फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने गुरुवार को घोषणा की कि फ्रांस सितंबर 2025 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में फ़िलिस्तीनी राज्य को मान्यता देगा. मैक्रों ने X (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा, "मध्य पूर्व में न्यायपूर्ण और स्थायी शांति के लिए अपनी ऐतिहासिक प्रतिबद्धता के अनुरूप, मैंने यह निर्णय लिया है कि फ्रांस फ़िलिस्तीन राज्य को मान्यता देगा." हालांकि मैक्रों ने यहूदी राज्य पर सात अक्टूबर, 2023 को हुए आतंकवादी हमले के बाद इजरायल का समर्थन किया था. लेकिन हाल के महीनों में उन्होंने गाजा में युद्ध को लेकर निराशा व्यक्त की है.
फ्रांस ने यह पहल ऐसे समय में की है जब गाजा पट्टी में इजरायल और हमास के बीच युद्ध और विनाश ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया है. ऐसे में फ्रांस का यह रुख मौन समर्थन की संस्कृति को तोड़ता है. फ्रांस अकेला नहीं है, मई 2024 में स्पेन, आयरलैंड और नॉर्वे ने भी फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दी थी.
फिलिस्तीन को अब तक कितने देशों ने दी है मान्यता
फिलिस्तीन को अबतक 147 देशों ने एक देश के रूप में मान्यता दे दी है. लेकिन स्थितियां नहीं बदलीं. गाजा के बारे कहा जाता है कि हिरोशिमा नागासाकी से लगभग आठ गुना भयावह हालात हैं वहां पर. ऐसे में सवाल यह है कि 147 देशों की मान्यता बनाम फ्रांस की मान्यता में फर्क क्या है. अधिकतर देश जिन्होंने फिलिस्तीन को मान्यता दी है, वे एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के हैं यानी ग्लोबल साउथ के सदस्य. इन देशों की नैतिक या भावनात्मक मान्यता थी, लेकिन उनमें से अधिकतर की अंतरराष्ट्रीय शक्ति, सैन्य प्रभाव या कूटनीतिक दबाव सीमित था. लेकिन फ्रांस एक वैश्विक महाशक्ति है: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य (P5), परमाणु शक्ति संपन्न, यूरोपीय संघ में निर्णायक नेतृत्वकर्ता है.इसलिए फ्रांस की मान्यता केवल संख्या में इज़ाफा नहीं, बल्कि दिशा में बदलाव हो सकता है. फ्रांस का मध्य पूर्व से संबंध सिर्फ कूटनीतिक या औपनिवेशिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, रणनीतिक और वैचारिक भी है. फिलिस्तीन को मान्यता देने का उसका कोई भी कदम इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाएगा, जहां उसकी जिम्मेदारियां भी हैं और अवसर भी.
फ्रांस का यह फैसला इतिहास की एक अहम मोड़ की तरह है. यह उस नैतिक ज़िम्मेदारी का हिस्सा है जिसे दुनिया के ताकतवर देशों को निभाना चाहिए, उन लोगों के लिए जो दशकों से विस्थापन, युद्ध और अन्याय का शिकार हैं. अगर फ्रांस सचमुच इस दिशा में कदम उठाता है, तो यह केवल फिलिस्तीन के लिए नहीं, बल्कि न्याय, मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए एक ऐतिहासिक क्षण होगा.

साल 2011 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में एफिल टॉवर के पास लहराता फिलिस्तीन का झंडा.
मैक्रों के इस फैसले को राजनीतिक, सामरिक और घरेलू नीतियों से जोड़कर देखते हैं. फ्रांस में बड़ी संख्या में अरब मूल के नागरिक और मुसलमान रहते हैं, जो लंबे समय से फिलिस्तीन के समर्थन में आवाज़ उठा रहे हैं. यह कदम न केवल घरेलू सियासी संतुलन साधता है, बल्कि अरब और मुस्लिम दुनिया में फ्रांस की छवि को भी सुधार सकता है. इसके साथ ही, यह अमेरिका और इजरायल को यह स्पष्ट संकेत देता है कि अब दुनिया एकतरफा नीतियों को स्वीकार नहीं करेगी. अगर अमेरिका शांति प्रक्रिया को निष्क्रिय बनाए रखता है, तो यूरोप अपने रास्ते पर चलने को तैयार है.
यह मान्यता फिलिस्तीन के लिए केवल सम्मान की बात नहीं, बल्कि एक राजनीतिक औजार है एक ऐसा औजार जो उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नए अधिकार, नए संबंध और शायद भविष्य में संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता दिला सकता है. यह उन प्रयासों को भी बल देगा जो दो-राष्ट्र समाधान के पक्ष में हैं, जहां इजरायल और फिलिस्तीन, दोनों, शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकें.
