नोटबंदी के नाकाम फैसले का क्या था आधार?

8 नवंबर 2016 के दिन ऐसा धमाका हुआ कि किसी को समझ नहीं आया। यह फैसला भी 2020 के तालाबंदी के जैसा था। एक ही झटके में देश सड़क पर आ गया। पुराने नोट बदलने की समय सीमा इतनी कम थी, बैंकों के बाहर लंबी लंबी कतारें लग गईं।

नई दिल्ली:

8 नवंबर 2016 के दिन शाम आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक टीवी पर आते हैं और नोटबंदी का एलान कर देते हैं।उस वक्त न कोई तैयारी थी और न किसी को खबर थी। देखते देखते लाखों लोगों की बचत उड़ गई और आम गरीब लोग बैंकों के बाहर नोट बदलने की लाइन में लग गए। अपना पैसा बेकार होने के सदमे से कई लोगों के मरने और रोने की खबरें भी उस समय छपा करती थीं। क्या देश कभी जान पाएगा कि वह फैसला कैसे लिया गया, क्यों लिया गया और उसका नतीजा क्या निकला? क्या यह भी जान पाएगा कि कितने लोग अपने नोट नहीं बदल सके और वो राशि कितनी होगी? जिससे पता चले कि आम लोगों की मेहनत की कमाई के इतने हज़ार करोड़ नष्ट हो गए। जबकि काला धन नहीं था। 

8 नवंबर 2016 के दिन ऐसा धमाका हुआ कि किसी को समझ नहीं आया। यह फैसला भी 2020 के तालाबंदी के जैसा था। एक ही झटके में देश सड़क पर आ गया। पुराने नोट बदलने की समय सीमा इतनी कम थी, बैंकों के बाहर लंबी लंबी कतारें लग गईं। नोटबंदी के बाद बैंकों के कई कैशियरों ने बताया कि उनके पास नोट गिनने तक की मशीन नहीं थी। हाथ से गिनने के कारण कम गिने गए तो अपनी जेब से उसकी भरपाई की। कई बैंकरों ने कर्ज़ लेकर नोट गिनने में आई कमी की भरपाई की। उस समय उन्हें लग रहा था कि वे किसी महायज्ञ में योगदान कर रहे हैं। दूसरी तरफ आम महिलाओं ने घर वालों से बचाकर जो पैसा जमा किया था उसे घर के पुरुषों को हवाले करना पड़ा या फिर उनका पैसा नष्ट ही हो गया। नोटबंदी ने समाज पर व्यापक असर डाला।मीडिया रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के दौरान 150 से अधिक लोग मर गए।

ऐसे अनेक लोगों के काम धंधे छूट गए। जीडीपी को गहरा धक्का पहुंचा और कई धंधे बंद हो गए। नोटबंदी के बाद CMIE की रिपोर्ट ने बताया था कि जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच 15 लाख लोगों की नौकरियां चली गईं। तब सरकार के मंत्रियों ने तरह तरह के दावे किए कि भारत से काला धन मिट जाएगा। जाली नोट समाप्त हो जाएगा। नक्सलवाद और आतंकवाद मिट जाएगा। ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा तो कभी कहा कि वे फकीर हैं झोला लेकर चल देंगे।फैसले का आघात इतना बड़ा था कि किसी को ध्यान ही नहीं रहा कि अचानक इस फैसले पर सरकार कैसे पहुंची? इस फैसले से एक एक नागरिक प्रभावित हुआ। बहुत से लोग विदेशों में थे, वे 500, 1000 के नोट नहीं बदल सके।रिज़र्व बैंक के बाहर लाइनें लग गईं। कइयों के यहां शादियां होने वाली थीं, सारे खर्चे रुक गए। फिर भी एक सवाल बार बार उठता ही रहता है कि नोटबंदी का फैसला क्यों लिया गया, किन लोगों के कहने पर लिया गया?

'मैंने देश से सिर्फ पचास दिन मांगे है, 30 दिसंबर तक का वक्त दीजिए. उसके बाद अगर मेरी कोई गलती निकल जाए, गलत इरादे निकल जाए, कोई कमी रह जाए तो जिस चौराहे पर खड़ा करेंगे खड़ा होकर, देश जो सजा देगा उसे भुगतने के लिए तैयार हूं.' 'मैं जानता हूं मैंने कैसी कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ले ली है. जानता हूं कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे. मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, मुझे बर्बाद कर देंगे. लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा. आप सिर्फ 50 दिन मेरी मदद करें. मेरा साथ दें.

