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This Article is From Feb 26, 2018

एक साल में कहां गायब हो गए 63 हजार बच्चे?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 26, 2018 19:42 pm IST
    • Published On फ़रवरी 26, 2018 19:42 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 26, 2018 19:42 pm IST
देश में सूचना क्रांति का विस्फोट है फिर भी देखिए कि देश में केवल एक साल में 63 हजार बच्चे गायब हो गए हैं. एक पल में संदेश,फोटो, वीडियो अपने मोबाइल फोन के जरिए दुनिया के इस कोने से उस कोने तक पहुंच पाने में सक्षम हो गए हैं, फिर भी देखिए कि इस वक्त देश से कुल एक लाख 11 हजार 569 बच्चे मिसिंग हैं. इन बच्चों के बारे में कोई तंत्र सूचना दे पाने में अक्षम है. आखिर गायब होकर कहां गए बच्चे? ये कौन से बच्चे हैं और किन कारणों से गायब हो रहे हैं? इनको खोज पाने और परिवार तक पहुंचा पाने का कौन सा तंत्र देश में काम कर रहा है और यदि यह मजबूत है तो फिर इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का मिसिंग होना चिंता का विषय नहीं है?

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2016 की रिपोर्ट में मिसिंग चिल्ड्रन के बारे में जो आंकड़े आते हैं उनमें सबसे ज्‍यादा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि एक साल में इस सेक्शन के तहत गायब होने वाले बच्चों की संख्या में 63407 बच्चे और जुड़ गए हैं. इससे पहले के सालों में देश में 48,162 बच्चे ऐसे थे जो मिसिंग होने के बाद नहीं मिल पाए थे. यह संख्या 1,11,569 तक जा पहुंची! यह बात चिंता में डाल देने वाली है कि एक साल के भीतर इतनी बड़ी संख्या में बच्चे गायब कैसे हो गए?

इन आंकड़ों का एक भयावह सच और है कि गायब होने वाले बच्चों की संख्या में लड़कियों की संख्या क्या—कितनी है? इससे समझा जा सकता है कि हमारे समाज में लड़कियों की क्या स्थिति है, वह कितनी सुरक्षित हैं और उनका कहां किन कामों में उपयोग हो रहा है? समझिए कि गायब होने वाले कुल बच्चों में 63 प्रतिशत हिस्सा लड़कियों का है. साल 2016 की स्थिति भी देखें तो गायब होने वाले 63,407 बच्चों में 41,067 लड़कियां थीं, यह कुल गायब होने वाले बच्चों का 65 प्रतिशत हैं. जाहिर है कि इसमें एक हिस्सा उस संयोजित षड्यंत्र का हिस्सा है जिसमें बच्चों की तस्करी करके उन्हें रेड लाइट एरिया से लेकर घरेलू काम और कारखानों में झोंक दिया जाता है. इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के गायब हो जाने पर भी व्यवस्थाएं खोया—पाया पोर्टल और साल में एकाध प्रोजेक्ट 'मुस्कान' चलाकर अपने काम की इतिश्री कर लेती हैं.

केवल मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और झारखंड सरीखे राज्य ही नहीं, इस मामले में तो दिल्ली की भी हालत खराब है जहां कि 14,661 बच्चे मिसिंग हैं. दिल्ली देश में दूसरे नंबर पर है, जबकि पश्चिम बंगाल इस मामले में पहले और मध्यप्रदेश तीसरे नंबर पर है. पश्चिम बंगाल से 16881 और मध्यप्रदेश से 12068 बच्चे मिसिंग हैं. इन तीनों राज्यों के आंकड़ों को मिला लिया जाए तो यह कुल गुम हुए बच्चों का 39 प्रतिशत है.

क्या गरीबी है गायब होने की वजह?
बच्चों के गायब होने की आखिर क्या वजह है और यह सिलसिला रुक क्यों नहीं रहा है? यदि सूचना क्रांति के दौर में भी यह संख्या नहीं रुक रही है तो सोचा जा सकता है कि इसकी वजह लापरवाही है अथवा यह सोच समझकर किया गया एक काम है. जमीनी अनुभव यह बताते हैं कि सस्ता श्रम होने की वजह से बच्चों को काम में लगाया जाना हिंदुस्तान में कोई नया तरीका नहीं है. अनुभव यह भी बताते हैं कि जब कभी महानगरों की बड़ी कोठियों में इस संबंध में कार्रवाई हुई है तब एक ही मोहल्ले के बीसियों घरों में काम करने वाली लड़कियां पाई गई हैं जिन्हें दूरस्थ इलाकों से गरीबी में रह रहे समाज से तस्करी करके, या खरीदकर लाया गया है. इसमें लापरवाही होने का, जानकारी न होने का मामला अब सीमित संख्या में माना जाना चाहिए. तो फिर हमें डिजिटल होते भारत में इस मसले पर भी थोड़ा नए ढंग से विचार करना चाहिए और इसकी वास्तविक वजहों को खोजा जाना चाहिए. तकनीक केवल समाज को समृद्ध बनाने के लिए क्यों हो, क्या उसकी मदद से ऐसे सवालों को खोजने की दिशा में काम नहीं होना चाहिए, जिन्हें अब तक असाध्य माना जा रहा हो.


राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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