फ्रांस की पश्चिम एशिया में एक ऐतिहासिक भूमिका रही है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद फ्रांस और ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य के विघटन का लाभ उठाया. साल 1916 में साइक्स-पिको समझौता (Sykes-Picot Agreement) के तहत फ्रांस को सीरिया और लेबनान पर नियंत्रण मिला. साल 1920 के बाद, फ्रांस ने लीग ऑफ नेशंस के मंडेट के तहत इन देशों पर औपनिवेशिक शासन स्थापित किया. अब एक सदी बाद, फ्रांस इस ऐतिहासिक संदर्भ में अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहा है.फ्रांस की ओर से फिलिस्तीन को मिली मान्यता को उपनिवेशवादी अतीत से एक सकारात्मक विचलन की तरह देखा जा सकता है, जो न्याय और आत्मनिर्णय के पक्ष में खड़ा होता है.
क्या फ़्रांस अपनी गलती को सुधार रहा है
लेबनान और सीरिया में फ्रांस का दमनकारी शासन रहा है. फ्रांस ने सीरिया में 1925-27 के विद्रोह (Great Syrian Revolt) को बेरहमी से कुचला. लेबनान में, उसने सांप्रदायिक राजनीतिक ढांचे को बढ़ावा दिया, जिससे आज तक अस्थिरता बनी हुई है. इन क्षेत्रों में फ्रांस का रवैया पश्चिमी प्रभुत्व और 'सभ्य बनाने के मिशन' (Civilizing Mission) का उदाहरण था.
साल 1948 में इजरायल के गठन के समय फ्रांस ने यहूदियों को समर्थन दिया. उसने 1950–60 के दशक में इजरायल को हथियार और परमाणु तकनीक देने में मदद की. लेकिन 1967 के बाद, विशेषकर चार्ल्स डी गॉल के नेतृत्व में फ्रांस ने फिलिस्तीनी अधिकारों के पक्ष में कड़ा रुख अपनाया. स्वेज संकट (1956) फ्रांस, ब्रिटेन और इजरायल ने मिस्र के खिलाफ संयुक्त हमला किया, जब गमाल अब्दुल नासिर ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण किया था. यह कदम औपनिवेशिक ताकतों की आखिरी सैन्य साझेदारी में से एक था और अमेरिका-यूएसएसआर के दबाव में असफल रहा.
फ्रांस आतंकवाद विरोधी रणनीति के तहत माली, सीरिया और इराक में सैन्य हस्तक्षेप कर चुका है. लेकिन फ्रांस ने फिलिस्तीनी राज्य की मान्यता में अब तक देरी की, जबकि उसकी नीति अक्सर फिलिस्तीनी अधिकारों की बात करती रही है. एक ओर फ्रांस मानवाधिकारों और लोकतंत्र की बात करता है, वहीं दूसरी ओर वह इजरायल के साथ गहरे सैन्य और तकनीकी संबंध बनाए हुए है. यह संतुलन की राजनीति (Balancing Act) उसे एक कूटनीतिक मध्यस्थ की भूमिका दिलाने का प्रयास है.
पिछले कुछ सालों में फ्रांस की छवि अफ्रीका और अरब देशों में काफी धूमिल हुई है, विशेषकर उसके औपनिवेशिक अतीत और सैन्य हस्तक्षेपों (जैसे माली, नाइजर) के कारण. फिलिस्तीन को मान्यता देकर फ्रांस: ग्लोबल साउथ के देशों के बीच अपनी विश्वसनीयता को फिर से हासिल कर सकता है, खुद को एक स्वतंत्र, नैतिक शक्ति के रूप में पेश कर सकता है जो अमेरिका की नीति से अलग सोचती है.
फ्रांस की मान्यता से फिलिस्तीन को क्या मिलेगा
कुछ विश्लेषक कहते हैं कि इस तरह की मान्यता प्रतीकात्मक है, क्योंकि इससे फिलिस्तीन को न जमीन मिलेगी, न संप्रभुता. लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है. यह मान्यता फिलिस्तीनी नेतृत्व (खासतौर पर महमूद अब्बास के नेतृत्व वाली फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी) का अंतरराष्ट्रीय मंच पर वैधता दिलाएगी और हौसला बढ़ाएगी. इससे फिलिस्तीन को अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सदस्यता की मांग करने का अधिकार और नैतिक बल मिलेगा (जैसे ICC, WHO). फ्रांस का यह कदम इजरायल के लिए एक कूटनीतिक दंड की तरह है, खासकर उन हालिया कार्रवाइयों के संदर्भ में जो ग़ाज़ा में की गईं हैं.
