जो हाल अस्पताल का है वही अदालत का है। आप किसी अस्पताल में देखते ही होंगे कि डॉक्टर के चैंबर के आगे बहुत भीड़ है। हो सकता है कि डॉक्टर साहब काफी अच्छे हों, मगर कहीं ऐसा तो नहीं कि डॉक्टर ही कम है, जिसके कारण उन पर इतना दबाव है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अनुसार भारत में क्रिटिकल केयर के लिए 50,000 डॉक्टर चाहिए, ताकि जान जाने की स्थिति में कम से कम डॉक्टरों की कमी का सामना न करना पड़े, लेकिन भारत में सिर्फ 8350 डॉक्टर हैं। क्या 50,000 डॉक्टरों की कमी ये 8350 डॉक्टर पूरी कर सकते हैं। तो हुई न आपकी ज़िंदगी राम भरोसे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 मरीजों पर एक डॉक्टर है। इस हिसाब से भारत में 10,000 पर 10 डॉक्टर होने चाहिए मगर हैं 7 डॉक्टर। ब्राजील और चीन में 10,000 पर 180 डॉक्टर हैं। यही कारण है कि आप कई साल से सुनते आ रहे हैं कि फलां सरकारी अस्तपाल में ऑपरेशन की डेट छह माह से एक साल बाद मिलती है। जिसके पास पैसा है और आज कल बीमा है उसे लगता है कि वह चंद मिनट में डॉक्टर हाज़िर कर लेगा, लेकिन आप प्राइवेट अस्पतालों में भी जाकर देखिये क्या हाल है। कितनी भीड़ है वहां। सितंबर 2015 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने नेशनल हेल्थ प्रोफाइल जारी की थी जिसके अनुसार हर सरकारी अस्पताल कम से कम 61,000 मरीज़ों का इलाज करता है। 1833 लोगों पर एक बेड है और हरेक सरकारी डॉक्टर 11,000 लोगों का इलाज करता है। हम दुनिया के कई ग़रीब देशों से भी कम पैसा स्वास्थ्य पर ख़र्च करते हैं।
आप किसी भी अदालत में चले जाइये आपको लगेगा कि आप अस्पताल में आ गए हैं। 10 लाख की आबादी पर भारत में जजों की संख्या मुश्किल से 15 है। जजों पर मुकदमों का इतना बोझ है कि फैसला आते आते 20-30 साल लग जाते हैं। न इलाज टाइम परस न इंसाफ टाइम पर। न्यायपालिका की दुनिया का एक जुमला घिसते घिसते इतना घिस गया है कि इसका कोई मतलब नहीं रह गया। आप जानते भी हैं। जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड। इंसाफ़ में देरी नाइंसाफ़ी है। जब इतने ज्ञानी हैं ही तो बताइये कि उस नाइंसाफ़ी की सज़ा किसे मिले। इंसाफ़ मांगने वाले को दी जाए या देने वाले को दी जाए। भारत में जजों की कमी का ज़िक्र कई चीफ जस्टिस पहले भी कर चुके हैं। 2003 में जयपुर में लोक अदालतों के सम्मेलन में बोलते हुए तब के भारत के चीफ जस्टिस वी एन खरे ने कहा था, अदालतों में बैकलॉग काफी लंबा होता जा रहा है। बुनियादी ढांचा बहुत कमज़ोर है। जजों की संख्या कम है। अमरीका में 10 लाख की आबादी पर 135 जज हैं, भारत में 10 लाख की आबादी पर 13 जज हैं। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए मज़बूत न्यायपालिका बहुत ज़रूरी है।
2003 से पहले भी किसी ने कहा ही होगा लेकिन ये 2016 आ गया है। आपको लगता है कि बीच के प्रधान न्यायधीश इस मसले को भूल गए होंगे। 2004 में भारत के तब के प्रधान न्यायधीश ने जस्टिस आर सी लाहोटी ने कहा कि लंबित मुकदमों के लिए जजों की कमी को दोषी ठहराया था। ट्रिब्यून की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस लाहोटी ने हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीशों से कहा था कि वो निचली अदालतों पर नज़र रखें ताकि मुकदमों की सुनवाई समय से होती रहे। आप सोच रहे होंगे कि 2003, 2004 में चीफ जस्टिस ने जजों की कमी की बात की होगी तो सरकारें हरकत में आ ही गईं होंगी। पांच साल बाद 2009 में चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णन ने 26 नंवबर को राष्ट्रीय कानून दिवस के मौके पर कहा था कि 2008 में 1.8 करोड़ नए केस फाइल हुए थे जिससे पता चलता है कि लोगों का न्यायपालिका में कितना विश्वास है। 