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This Article is From Jan 22, 2021

जब तोड़ने वाले जय श्रीराम का नारा लगाते हैं

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 22, 2021 09:58 am IST
    • Published On जनवरी 22, 2021 09:58 am IST
    • Last Updated On जनवरी 22, 2021 09:58 am IST

यूपी के सहारनपुर में बस अड्डे पर बने एक सार्वजनिक शौचालय को तोड़ने पहुंची एक भीड़ जय श्रीराम के नाम पर यह काम करती रही. शौचालय पर पड़ने वाले हर हथौड़े की थाप पर लोग जय श्रीराम के नारे लगाते नज़र आए. एनडीटीवी में हमारे वरिष्ठ सहयोगी कमाल ख़ान ने यह उदास करने वाली रिपोर्ट दिखाई. पता चला कि बजरंग दल के कार्यकर्ता यह पुनीत काम कर रहे थे.  उनकी दलील थी कि शौचालय एक मंदिर से लगा हुआ था इसलिए इसे तोड़ना ज़रूरी था. हालांकि मंदिर के पुजारी को शौचालय से एतराज़ नहीं है.

लेकिन कुछ देर के लिए मान लें कि मंदिर आने-जाने वालों को शौचालय से कुछ मुश्किल होती होगी. हमारे यहां सार्वजनिक शौचालयों के रखरखाव का जो हाल है, उसमें यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि उससे दुर्गंध भी उठती होगी और बहुत सारे लोग चाहते होंगे कि यह शौचालय यहां से हटाया जाए.

लेकिन बजरंग दल के इस कृत्य में कम से कम तीन प्रवृत्तियां झांकती हैं जो डरावनी हैं. पहली बात तो यह कि उसके कार्यकर्ताओं को पुलिस-प्रशासन की भूमिका अदा करने में आनंद आने लगा है. कभी वे घरों में गोमांस बरामद करने पहुंच जाते हैं, कभी किसी गरीब के घर ठाकुर लिखे जूते निकलवा कर उसे पुलिस तक पहुंचाते हैं और कभी ख़ुद शौचालय तोड़ने को हथौड़ा उठा लेते हैं. यह क़ानून-व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का साधारण मुहावरा नहीं है, यह ख़ुद को क़ानून-व्यवस्था समझने का लगातार विकसित होता अभ्यास है. इसलिए वे किसी पुलिस या प्रशासनिक तंत्र में शिकायत की जहमत नहीं उठाते, बेशक उनका इस्तेमाल अपने सहायक की तरह करते हैं. उनके लिए अब उनकी विचारधारा ही संविधान है, उनका नेता ही देश है और उसके विरुद्ध कुछ भी कहना देशद्रोह है.

दूसरी बात यह कि जिस समय पूरे देश में सरकार शौचालय बनाने पर ज़ोर दे रही है, उस समय बजरंग दल एक शौचालय तोड़ रहा है. क्या इत्तिफ़ाक है कि बरसों पहले प्रधानमंत्री मोदी ने- जब वे प्रधानमंत्री नहीं थे- कहा था कि शौचालय और देवालय में पहले वे शौचालय चुनेंगे. लेकिन बजरंग दल को एतराज़ है कि देवालय के पास शौचालय क्यों बना दिया गया है. जाहिर है, बजरंग दल जानता है कि विचारधारा में कथनी अलग होती है और करनी अलग होती है.

लेकिन तीसरी और सबसे ख़तरनाक बात एक बीमार मनोवृत्ति है जो इस घटना में दिखाई पड़ती है. शौचालय तोड़ना ही था तो उसके लिए जय श्रीराम का नारा लगाने की ज़रूरत क्या थी? क्या किसी और हुंकारे से यह काम नहीं होता? क्या इसलिए कि जय श्रीराम का नारा कहीं ज़्यादा उन्माद पैदा करता है?

जय श्रीराम का यह रुग्ण इस्तेमाल इन दिनों लगातार बढ़ा है. कुछ दिन पहले ऐसे ही नारों और गाली-गलौज के बीच एक बाइक रैली निकली थी. जाहिर है, यह वे राम नहीं हैं जिनसे लोगों की आस्था हो, ये वे राम हैं जिनका इस्तेमाल एक हथियार की तरह होना है- एक विवेकहीन भीड़ के उन्माद के अस्त्र के रूप में.