फ्रांस लंबे समय से यह संकेत देता रहा है कि दुनिया को अमेरिका-केंद्रित नहीं होना चाहिए. इस मान्यता के जरिए, फ्रांस ने एक स्वतंत्र विदेश नीति का प्रदर्शन किया है. यह दिखाता है कि पश्चिमी देश भी इजरायल के खिलाफ नैतिक रुख ले सकते हैं, बशर्ते इच्छाशक्ति हो.
इजरायल द्वारा फ़िलिस्तीनी इलाकों में बस्तियां बसाने, मानवाधिकार उल्लंघन और ग़ाज़ा पर बार-बार हमलों के बाद अब यह तर्क देना मुश्किल है कि केवल बातचीत से ही समाधान निकलेगा. फ्रांस की यह मान्यता एक राजनीतिक चेतावनी है कि अगर इजरायल दो-राष्ट्र समाधान की दिशा में गंभीर नहीं होगा, तो दुनिया को वैकल्पिक कदम उठाने होंगे. डिप्लोमैटिक इकोसिस्टम बदलेगा. इससे पहले 147 देशों की मान्यता के बाद भी फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में पूर्ण सदस्यता नहीं मिली, क्योंकि अमेरिका हर बार वीटो करता है. लेकिन जब P5 में से कोई और देश खुलकर समर्थन करता है, तो फिलिस्तीन को अधिक अंतरराष्ट्रीय मंचों में सीट, निवेश और व्यापार समझौते, ICC (अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय) में केस दर्ज करने का अधिकार, कूटनीतिक दूतावासों का विस्तार जैसे व्यावहारिक लाभ मिलने लगते हैं.

वेस्ट बैंक में फरवरी 2023 में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का स्वागत करते फिलिस्तीन प्राधिकरण के प्रमुख मोहम्मद अब्बास.
और क्या कर सकता है फ्रांस
फ्रांस पश्चिमी लोकतंत्रों के'साइलेंट ब्लॉक' को तोड़ सकता है. अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, और फ्रांस जैसे पश्चिमी देश अब तक फिलिस्तीन को एकतरफा मान्यता देने से बचते रहे हैं. फ्रांस पहला बड़ा पश्चिमी लोकतांत्रिक राष्ट्र होगा जो कहेगा, "हम अब और इंतज़ार नहीं कर सकते." इससे बेल्जियम, स्लोवेनिया, पुर्तगाल, ऑस्ट्रेलिया जैसे दूसरे पश्चिमी देशों पर नैतिक और राजनीतिक दबाव बढ़ेगा. यूरोप के भीतर नीति में बदलाव का रास्ता खुलेगा फ्रांस की मान्यता यूरोपीय संघ की सामूहिक नीति में दरार डालेगी, जो अब तक 'दोनों पक्षों से बातचीत के बाद ही मान्यता' की नीति थी. यदि फ्रांस के बाद यूरोपिय यूनियन के और देश जुड़ते हैं, तो इजरायल पर अर्थिक प्रतिबंध, हथियार रोक या बस्तियां बसाने के खिलाफ कार्रवाई की मांग उठ सकती है.
फिलिस्तीन को फ्रांस से मिलने वाली मान्यता एक 'ट्रिगर इवेंट' हो सकती है जैसे 2024 में नॉर्वे, आयरलैंड और स्पेन की मान्यता ने यूरोप में बहस छेड़ दी थी, फ्रांस की मान्यता मीडिया, शिक्षाविदों, जनमत और मानवाधिकार समूहों को नई ऊर्जा दे सकती है. इससे इजरायल पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और फिलिस्तीन की राजनयिक ताक़त में वास्तविक इज़ाफा होगा.
किसी भी संघर्ष में 'वैचारिक जीत' पहली सीढ़ी होती है. ज़मीनी हालात में बदलाव हमेशा धीरे-धीरे होता है, पहले राजनयिक वैधता, फिर जनमत, फिर नीतिगत हस्तक्षेप और अंत में राजनीतिक समाधान आता है. फ्रांस की मान्यता राजनयिक लड़ाई में फिलिस्तीन की जीत का अगला अध्याय बन सकती है.फ्रांस द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता देना एक राजनीतिक साहस की मांग करता है, न केवल इजरायल और अमेरिका की नाराज़गी के जोखिम के कारण बल्कि इसलिए भी कि यह निर्णय एक निष्पक्ष और न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था की दिशा में एक ठोस कदम हो सकता है. यह मान्यता फ्रांस को दुनिया में नैतिक नेतृत्व की भूमिका में वापस ला सकती है, बशर्ते वह इस रुख को केवल कूटनीतिक बयानबाज़ी नहीं, बल्कि नीतिगत दृढ़ता के साथ अपनाए.
अस्वीकरण:अज़ीज़ुर रहमान आज़मी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वेस्ट एशिया एंड नार्थ अफ़्रीकन स्टडीज विभाग में पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना ज़रूरी नहीं है.