उस भाषण में कितनी नाटकीयता थी। प्रधानमंत्री ने भावुकता पैदा करने के लिए क्या क्या नहीं कहा कि लोग ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, उन्हें बर्बाद कर देंगे। फैसला तो ले लिया गया था मगर लिया कैसे गया, लोग यह सवाल पूछते रहे। इससे क्या फायदा हुआ, पूछते रहे। यही सवाल तालाबंदी के समय पूछा गया कि तालाबंदी का फैसला लेने से पहले क्या सोच विचार हुआ, उस समय तालाबंदी के हालात थे या नहीं क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी तालाबंदी की राय नहीं दी थी। 

GOING VIRAL making of covaxin : The inside story इस किताब के लेखक हैं ICMR के चीफ डॉ बलराम भार्गव। डॉ भार्गव इस किताब के पेज नंबर सात पर लिखते हैं कि मार्च के पहले सप्ताह में टॉप लीडरशिप के साथ ICMR की पहली बैठक प्रस्तावित थी। हमसे सफेद कागज़ पर सुझाव देने के लिए कहा गया था। हमने केवल दो पंक्तियां लिखी। तालाबंदी करें।

टॉप लीडरशिप का नाम तक नहीं है।क्या इस तरह से तालाबंदी का फैसला लिया गया तो क्या नोटबंदी के समय भी पर्ची पर लिख कर फैसला हुआ? कोई नहीं जानता। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ ने एक अहम फैसले में केंद्र सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक से कहा है कि नोटबंदी के फैसले से संबंधित फाइलें तैयार करें और व्यापक हलफनामा दायर करे।

कोर्ट ने कहा है कि नोटबंदी के एक दिन पहले केंद्र सरकार ने भारतीय रिज़र्व बैंक को जो पत्र लिखा था, वह भी उसमें शामिल किया जाए। सुप्रीम कोर्ट की पीठ इस बात पर विचार करेगी कि क्या सरकार के पास RBI अधिनियम की धारा 26 के तहत 500 और 1000 रुपये के सभी नोटों को बंद करने का अधिकार है? क्या नोटबंदी करने की प्रक्रिया उचित थी अगली सुनवाई 9 नवंबर को होगी। नोटबंदी के बाद तक यह सवाल पूछा जाता रहा है कि यह फैसला किस आधार पर लिया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार की समझदारी मामले का एक पहलू है।

हम जानते हैं कि लक्ष्मण रेखा कहां है, लेकिन जिस तरह से यह किया गया है और प्रक्रिया कुछ ऐसी है जिसकी जांच की जा सकती है, इसके लिए हमें इसकी सुनवाई की आवश्यकता है ,कोई भी घोषणा एक तरह से या दूसरे तरह से, भावी पीढ़ी के लिए है,हमें लगता है कि यह संविधान पीठ का कर्तव्य है कि वह इसका किसी न किसी तरह से जवाब दे।जस्टिस एस अब्दुल नजीर, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस ए एस बोपन्ना, जस्टिस वी रामासुब्रमण्यम और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। 

फैसला कैसे लिया गया यह सवाल लंबे समय तक पूछा जाता रहा, नोटबंदी के एक साल बाद 24 दिसंबर 2017 को आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास का एक बयान है। यह बयान कई अखबारों में छपा है।वे कहते हैं कि फैसले तक कैसे पहुंचा गया, उस प्रक्रिया में जाने की कोई ज़रूरत नही है। हमें इस पर फोकस करना चाहिए कि इससे नतीजा क्या निकला।इसी पर बहस हो जाए आज भी कि नतीजा क्या निकला, वही शक्तिकांत दास आज भारतीय रिज़र्व बैंक के गर्वनर हैं। 