संकट यह है कि जब बहुत सारे लोग राम के इस तरह के इस्तेमाल को गलत बताते हैं तो तत्काल उन्हें हिंदू विरोधी या राम विरोधी घोषित कर दिया जाता है. यह बीजेपी और संघ परिवार की राजनीति को रास आता है क्योंकि इससे उन्हें उदारवादी तत्वों को अलग करने या पराया बताने का अवसर मिलता है.

लेकिन क्या वाकई यह लोग पराये हैं? क्या वाकई भारतीय संस्कृति से- जिसमें हिंदू या सनातन परंपरा के बहुत सारे मूल्य शामिल हैं- इनका कोई वास्ता नहीं है? परंपरा कोई भी हो- हिंदू हो, इस्लामी हो, बौद्ध या जैन हो- उसमें बहुत सारे तत्व समय के साथ जुड़ते और बदलते चलते हैं. उनमें बहुत सारी चीज़ें अवांछित होती हैं. उनकी छंटाई करनी पड़ती है ताकि परंपरा स्वस्थ और निर्मल रहे- वह ठहरा हुआ पानी न बन जाए. ऐसी परंपरा में तुलसी के राम भी मानवीय लगते हैं और कबीर के राम भी, निराला के राम भी आदर्श लगते हैं और मैथिलीशरण गुप्त के भी. लेकिन जब परंपरा को राजनीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, जब धार्मिकता और श्रद्धा को अपने राजनीतिक हितों के लिए उन्माद में बदला जाता है तो राम का नाम भी छोटा हो जाता है- जय श्रीराम एक हथौड़ा बन जाता है जिसका इस्तेमाल शौचालय तोड़ने में हुकारे की तरह भी किया जा सकता है. 

सच तो यह है कि इस प्रक्रिया ने एक वृहत्तर राम को- या राम से जुड़ी विचारशीलता को हमसे भी छीन लिया है. मैथिलीशरण गुप्त 'साकेत' में लिखते हैं- 'राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है / कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है.' और 'निराला राम की शक्तिपूजा' में आह्वान करते हैं कि शक्ति की करो नूतन कल्पना.

बचपन में जिन कवियों और कृतियों को पढ़ते हम बड़े हुए, उनमें मैथिलीशरण गुप्त भी थे और 'साकेत' भी और निराला और 'राम की शक्तिपूजा' भी. लेकिन हमारे पाठ में सम्मान होता था, अंध श्रद्धा नहीं. हम गुप्त जी और 'साकेत' से मुठभेड़ करते बड़े हुए. हमने निराला के राम पर भी सवाल उठाए. हमें कई राम मिले- बहुत उदात्त भावनाओं से भरे राम भी, बहुत सीमाओं से घिरे राम भी. राम के कुछ रूपों से श्रद्धा हुई तो कुछ रूपों से वितृष्णा भी. हम लगातार राम के रचयिताओं से प्रश्नरत रहे. हममें से बहुत सारे लोगों के लिए यह अपनी आस्था अर्जित करने का उपक्रम था तो बहुत सारे लोगों के लिए अपनी अनास्था की पुष्टि का.

कुछ धर्म को, राम को, ईश्वरत्व को, ख़ारिज करके अपनी नास्तिकता पर गर्व करते थे तो कुछ धर्म, राम और ईश्वर की अपनी व्याख्या करते हुए अपनी अलग आस्तिकता का आविष्कार करते थे.

लेकिन नब्बे के दशक से चली आंधी ने जैसे राम को हमसे छीन लिया है. अचानक एक नया राम बनाया जाने लगा, जो नब्बे के दशक में एक राजनीतिक मुहिम का नाम बन गया. इक्कीसवीं सदी के राजनीतिक समझौतों के बीच धीरे-धीरे इस नाम का सांप्रदायिकीकरण होता गया-और मौजूदा दशक में तो राम को बिल्कुल उन्माद का पर्याय बना दिया गया है. अब जय श्रीराम का नाम शौचालय तोड़ने के लिए जुटी एक भीड़ के उत्साहवर्द्धन का काम करता है. कौन पूछेगा कि राम का असली विरोधी कौन है- वे जो उन्माद की तरह जय श्रीराम का नाम लेते हैं या वे जो अपने राम से बार-बार सवाल करते हैं? जो जयश्री राम के नाम पर शौचालय या कुछ भी तोड़ते हैं या वे जो राम से बहस करते हुए उन्हें बार-बार नए सिरे से रचते हैं?

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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