दिल्ली की हिंसा पर काबू पाने में इतना समय क्यों लगा?  

क्या अपने आप में यह स्टेटमेंट नहीं है कि गृह मंत्री अमित शाह के अंडर आने वाली दिल्ली पुलिस से नहीं संभला तो 25 फरवरी को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को उतारा गया.

दिल्ली की हिंसा पर काबू पाने में इतना समय क्यों लगा?  

बड़े नेता बोलने लगे हैं हेडलाइन अब बड़ी होने लगेगी और आम लोगों की तकलीफें छोटी होने लग जाएंगी. उनके बयानों से जगह भर जाएगी और जिनकी दुकानें जली हैं, घर वाले मारे गए हैं और जो अस्पताल के बिस्तर पर ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं उनके लिए जगह कम बचेगी. काश ऐसा न हो मगर अब ऐसा ही होगा. जब हिंसा और भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे तब किसी ने तुरंत नहीं रोका. मीडिया और राजनीति को वारिस पठान बनाम कपिल मिश्रा का खेल खेलना था. प्रशासन को चुप रहना था. पुलिस की नाकामी और गृहमंत्री की जवाबदेही के सवाल को केंद्र में बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है. दिल्ली चुनाव में सांप्रदायिकता और नफरत की खूब खेती की गई, उन बीस दिनों में चुनाव आयोग भी नहीं रोक सका, जामिया, जेएनयू और शाहीन बाग में गुंडे आए, गोली चली, पुलिस देखती रही. उत्तर पूवी दिल्ली में तीन दिनों तक दंगे होते रहे काबू नहीं पाया जा सका, काबू ही नहीं कर्फ्यू  जैसे सामान्य फैसले में तीन चार दिन लग गए. सवाल गृहमंत्री अमित शाह को लेकर हो रहे हैं, जवाब में गिनाया जा रहा है कि उन्होंने कितनी बैठकें की. यही तो सवाल है कि उन बैठकों का क्या नतीजा निकला कि उत्तर पूर्वी दिल्ली जलती रही और लोग मरते रहे?

चांदबाग में रहने वाले अंकित शर्मा अपनी ड्यूटी खत्म कर घर लौटे थे. लेकिन जब मोहल्ले में दंगा होने लगा तो अंकित अपनी ड्यूटी करने लग गए. जानकारी जुटाने लगे. 26 तारीख को अंकित का शव नाले से बरामद हुआ है. अंकित के परिवार वाले आम आदमी पार्टी के पार्षद पर आरोप लगा रहे हैं. खुफिया ब्यूरो में सिक्योरिटी अस्सिटेंट के पद पर काम करने वाले अंकित की हत्या के पीछे का माहौल जिस ज़हर से तैयार किया गया है वो ज़हर बांटने वाले टीवी पर वारिस पठान बनाम कपिल मिश्रा की बहस में सुसज्जित होकर बैठ जाएंगे. ज़हर फैलता रहेगा, लेकिन अब अंकित शर्मा का परिवार उनके पीछे उनके होने और इस तरह से हुई हत्या की क्रूर स्मृतियों के बीच जूझता रहेगा. अंकित की पीट पीटकर हत्या की गई है. मंगलवार से ही परिवार के लोग ढूंढ रहे थे. अंकित के पिता रविंद्र शर्मा कहते हैं कि पिटाई के साथ गोली भी मारी गई है.

यह वही ज़हर है जिसने बुलंदशहर के इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की जान ली थी. यह वही ज़हर है जिसने पहलू ख़ान की जान ली थी. अब सब ठीक हो जाएगा, कहना आसान है, लेकिन क्या उनका ठीक हो जाएगा, जिनके यहां लोगों की मौत हुई है, जिनकी दुकानें जल गई हैं. कश्मीर कवर करने वाले हमारे सहयोगी नज़ीर सोमवार को मिलने आए थे. बातचीत में कह गए कि पहली हत्या मौत होती है, दूसरी हत्या संख्या बन जाती है. मुमकिन है लोग इसे भूलकर पता करने लग जाएं कि अगला चुनाव कहां हैं और वहां दिल्ली की भाषा दोहराई जाने लगेगी, लेकिन मारे गए लोगों के नाम याद रखिएगा. अलग-अलग नहीं, एक साथ.

