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This Article is From Jun 24, 2021

क्यों भारत को बदलनी पड़ रही है तालिबान से जुड़ी नीति?

Kadambini Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 24, 2021 20:18 pm IST
    • Published On जून 24, 2021 20:18 pm IST
    • Last Updated On जून 24, 2021 20:18 pm IST

भारत कभी भी तालिबान से बात करने के पक्ष में नहीं था, लेकिन पिछले दिनों ये खबर आई कि दोहा में भारतीय अधिकारियों और तालिबान के बीच मुलाकात हुई है. कतर के एक अधिकारी ने ये बात एक वेबिनार में कही लेकिन इस बैठक की पुष्टि भारत की तरफ से नहीं हुई. भारत लगातार कहता रहा है कि अफगानिस्तान के लोगों के लिए, उनके ज़रिए उनकी बनाई सरकार के पक्ष में हैं. लेकिन कुछ वक्त से ये भी कहा जाने लगा कि अफगानिस्तान में युद्धविराम और शांति बहाली के लिए सभी स्टेकहोल्डर से संपर्क में हैं. पहले भी इस तरह की मुलाकातों के बारे में बातें की गई हैं. जब दोहा में तालिबान से शांति बहाली पर अमेरिकी पहल पर बातचीत शुरू हुई थी तब भारत भी एक ऑब़्जर्वर के तौर पर निमंत्रित था. लेकिन बदला क्य़ा है?

बदली है ज़मीनी हालत. अमेरिका में काफी वक्त से इस पर बहस चल रही थी कि अफगानिस्तान में 2001 से आतंक के खिलाफ चल रहे अमेरिकी युद्ध को बंद करने का वक्त आ गया है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने निर्णय किया कि 11 सितंबार 2021 के पहले वहां से अमेरिकी सेनाएं निकल जाएंगी. लेकिन इस निकलने ने तेज़ी पकड़ ली है और डेडलाइन से काफी पहले ही मध्य जुलाई तक अमेरिकी सेनाएं वहां से निकल जाएंगी. अमेरिका में भी अभी ये साफ नहीं है कि फिर अल कायदा, यहां पैर जमाते ISIS से दूर से वो कैसे निबटेगा. लेकिन भारत के लिए तो ये और भी बड़ी समस्या है. लंबे वक्त से भारत ये कहता रहा है कि पाकिस्तान में अपना गढ़ बनाए आतंकी अफगानिस्तान में आतंकी हमलों को अंजाम देते रहे हैं. अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार भी ये मानती है और इसके कारण कई बार पाकिस्तान से उसके रिश्ते तल्ख रहे हैं. एक बार जब अमेरिकी सेना वहां से निकल जाएगी तो एक बार फिर पाकिस्तान मज़बूत स्थिति में होगा. फिर क्या अफगानिस्तान की ज़मीन का भी इस्तेमाल भारत में आतंक के लिए हो सकता है. साथ ही अमेरिका को भी अफगानिस्तान के आस-पास के देशों से बेहतर संबंधों की दरकार होगी ताकि बिना देश में कदम रखे थोड़ी बहुत पकड़ बनी रहे. दूसरी तरफ तालिबान लगातार अफगानिस्तान में अपने प्रभाव को फैलाता जा रहा है. हिंसा में भी कोई कमी नहीं आई है ये बात खुद विदेश मंत्री एस जयशंकर कई बार कह चुके हैं.

दूसरी तरफ लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल पर भी हालात नहीं बदले हैं. कई दौर की कूटनीतिक और सैन्य स्तर की बातचीत के बाद भी चीन वहां पर अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति पर नहीं गया है. लगातार उनके विदेश मंत्रालय के प्रवक्ताओं से ऐसे बयान आ रहे हैं कि लगता है कि पीछे हटने का उसका कोई इरादा भी नहीं. ये स्थिति एक बड़ी समस्या है. शायद ये भी एक वजह है कि बैक चैनल बातचीत के जरिए- जिसमें कुछ रिपोर्ट के मुताबिक यूएई ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई- पाकिस्तान के साथ एलओसी पर सीज़फायर हुआ और फिलहाल शांति है. और साथ ही कश्मीर के नेताओं से भी बातचीत शुरू की गई है.

तैयारी ये लगती है कि बाकी सब फ्रंट को संभाल कर ध्यान एलएसी पर केंद्रित किया जाए क्योंकि भले ही फिलहाल जनता का ध्यान पूरी तरह महामारी की तरफ लगा हो लेकिन चीन का भारत की ज़मीन हड़पना चुनावी मुश्किलें खड़ी कर सकता है. कोरोना के मोर्चे पर तो सरकार डैमेज कंट्रोल की कोशिश कर ही रही है लेकिन एलएसी का मुद्दा भी लौट कर आएगा और जो सरकार अपनी छवि एक मज़बूत राष्ट्रवादी सरकार के तौर पर दिखाती हो वो क्या जवाब देगी.

कादम्बिनी शर्मा NDTV इंडिया में एंकर और सीनियर एडिटर (फॉरेन अफेयर्स) हैं...

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