14,000 जजों ने 1 करोड़ 70 लाख मुकदमों को निपटा भी दिया था। मतलब एक जज एक साल में 1200 मामलों को निपटा देता है। जजों की कमी और बुनियादी ढांचों की कमी के बाद भी यह काम करके दिखाया गया है।
2008 में भारतीय अदालतों में 4 करोड़ 80 लाख मुकदमों की सुनवाई हुई। यह आंकड़ा दुनिया के किसी भी देश की अदालत से कई गुना ज्यादा है। यही कारण है कि मुकदमों की सुनवाई पूरी होने में कई साल लग जाते हैं। जस्टिस बालाकृष्णन ने कहा था कि जजों की इतनी कमी है कि एक जज को एक केस पर नज़र डालने के लिए 25 मिनट से ज़्यादा नहीं मिलते। क्या आपको डर नहीं लगता है। डॉक्टर के पास लाइन। जज के पास लाइन। बिल्डर के पास भी लाइन। वहां भी लोगों को फ्लैट मिलने में चार साल की देरी का सामना करना पड़ रहा है। 25 मिनट एक केस के लिए। जज साहब कंप्यूटर से भी तेज़ काम करते होंगे। यह सब सोचते-विचारते 2016 आ गया। रविवार का दिन था और मौका था एनुअल चीफ मिनिस्टर और चीफ जस्टिसेस कांफ्रेंस में भारत के मौजूदा प्रधान न्यायधीश वही बात दोहराते हैं जो उनके पूर्व के प्रधान न्यायधीश कह गए हैं। उन्होंने अंग्रेज़ी में जो कुछ कहा, उसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह है- भारत में जजों की संख्या 7675 से बढ़ाकर 40,357 करने की ज़रूरत है। दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़कर 50 हो। 1987 में लॉ कमीशन ने देश में 40,000 हज़ार जजों का सुझाव दिया था। मगर कुछ नहीं हुआ। 2002 में प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में संसद की स्थायी समिति ने भी कहा था कि जजों की संख्या बहुत कम है। भारत में दस लाख की आबादी पर दस ही जज हैं। स्थायी समिति ने सुझाव दिया कि इसे 10 से 50 किया जाए। 10 लाख पर 50 जजों की नियुक्ति से देश में जजों की संख्या 40,000 हो जाती है। लेकिन कुछ नहीं हुआ। 21 फरवरी 2013 को चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर ने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा मगर कुछ नहीं हुआ।
चीफ जस्टिस टी एस ठाकुर न्यायपालिका के हर स्तर पर जजों की कमी को लेकर भावुक नहीं थे। आक्रामक थे। कहते जा रहे थे कि हमने हर स्तर पर चर्चा की है कि निचली अदालतों में जजों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। हाई कोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। हमने इस पर चर्चा की और सहमत हुए कि सुबह और शाम की अदालतों को शुरू करना होगा और इसके लिए सेवानिवृत्त जजों की मदद ली जाए। 10 साल से जेलों में बंद अंडर ट्रायल के लिए कुछ विशेष करना होगा। हमने हर स्तर पर चर्चा की है और सहमत हुए हैं कि निचली अदालतों और हाई कोर्ट में कोई भी केस पांच साल से ज्यादा पुराना न हो। वो कहते जा रहे थे कि हम इस बात के लिए, उस बात के लिए चर्चा कर चुके हैं। सहमत होते रहे हैं। इस पर भी चर्चा कर चुके हैं कि 14 वें वित्त आयोग के तहत जो तमाम ग्रांट मिले हैं उसका इस्तेमाल करेंगे। मैं जानता हूं कि आप वकील नहीं हैं लेकिन इस देश के प्रधानमंत्री के रूप में आप जानते होंगे कि 1950 में सुप्रीम कोर्ट की शुरूआत 8 जजों से हुई थी। तब मात्र 1215 केस थे। हमने एक जज पर 100 मुकदमों से अपनी शुरुआत की थी। एक दशक के भीतर जजों की संख्या 14 हुई और केस हो गए 3247। 