- 50 साल के वीरभान शिव विहार तिराहे पर मारे गए. उन्हें गोली लगी
- 22 साल के मेहताब बृजपुरी के रहने वाले थे, जलने से मौत हो गई
- 34 साल के दीपक जाफ़राबाद में मारे गए. चाकू लगने से मौत हुई
- 30 साल के फुरक़ान कर्दमपुरी के ही रहने वाले थे हैंडिक्राफ्ट का काम करते थे
-26 साल के राहुल सोलंकी करावलनगर के रहने वाले हैं, गोली मारी गई
-50 साल के विनोद को ब्रह्मपुरी में मारा गया
-24 साल के इशक ख़ान की गोली लगने से मौत हुई
-30 साल के मुदस्सर की मौत गोली लगने से हुई. वे मुस्तफाबाद के हैं
- 28 साल के मुबारक हुसैन की गोली लगने से मौत हुई. वह मौजपुर के हैं
-48 साल के प्रवेश की गोली लगने से मौत हुई. वह मौजपुर के हैं
-35 साल के शान मोहम्मद की गोली से मौत हुई. वे लोनी के हैं
-मुस्तफाबाद के 24 साल के ज़ाकिर की धारदार हथियारों से हत्या हुई
- 22 साल के अशफ़ाक हुसैन को गोली लगी, चाकू लगा. मौत हो गई
- 23 साल के राहुल ठाकुर की भी हमले में मौत हुई है.

कइयों की पहचान नहीं हो पाई है. क्या हम मरने वाले लोगों के नाम का मज़हब के हिसाब के साथ बांटकर संतोष कर सकते हैं? गुरु तेगबहादुर अस्पताल में 200 से अधिक घायल हैं.  यह संख्या है. हर घायल का अपना संघर्ष है. अभी तक किसी ने इलाज के खर्चे की भरपाई का एलान नहीं किया है. हिन्दू-मुस्लिम डिबेट को अभी रोकिए, वरना इसकी सनक हम सभी को श्मशान में भटकने के लिए छोड़ देगी. आप जीटीबी अस्पताल की मॉर्चुरी के बाहर जाइये. दो सेकेंड में मेरी बात समझ आ जाएगी. रवीश रंजन ने यहां वीरभान और जीवनपाल के परिवार से भी बात की और मेहताब की बहन से भी. रवीश से जब मुस्तफाबाद की शबनम कुछ कह रही थीं तब अमर पाल भी वहां आ गए. दोनों की बात एक सी होने लगी. उनका दर्द साझा होने लगा.

पोस्टमार्टम में देरी की शिकायतें भी आई हैं. पुलिस के 100 नंबर को लेकर भी लोगों ने काफी शिकायतें की हैं. जीटीबी में बुधवार की सुबह चार शव लाए गए. इसका मतलब है बुधवार की सुरक्षा तैनाती का कोई असर नहीं हुआ था. गुरु तेगबहादुर अस्पताल ने मरने वालों की संख्या 25 बताई है. इस 25 में आईबी अफसर अंकित भी है. इसमें आप अरविंद अस्पताल में मरने वाले मारुफ को भी जोड़ें तो मरने वालों की संख्या 26 हो जाती है. लोकनायक अस्पताल मे भी दो लोगों के मारे जाने की खबर है. तो इस तरह से मरने वालों की आधिकारिक संख्या 28 हो जाती है. दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को सभी अस्पतालों से जानकारी लेकर संख्या बतानी चाहिए. घायलों पर क्या बीत रही है रवीश की यह रिपोर्ट देखिए.

