बिल्कुल हाल ही में फैब इंडिया को 'जश्ने रिवाज़' के नाम से दिवाली के मौक़े पर की जाने वाली विशेष पेशकश वापस लेनी पड़ी. क्योंकि बहुत सारे लोगों ने 'जश्ने रिवाज़' को दिवाली के इस्लामीकरण की कोशिश करार दिया. हालांकि न 'जश्ने रिवाज़' जैसा बेतुका पद गढ़ने वालों को मालूम था और न इसका विरोध करने वालों को कि यह अशुद्ध है- रिवाज में नुक़्ता नहीं लगता. और जश्ने रिवाज का कोई भी कोई ख़ास मतलब नहीं निकलता- रिवाज का जश्न जैसी कोई चीज़ समझ में नहीं आती. रिवाजे जश्न का फिर भी एक मतलब निकलता है.
बहरहाल, इस विरोध से मुझे याद आया कि कुछ लोग होली मुबारक या दिवाली मुबारक पर भी एतराज़ करते हैं. उनको लगता है कि दिवाली या होली की शुभकामनाएं देनी चाहिए-क्योंकि शुभकामना तत्सम शब्द है- संस्कृत की परंपरा से आया हुआ, जबकि मुबारक उर्दू शब्द है- फ़ारसी से आया है. ध्यान से देखें तो इनमें से ज़्यादातर लोग हैप्पी होली या हैप्पी दिवाली कहते ज़रा भी शर्मिंदा नहीं होते- बल्कि उन्हें फेस्टिवल ऑफ़ लाइट या फेस्टिवल ऑफ़ कलर ज़्यादा आधुनिक लगता है. यह शायद अंग्रेजी के आभिजात्य का आतंक या आकर्षण है जिसकी वजह से होली-दिवाली के हैप्पी पश्चिमीकरण पर उन्हें एतराज़ नहीं होता और उर्दू के साथ सौतिया डाह का एक रिश्ता है जिसकी वजह से होली-दिवाली का मुबारक होना उनको रास नहीं आता.
हालांकि हमारे समय में भाषा विमर्श पिछड़ी सी चीज़ मान लिया गया है और हिंदी की अशुद्धता का रोना तो बिल्कुल हास्यास्पद, लेकिन इसकी वजह से पैदा अज्ञान कैसे ख़तरनाक नतीजों तक पहुंचा सकता है, इसकी अब कई मिसालें हमारे सामने हैं.
बेशक, हिंदी-उर्दू के संदर्भ में यह नई प्रवृत्ति नहीं है. भाषाओं के सांप्रदायिकीकरण का यह सिलसिला पुराना है. जाने-अनजाने हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया गया है. साहित्य और फिल्मों में हिंदू राजा संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते दिखते हैं तो मुस्लिम राजा उर्दूनिष्ठ हिंदी. यह अंतर हमारे भीतर इतने स्वाभाविक ढंग से बस गया है कि विष्णु खरे जैसे अत्यंत सजग कवि की कविता ‘गुंगमहल' में अकबर के दरबार के पंडित बिल्कुल तत्समनिष्ठ हिंदी बोलते मिलते हैं और मुस्लिम उलेमा बिल्कुल नफ़ीस उर्दू. हालांकि यह उस कविता की आलोचना नहीं है, क्योंकि अंततः उस कविता का मक़सद कहीं और ले जाना है, लेकिन यह यथार्थ इसमें अनदेखा नहीं रह जाता कि एक ही दरबार के दो धार्मिक नुमाइंदे एक कवि के यहां अलग-अलग ज़ुबानें इस्तेमाल कर रहे हैं- वास्तविकता में भले वे एक सी भाषा बोलते रहे हों.