1986 में सुप्रीम कोर्ट में 26 जज हो गए और केस की संख्या हो गई 27,881। इस वक्त हमारी क्षमता 31 है और मुकदमों की संख्या 77,151 2014 तक 31 जजों के ऊपर लंबित मुकदमों की संख्या 81,583 थी जिसे हमने कम करके 60,260 पर ला दिया है।
चीफ जस्टिस ने इस मौके का अच्छा इस्तेमाल किया ताकि लोगों का ध्यान जजों की कमी पर जाए। उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह सुप्रीम कोर्ट में जजों की कमी के बाद भी लंबित मुकदमों की संख्या में कमी आई है। उन्होंने कहा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज हाई कोर्ट में 38 लाख 68 हज़ार मुकदमे लंबित हैं। 434 जजों की वेकेंसी भरी जानी चाहिए।
चीफ जस्टिस ने कहा, 'वो पूछते थे सवाल कि अगर एक सड़क 5 आदमी 10 दिन में बनाते हैं, वही सड़क अगर एक दिन में बनानी हो तो कितने आदमी चाहिए। और उत्तर होता था, 50 आदमी चाहिए। 3868000 केस को निपटाने के लिए कितने आदमी चाहिए। कितने जज चाहिए। ये बात हम क्यों नहीं समझते।' पांचवीं पास को समझाने के अंदाज़ में उन्होंने समझा तो दिया लेकिन किसी का ध्यान उस आदमी की तरफ नहीं गया जिसे जजों की कमी का शिकार होना होता है। देश भर में न्यायपालिका के मुद्दों को लेकर तरह-तरह के हाई प्रोफाइल सम्मेलन होते रहते हैं। जिसमें कभी मुख्यमंत्री तो कभी प्रधानमंत्री तो कभी चीफ जस्टिस जाते रहते हैं। हर सम्मेलन में ऐसी बात कही जा रही है मगर डेढ़ दशक से कही जा रही है फिर भी पर्याप्त सुधार नहीं हुए हैं। इसी मार्च महीने में खुद प्रधानमंत्री ने पटना हाईकोर्ट की स्थापना के शताब्दी समारोह में लंबित मुकदमों को लेकर चिन्ता जाहिर की थी। पटना में प्रधानमंत्री ने कहा था कि मेरी एक सलाह है, और यह आइडिया मुझे अभी-अभी आया है कि हमारी अदालतों को हर साल एक बुलेटिन लेकर आनी चाहिए जिसमें सबसे पुराने मुकदमों को हाईलाइट किया गया हो। कुछ चालीस साल के भी हो सकते हैं कुछ 50 साल के भी हो सकते हैं। इससे लोगों में एक संवेदनशीलता जागेगी कि कितने सारे मुकदमें हैं जो लंबित हैं। इससे एक माहौल बनेगा कि कैसे इन बाकी मुकदमों का हल निकाला जाए।
लंबित मुकदमों की जानकारी के प्रति माहौल तो दशकों से बन रहा है। आए दिन अखबारों में रिपोर्ट आती है। सम्मेलनों में चर्चा होती रहती है। सवाल है जजों की नियुक्ति या संख्या बढ़ेगी या नहीं या सिर्फ संवेदनशीलता या जागरुकता से इसमें सुधार आ जाएगा। 26 अक्तूबर 2009 के हिन्दू अखबार की रिपोर्ट के अनुसार तब के कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा था कि सभी लंबित मुकदमों को 30 नवंबर 2009 नेशनल ग्रीड पर डाल दिया जाएगा। नेशनल ग्रीड पर लंबित मुकदमों का पूरा आंकड़ा है। अगर आप NJDG, नेशनल ज्युडिशियल डेटा ग्रीड के नाम से सर्च करेंगे तो एक पेज खुलेगा जिस पर आज के समय तक के सारे मुकदमों की सूची मिल जाएगी। हमने सोमवार शाम तक का डेटा देखा तो
10 सालों से अधिक लंबित मुकदमों की संख्या भारत में 22 लाख 58 हज़ार 441 हैं। 5 से 10 साल के बीच में लंबित मुकदमों की संख्या है 38 लाख, 28 हज़ार 117।