प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर अमर चैन बनाने की बात कही है और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गृहमंत्री अमित शाह से इस्तीफा मांगा है. परिमल की रिपोर्ट देखिए तो पता चलेगा कि राजनीति ने हिंसा और नफरत की जो फसल बोई है वो कैसी दिखती है. अब आते हैं उन बड़े दौरों पर जो टीवी के पर्दे पर महागाथा में बदल जाते हैं और मारे गए लोगों की त्रासदी भाप बन कर उड़ने लगती है. तीन दिनों से दिल्ली पुलिस की भूमिका की बात हो रही थी. डीसीपी अमित शर्मा और अनुज कुमार के घायल होने के बाद भी कमिश्नर अमूल्य पटनायक की तलाश होती रही. न तो उन्होंने मीडिया को संबोधित कर दिल्ली को भरोसा दिलाया और न ही जनता के बीच पुलिस को लेकर घटते भरोसे को बहाल करने का प्रयास किया. वो न पीछे से काम करते नज़र आए और न मैदान में उतरकर मोर्चा संभाले. कुछ बयान ज़रूर दिया मगर एएनआई को बुलाकर अकेले में बयान देते नज़र आए. अगर वो लीड कर रहे होते तो उत्तर पूवी दिल्ली में दोनों पक्षों के लोग पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल न उठा रहे होते. क्या यही वजह थी कि एसएन श्रीवास्तव को लॉ एंड ऑर्डर की ज़िम्मेदारी दी गई है?

क्या अपने आप में यह स्टेटमेंट नहीं है कि गृह मंत्री अमित शाह के अंडर आने वाली दिल्ली पुलिस से नहीं संभला तो 25 फरवरी को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को उतारा गया. एक ऐसे वक्त में जब पुलिस को लेकर भरोसा तार-तार हो चुका हो, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को लोगों के बीच जाना भरोसा पैदा करने वाला तो है ही. अजित डोभाल उत्तर पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में गए. लोगों का गुस्सा झेला मगर उनकी बात पूरी सुनी. लोगों के कंधे पर हाथ रखकर भरोसा दिया. वो समझ गए हैं कि भरोसा इतना टूट गया है कि बहाल करने का यही एक तरीका है. फिल्ड का आदमी फिल्ड को बेहतर जानता है. एंकर से बेहतर रिपोर्टर जानता है. डोभाल प्रेस के कैमरों से भी घिरते रहे और उनके सवालों का जवाब भी देते रहे. यही काम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी लोगों के बीच जाकर कर सकते थे और राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी, देश के गृहमंत्री को तो सबसे पहले जाना था? तो कोई इंडिया गेट पर शांति मार्च कर रहा था तो कोई उप राज्यपाल का घर घेर रहा था और कोई राजघाट पर प्रार्थना. 26 फरवरी को अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया उत्तर पूवी इलाके के दौरे पर गए. पूरे तीन चार दिनों तक के लिए उत्तर पूर्वी दिल्ली के मोहल्लों को हमलावर भीड़ और गोली लहराते गुंडो के हाथ में छोड़ दिया गया. डोभाल का उतरना साफ करता है कि दिल्ली पुलिस को नया नेतृत्व देना होगा. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से बेहतर कुछ नहीं हो सकता. कमिश्नर को हटाया नहीं गया है, लेकिन कौन संभालेगा उसे एक नया चेहरा दे दिया गया है. लेकिन इस दौरे के बहाने सवालों का रुख मोड़ दिया जाए कि अब सारा कमान किसी और ने संभाल लिया है और जिनके हाथ में कमान थी उनकी नाकामी के सवाल गायब होने लग जाएं तो अच्छी बात नहीं है.

