से तीन बच्चे भी हैं. मैक्रों अपने प्रेम को किसी से छिपाते नहीं बल्कि दुनिया के सामने पूरे आत्मविश्वास के साथ हाज़िर होते हैं. लगता है फ्रांस में एंटी रोमियो दल नहीं है. मैक्रों और ब्रिगिट के प्यार की कहानी पर ही अलग से प्राइम टाइम हो सकता है.

फ्रांस में बेरोज़गारी बहुत बड़ा मुद्दा था. बेरोज़गारी की दर दस प्रतिशत है. चार में से एक युवा बेरोज़गार है. इसके बाद भी अमेरिका की तरह मुद्दा नहीं चला कि दूसरे देश के लोग उनकी नौकरियां खा जा रहे हैं जैसे अमेरिका में चल गया. राष्ट्रपति ट्रंप तो इमिग्रेंट के खिलाफ खूब बोलते हैं. हाल ही इंफोसिस को भी कहना पड़ा कि वह कई हज़ार अमेरिकियों को अपनी कंपनी में भर्ती करेगी. इमिग्रेंट्स के खिलाफ इतना गुस्सा भड़का कि इसके शिकार भारतीय भी हुए. अमेरिका में भारतीयों की हत्या हो गई. आम तौर पर माना जाता है कि बेरोज़गारी बढ़ती है तो दक्षिणपंथ गरम होने लगता है. नौजवानों को राष्ट्रवाद की भाषा अच्छी लगने लगती है मगर फ्रांस में ऐसा नहीं हुआ. वहां अमेरिका से ज़्यादा बेरोज़गारी है मगर वहां दक्षिणपंथी नेता ला पेन एक नए राजनेता से हार गईं जो पहली बार चुनाव ही लड़ रहा था. जीत के बाद मैक्रों ने कहा कि वे फ्रांस और यूरोप की रक्षा करेंगे. यूरोप और पूरी दुनिया हमें देख रही है और इंतज़ार कर रही है कि हम कई जगहों पर ख़तरे में पड़े विवेक की रक्षा के लिए आगे आएं. उन्‍होंने कहा, 'मैं पूरी कोशिश करूंगा ताकि आगे से आपके सामने अतिवाद के लिए वोट करने का फिर कोई कारण बाकी ना रहे. सब कह रहे थे कि मेरी जीत असंभव है, लेकिन ऐसे लोग फ्रांस को नहीं जानते थे.'

मैक्रों को भले ही 66 प्रतिशत वोट मिले हैं लेकिन फ्रांस के इतिहास में 40 साल में सबसे कम मतदान हुआ है. एक तिहाई मतदाताओं ने तो न मैक्रों को वोट दिया न ला पेन को. एक करोड़ बीस लाख वोटरों ने वोट ही नहीं दिया. तीन साल पहले तक फ्रांस की राजनीति में उन्हें कोई नहीं जानता था. आखिर फ्रांस में लोगों ने दक्षिणपंथ को क्यों नकार दिया, उदारवादी समाजवादी ओलांद को क्यों नकार दिया. एक ऐसे नेता को क्यों अपना रहनुमा चुन लिया जो न लेफ्ट से आता था न राइट से. 39 साल का नौजवान पहला चुनाव लड़ता है, फ्रांस का राष्ट्रपति बन जाता है.

मार्च महीने में ठीक ऐसा हुआ जब नीदरलैंड में 30 साल का नौजवान जेसी क्लावर मुस्लिम विरोधी, दूसरे देशों से नौकरी के लिए आए लोगों के खिलाफ राजनीति की आंधी को रोक देता है. वो पर्यावरण के मुद्दों को लेकर जीत जाता है. नीदरलैंड में हर्थ विल्डर की जीत मानी जा रही थी जो मदरसों और मस्जिदों को बंद करने की बात कर रहे थे. नीदरलैंड के चुनाव पर दुनिया की नज़र थी कि नीदरलैंड भी दक्षिणपंथी नेता की बातों में बह जाएगा लेकिन नीदरलैंड की जनता ने कट्टर दक्षिणपंथी पार्टी को हरा दिया. नीदरलैंड में वर्थ विल्डर तो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के फोटोकॉपी थे. वे भी नीदरलैंड की सीमाओं पर दीवार बनाने की बात करने लगे, उनके भड़काऊ भाषण से लगता था कि अब कोई तर्क नहीं बचा है, जनता पागल हो चुकी है, उसने सोचना छोड़ दिया है, उसे बस धर्म की बातें अच्छी लगती हैं, मुसलमान विरोधी बातें अच्छी लगती हैं. फ्रांस के मैक्रों की तरह ग्रीन लेफ्ट के नेता जेसीहा भी खुलकर कहने लगे कि वे खुद इमिग्रेंट की पैदाइश हैं. वे इमिग्रेंट का विरोध नहीं करेंगे. उनकी मां इंडोनेशियाई मूल की हैं और पिता मोरक्को मूल के हैं. इस चुनाव में उनके चार से चौदह सांसद हो गए.

यही नहीं, नीदरलैंड के दक्षिणपंथी नेता नीदरलैंड को फिर से महान बनाने की बात करने लगे. ठीक जैसे ट्रंप ने अमेरिका को फिर से महान बनाने का नारा दिया था. फ्रांस में भी दक्षिणपंथी नेता ला पेन ने फ्रांस को फिर से महान और फ्रेंच बनाने का नारा दिया. ट्रंप तो जीत गए मगर नीदरलैंड और फ्रांस में महानता की दुकानदारी फिलहाल बंद हो गई है. लोग समझ गए कि मुल्कों को महान बनाने का नारा बोगस होता है और एक नेता अपनी दुकान चमकाने के लिए इसका इस्तेमाल करता है. फ्रांस का नतीजा बता रहा है कि बड़ी संख्या में मतदाता इन सब बातों से चट गए थे इसलिए वोट ही देने नहीं गए और जो गए वो जानते थे कि असली मसला बेरोज़गारी है. धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर दक्षिणपंथी नेता नौकरियों के सवाल से बच रहे हैं. फ्रांस में राष्ट्रपति पद के 11 उम्मीदवार थे, इनमें से अकेले मैक्रों ही थे जिन्होंने ग्लोबलाइजेशन का समर्थन किया.

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