ज़ाहिर है लंबित मुकदमों के बारे में जानने के ज़रिया हमारे पास उपलब्ध है। नेशनल डेटा ग्रीड के अलावा ई कोर्ट की साइट पर जाकर आप पूरे देश की तमाम अदालतों के मुकदमों की स्थिति ऑन लाइन देख सकते हैं। नेशनल ग्रीड या ई कोर्ट जानकारी के लिए है लेकिन क्या ये सुविधाएं जजों की कमी को पूरी कर सकती हैं। चीफ जस्टिस ने साफ-साफ कहा कि उपाय यही है कि जजों की संख्या बढ़ाई जाए। जो नाम हमने भेजे हैं उन्हें मंज़ूर करने में दो-दो महीने न लगे। कोई आपत्ति है तो सीधे हमसे बात की जाए क्योंकि जजों को नियुक्त करने वाली कोलेजियम ने लंबी प्रक्रिया के तहत नामों को फाइनल किया है। 2010 में केंद्र ने तय किया था कि एक राष्ट्रीय लिटिगेशन नीति लाई जाएगी जिसके तहत राज्यों को अपने सरकारी मुकदमों की संख्या कम करनी थी लेकिन 2015 तक की अंतिम सूचना के हिसाब से इस पर कैबिनट विचार कर रही है। मार्च में ही इलाहाबाद कोर्ट की 150वीं जयंती के मौके पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि इंसाफ में देरी नाइंसाफी है। जजों की संख्या बढ़ानी चाहिए और खाली पदों को जल्दी भरना चाहिए।
हम जानना चाहते थे कि जज वाकई कितना काम करते हैं। हमारे सहयोगी आशीष भार्गव ने अपने स्तर पर पता कर बताया कि सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को कितना काम करना पड़ता है। काश कि हम किसी जज की पूरी दिनचर्या कैमरे से शूट करते और आपको दिखा पाते। मुझे तो सुनकर यकीन नहीं हुआ कि जज साहब काम के अलावा कोई काम नहीं कर पाते हैं। सांस कैसे लेते होंगे इसके लिए किसी को जनहित याचिका दायर करनी चाहिए। आशीष ने बताया कि एक जज को रोज़ाना 18 घंटे काम करना पड़ता है। सुबह दस से शाम चार बजे तक कोर्ट में रहते हैं। इसके बाद घर जाकर डेढ़ घंटे आराम करते हैं। फिर अगले दिन के मुकदमों की तैयारी में लग जाते हैं। हर मुकदमे की फाइल देखनी होती है। कोई फाइल 100 पेज की होती है तो कोई पचास पेज की। इसके बीच फैसला भी डिक्टेट करना होता है। साढ़े ग्यारह बजे तक सोने जाते हैं और पांच बजे उठ जाते हैं। जजों को टहलना अच्छा लगता है। टहलने के बाद सुबह सात से साढ़े आठ बजे तक फिर केस की तैयारी करते हैं। साढ़े नौ बजे के आस पास कोर्ट के लिए निकल जाते हैं।
कई जज शनिवार और रविवार के दिन भी देर रात तक काम करते हैं। मुकदमों को दाखिल करना, दाखिल हुए मुकदमों को सुनना, फैसला लिखने के अलावा उनके अन्य प्रशासनिक काम भी होते हैं। उनकी पूरी क्षमता इस बात पर आंकी जाती है कि कितनी तेज़ी से वे केस को सुन लेते हैं, समझ लेते हैं और फैसला देते हैं। निचली अदालतों के जजों का प्रमोशन तो इन्हीं बातों पर टिका होता है कि कितने केस को निपटाया है। क्या कोई जज एक दिन में 50 फाइल पढ़ सकता है। सुबह सात बजे से रात के 11 बजे तक जज काम करते हैं, फिर छुट्टी के दिन भी। तो क्या यह ठीक है कि उनकी छुट्टी पर नज़र डाली जाए। चीफ जस्टिस टी एस ठाकुर ने कहा कि हम सिर्फ मनाली नहीं जाते हैं। जो संवैधानिक पीठ के जज होते हैं वो अपने फैसले लिख रहे होते हैं। अगर एक पक्ष तैयार है तो दूसरा पक्ष तैयार नहीं है। बार से पूछते हैं कि क्या वो तैयार हैं। तीन हफ्ते की छुट्टी होती है। इस दौरान भी कुछ जज मुकदमों को सुनते हैं।