टीवी की भाषा में पावरफुल विजुअल कहते हैं और है भी.  इसके आगे मीडिया की हेडलाइन बदलने लगेगी. जब बड़े नेताओं और हस्तियों के पावरफुल बयान और विजुअल यानी वीडियो आने लगते हैं तो मुझे डर लगता है, क्योंकि उनके सामने आम लोगों के जान माल के नुकसान की खबरें छोटी होने लगती हैं. टीवी के बुनयादी चरित्र को न डोभाल बदल सकते हैं और न रवीश कुमार. टीवी डोभाल के दौरे को ही नायक के रूप में पेश करेगा, क्योंकि टीवी को एक्शन चाहिए.  कैप्शन चाहिए. डोभाल से बेहतर किरदार नहीं हो सकता. कमिश्नर अमूल्य पटनायक गए होते तो तीस सेकेंड का विजुअल नहीं चलता, क्योंकि उसमें पावरफुल विजुअल की संभावना खत्म हो चुकी है. बहुत मुश्किल था यह तय करना कि एक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के दौरे को पहले दिखाऊं या दंगे में मारे गए अंकित शर्मा, वीरभान, दीपक और मारुफ़ और मेहताब की कहानी दिखाऊं. मैंने पहले मारे गए लोगों की जानकारी दी. आपको टीवी देखने का तरीका बदलना होगा, क्योंकि टीवी आपको बहुत बदल चुका है. जिस जगह पर लोगों की ज़िंदगी ज़ीरो हो गई, मीडिया के लिए वो ग्राउंड ज़ीरो हो गया है.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से भी कुछ सवाल हैं. क्या बाहर की भीड़ हथियारों से लैस होकर आई? अगर आई तो वो भीड़ किसने बनाई थी? स्थानीय स्तर पर किसने भीड़ को उकसाया था? क्या उनके पास उत्तर पूवी दिल्ली को लेकर जानकारी थी? क्यों नहीं उन जानकारियों का इस्तेमाल कर हिंसा रोकी गई? राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने एनडीटीवी से कहा कि लोगों को पुलिस में भरोसा होना चाहिए. दिल्ली की सड़कों पर कोई बंदूक लहराते हुए नहीं घूम सकता. कोई बंदूक लेकर न घूमे यह ज़िम्मेदारी किसकी है? पुलिस की और गृह मंत्रालय की जिसके प्रमुख अमित शाह हैं.

काश डोभाल साहब की बात उस दिन गृहमंत्री भी सुन लेते और दिल्ली पुलिस भी जब 30 जनवरी यानी गांधीजी की हत्या के दिन यह नौजवान बंदूक लेकर जामिया के सामने आ गया था? तब यह सवाल क्यों नहीं उठा कि दिल्ली में कोई बंदूक लहराते नहीं घूम सकता है? पुलिस में कैसे कोई भरोसा करे जो इस बंदूक चलाने वाले के पीछे चुपचाप खड़ी रही. कुछ नहीं हुआ तभी तो 1 फरवरी को कपिल गुर्जर शाहीन बाग के सामने पिस्टल लेकर आ गया. वो खुलेआम बोल गया कि हमारे देश में सिर्फ हिन्दुओं की चलेगी और किसी की नहीं.

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डोभाल साहब की बात अगर पुलिस सुन लेती तो 24 फरवरी को उत्तर पूवी दिल्ली में इस लाल टी शर्ट वाले लड़के को पिस्टल लेकर गोली चलाने की नौबत नहीं आती. पुलिस की हालत ये है कि यह अभी तक गिरफ्तार नहीं है. पुलिस साफ कहती है कि शाहरुख है मगर अफवाह अब भी उड़ रही है कि ये अनुराग मिश्रा है. अब डोभाल साहब की बात को दिल्ली पुलिस ने सुनी होती तो 25 फरवरी को विजय पार्क मौजपुर में यह बंदा इस तरह दो तीन फायर करता नहीं दिखता. दिल्ली पुलिस के भरोसे पर जनवरी में ही सवाल उठने लगा था जब वह आज तक जेएनयू में गुंडों की भीड़ को पकड़ नहीं पाई, उसके रहते गोली चलाने का सिलसिला रुका नहीं, दंगे में ही 40 से अधिक मौतें गोली लगने से हुई है तो आप कल्पना करें. 26 फरवरी को हाईकोर्ट की फटकार के बाद दिल्ली पुलिस ने हेल्प लाइन जारी की है. जगतपुरी थाने में 15 लोगों के हिरासत में लेने की भी खबर थी. यहां पर ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क और इंडियन सिविल लिबर्टी यूनियन के वकील मिलने गए थे, जिन्हें खुरेजी के प्रदर्शन स्थल से गिरफ्तार किया गया था. पुलिस ने वकीलों को मिलने नहीं दिया. वकीलों का आरोप है कि उनके साथ धक्का मुक्की हुई. महिला वकीलों की तस्वीरें लेने लगे. एक महिला वकील का फोन छीन लिया गया.