यह धारणा अब इतनी जड़ हो चुकी है कि हम यह भी याद नहीं करते कि एक दौर में उर्दू को हिंदी और हिंदवी के नाम से ही जाना जाता रहा है और हिंदी ने अपने वाक्य विन्यास के लिए संस्कृत का नहीं, उर्दू का ही तरीक़ा अख़्तियार किया है. बल्कि जो बोलचाल की हिंदी है, उसमें फारसी मूल के शब्द इतनी सहजता से घुले मिले हैं कि उनकी जगह तत्सम शब्दों का इस्तेमाल नकली जान पड़ता है. हम कोशिश करते हैं यत्न नहीं, खाना खाते हैं भोजन नहीं करते, गपशप करते हैं वार्तालाप नहीं, दिल की सुनते हैं हृदय की नहीं, दिमाग़ से काम लेते हैं मस्तिष्क से नहीं. बल्कि कुछ शब्दों में मूल या स्रोत इतने घुल-मिल गए हैं कि हिंदी-उर्दू दोनों उस पर अधिकार जताती रहती हैं. भगवतीचरण वर्मा की मशहूर कहानी ‘दो बांके' शुरू ही इस सवाल से होती है कि बांके उर्दू का शब्द है या हिंदी का. इसमें संस्कृत की बंकिम छटा है तो फ़ारसी का बांकपन भी. इसी तरह ‘अपना' शब्द से हम अपनापन भी बनाते हैं और अपनत्व भी. मन शब्द से बेमन भी बन जाता है और मनमोहक भी. फ़िराक़ गोरखपुरी ने उर्दू का इतिहास लिखते हुए उर्दू को हिंदी लिखने का एक और ढंग बताया है. वे ऐसे सैकड़ों शब्द-युग्मों का ज़िक्र करते हैं जिनमें एक शब्द हिंदी का है और दूसरा उर्दू का- लेकिन दोनों ऐसे घुले-मिले हैं कि अंतर पहचानना असंभव होता है.
दिवाली मुबारक के एतराज पर लौटें. यह सच है कि हमारे समय में उर्दू हो या हिंदी- उनकी क़द्र लगातार कम हुई है. दिल्ली की स्कूली शिक्षा में सुधार का रोज़ गुणगान करने वाले केजरीवाल या सिसोदिया दिल्ली की सड़कों पर लगे होर्डिंग तक नहीं देखते जिनमें जगहों के नाम अशुद्ध लिखे पड़े हैं. हर रोज किसी चौराहे पर गुज़रते हुए ‘मूलचंद' को ‘मुलचंद' या दिल्ली सरकार के एक अस्पताल में ‘विषैली' को ‘विशैली' पढ़ने की तकलीफ़ क्या होती है- यह मेरी तरह का हिंदी वाला जानता है.
लेकिन जिन्हें भाषा के साथ हर रोज़ हो रहे इस अन्याय की फ़िक्र नहीं है, उन्हें अचानक मुबारक और शुभकामना का अंतर नज़र आने लगता है. यह सच है कि ‘मुबारक' कहने में सहज उल्लास का जो तत्व है, वह ‘शुभकामना' या ‘बधाई' जैसी औपचारिक शैली में नहीं है. हैप्पी दिवाली, दशहरा और होली तो लगभग संस्कृतिविहीन जान पड़ते हैं. लेकिन लोग इस सहजता को भूल, एक शब्द के खोए हुए मूल तक फिर जाकर मुबारकबाद पर एतराज़ जताते हैं तो दरअसल यह भारतीयता या परंपरा से उनके प्रेम का नहीं, भारतीयता और परंपरा की उनकी नासमझी का नतीजा होता है.
और जिन लोगों को बहुत ज़्यादा भारतीयता की चिंता है, वे दिवाली में अपने घरों में बिजली की लड़ियां लगाना छोड़ दें. राम जी के अयोध्या लौटने पर दीए जलाए गए थे. वे आतिशबाज़ी भी पूरी तरह छोड़ दें क्योंकि यह करिश्मा मुगलों के समय भारत आया. यही नहीं, छोटी दिवाली पर अयोध्या में जो लेज़र शो हुआ, वह भी कहीं से भारतीय नहीं है. कुछ और आग्रह करें तो अपनी शादी में बैंड बाजा बजवाना छोड़ दें- यह जो विक्टोरियन ड्रेस में बैंड पार्टी होती है, वह कब से भारतीय संस्कृति वाली हो गई? और शहनाई भी आपके खिलाफ़ जाएगी, सितार भी आपको मायूस करेगा और तबला भी तंग करेगा- सितार और तबला अमीर ख़ुसरो ने तैयार किया था. अगर इस सिलसिले को और आगे बढ़ाएं तो उन्हें पैंट-शर्ट उतारनी पड़ेगी, कुर्ता-पाजामा भी त्यागना पड़ेगा.
बहरहाल, इस चोट पहुंचाने वाले मज़ाकिया लहजे के लिए कुछ अफसोस जताते हुए यह लेखक बस इतना ही कहना चाहता है कि कौन सी चीज़ कब हमारे जीवन और अभ्यास में शामिल हो जाती है, हमारी सभ्यता-संस्कृति का हिस्सा हो जाती है, यह हमें पता नहीं चलता. संस्कृति और परंपरा की पहेली बहुत विस्तृत, अजीब और जटिल है. (वैसे यह पहेली भी अमीर खुसरो की दी हुई है.)
आप सबकी दिवाली अच्छी गुज़रे. शुभकामना भी क़बूल करें और मुबारकबाद भी स्वीकार करें.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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