सवाल है कि क्या छुट्टी समाप्त कर देने से जजों की संख्या की ज़रूरत समाप्त हो जाएगी। 40 हज़ार जज चाहिए। आठ हज़ार के करीब जज हैं। क्या इस कमी को तीन या चार हफ्ते की छुट्टी घटाकर पूरी की जा सकती है। क्या ये मुमकिन हैं कि कोई जज एक दिन में बीस मुकदमों की फाइल देख ले। उसे दोनों पक्षों को सुनकर, कानून पढ़कर फैसला लिखना होता है। बीच-बीच में शेक्सपीयर को भी कोट करना होता है। अब समझ आया कि हमारे जज लोग शेक्सपीयर को ही क्यों कोट करते रहते हैं। दूसरे किसी को पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता होगा।
अमरीका के सुप्रीम कोर्ट में 9 जज हैं। सबको मिलाकर एक साल में 81 केसों में फैसला देना होता है। भारत में एक जज औसत 2600 मुकदमों को सुनता है, फैसला देता है। चीफ जस्टिस ने कहा कि जब बाहर से जज आते हैं तो हमें देखकर हैरान होते हैं। 7 अप्रैल को प्रदीप ठाकुर ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में लिखा है कि एक अध्ययन के अनुसार हाई कोर्ट के जज के पास एक मुकदमे के लिए बस पांच या छह मिनट ही होते हैं। पहली बार ऐसा अध्ययन हुआ है। जो सबसे व्यस्त जज हैं यानी जिसके पास बहुत केस हैं उसके पास एक केस को सुनने के लिए सिर्फ ढाई मिनट हैं। जो सबसे कम व्यस्त है उसके पास मात्र 15 से 16 मिनट हैं। पांच से छह मिनट में उन्हें फैसला देना होता है। बंगलुरू की एक संस्था है दक्ष उसने ये अध्ययन किया है। मिसाल के तौर पर कोलकाता हाई कोर्ट में हर दिन एक जज के पास 163 मुकदमे सुनवाई के लिए आते हैं। एक केस के लिए दो मिनट जितना ही समय होता है। पटना, हैदराबाद, झारखंड, राजस्थान के जजों के पास हर दिन एक केस के लिए दो से तीन मिनट मिलता है। क्या एक अरब 25 करोड़ की आबादी के लिए उच्च और उच्चतम न्यालयों के 619 जज पर्याप्त है।
किसी को भी लगेगा कि उसके साथ कोई मज़ाक कर रहा है। आप सोचिये कि आपके साथ कौन मज़ाक कर रहा है। आखिर सरकारों ने जजों की संख्या क्यों नहीं बढ़ाई। अदालतों में सुविधाएं क्यों नहीं बढ़ाई। आपको इंसाफ से कौन दूर रख रहा है। एक आदमी अदालतों में चालीस चालीस साल फैसले के लिए इंतज़ार करता है। उसके फैसले के लिए किसी जज के पास दो मिनट का वक्त नहीं है। उसका इंतज़ार फैसले के लिए कम होता है। तीस चालीस साल में जज साहब का वो दो मिनट मिल जाए, उसके लिए होता है। क्या इसका समाधान मुकदमों की सूची बनाने से निकलेगा या जजों की संख्या बढ़ाने से यह सवाल तो बहुत आसान है। जवाब आप खुद दीजिए।
उत्तर प्रदेश की हालत तो और बुरी है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोग कब से अपने लिए एक बेंच की मांग कर रहे हैं। यहां से लखनऊ और इलाहाबाद जाते जाते सबकुछ बिक जाता है। चीफ जस्टिस की बात में यह भी शामिल है कि अदालतों की सुविधाओं और ढांचों पर भी ध्यान देना होगा। मेरठ के एक किसान की व्यथा है कि एक मुकदमे ने उसकी ज़िंदगी किस तरह से बदल दी। मेरठ से इलाहाबाद हाई कोर्ट के चक्कर ने उसे बर्बाद कर दिया है।
This Article is From Apr 25, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : आपको इंसाफ से कौन दूर रख रहा है?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:अप्रैल 25, 2016 21:42 pm IST
-
Published On अप्रैल 25, 2016 21:39 pm IST
-
Last Updated On अप्रैल 25, 2016 21:42 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
न्यायपालिका, चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर, लंबित मामले, जजों की कमी, अदालत, सुप्रीम कोर्ट, Judiciary, CJI, CJI TS Thakur, Chief Justice Of India, Pending Cases, Supreme Court