सर जिस तरह आपने कहा की यह फैसला सब लोगों के लिए आश्चर्य के साथ आया तो मैं जानना चाहती थी कि यह फैसला कब लिया गया? कितनी मीटिंग हुई और जिस तरह आपने कहा कि मुख्य सचिवों को इसके बारे में बताया गया था, तो क्या उन्हे फैसले के समय ही बता दिया गया था या नहीं तो कब बताया गया?
नहीं, मुख्य सचिवों को प्रधान मंत्री जी ने घोषणा होने के बाद ही बताया। उन्हे आगे के कदमों के बारे में जानकारी दी गई जिन्हे वह अब लेंगे। यह मुद्दा आंतरिक चर्चा का विषय काफ़ी समय से रहा है सरकार में, तो मुझे लगता है कि हमें इस प्रक्रिया में नहीं जाना चाहिए की यह फैसला कब और कैसे लिया गया। हमारा ध्यान फैसले और उसके नतीजों पर होना चाहिए। —

आखिर सरकार प्रक्रिया के बारे में क्यों नहीं बताना चाहती थी? अगस्त 2019 में RTI के आधार पर लाइव मिंट, बिज़नेस स्टैंडर्ड में खबर छपती है कि रिज़र्व बैंक के बोर्ड ने चेतावनी दी थी कि नोटबंदी से भारत की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा और कालेधन पर ख़ास असर नहीं पड़ेगा। नोटबंदी के फैसले के एलान से ढाई घंटे पहले बोर्ड ने यह राय दी थी। बोर्ड ने कहा था कि काला धन कैश में नहीं है। दूसरे रुपों में हैं। सुप्रीम कोर्ट के पास जब पूरी फाइल पहुंचेगी तब इन सवालों की पुष्टि हो सकती है। पता चलेगा कि क्या नोटबंदी से नुकसान की चेतावनी दी गई थी, फिर यह चेतावनी कैसे बदली गई? मीडिया की पुरानी रिपोर्ट उठाकर देखिए। नोटबंदी के अगले साल 2017-18 की रिपोर्ट में रिज़र्व बैंक ने कहा कि 99.3 प्रतिशत नोट वापस आ गए हैं। केवल 10,720 करोड़ वापस नहीं आए। जबकि नोटबंदी के बाद  नए नोट छापने में ही रिज़र्व बैंक को 7,965 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ गए।जबकि सरकार सुप्रीम कोर्ट में ही लंबे चौड़े दावे करती थी कि इतने लाख करोड़ काला धन वापस नहीं आएंगे और नष्ट हो जाएंगे।मगर ज्यादातर पैसा तो वापस ही आ गया।  

सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि 10-11 लाख करोड़ वापस आ जाएंगे और 4 से 5 लाख करोड़ नोट वापस नहीं आएंगे। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा था 15.31 लाख करोड़ 500 और हज़ार के पुराने नोट 30 जून 2017 को वापस आ गए. उस समय जाली नोट को लेकर खूब भ्रम फैलाया गया कि भारतीय मुद्रा में जाली मुद्रा का चलन बढ़ गया है लेकिन पता चला कि कुछ करोड़ रुपये ही जाली नोट पकड़े गए। राष्ट्रीय अपराध शाखा ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2020 में 92 करोड़ के जाली नोट बरामद हुए। 2019 की तुलना में 190 प्रतिशत अधिक है, उस साल 25 करोड़ के जाली नोट बरामद हुए थे।

मई 2022 में भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट आई थी कि 500 के जाली नोटों की संख्या में 102 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2000 के जाली नोटों की संख्या में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। हमने पिछले सप्ताह बताया था कि केवल गुजरात और महाराष्ट्र में चंद रोज़ पहले 317 करोड़ के जाली नोट पकड़े गए हैं। नोटबंदी के बाद के वर्षों से भी ज्यादा जाली नोट पकड़े गए हैं। तो नोटबंदी से जाली नोट समाप्त नहीं हुए। आपको एक चीज़ बताना चाहता हूं। नोटबंदी से एक साल पहले 23 दिसंबर 2015 को राज्य सभा में सरकार ने कहा था कि भारत में कितने जाली नोट चलन में हैं, इसका कोई ठोस अनुमान नहीं है। पता ही नहीं था मगर जाली नोट के नाम पर भी नोटबंदी को सही बताया गया।

इसी जवाब में गृह राज्य मंत्री हरिभाई चौधरी कहते हैं कि 2014 में 36 करोड़ के जाली नोट पकड़े गए हैं।क्या जाली नोट इतने अधिक थे कि नोटबंदी ही एकमात्र रास्ता दिखा? अब बात करते हैं सूचना के अधिकार की। इस कानून को आए 17 साल हो गए। दुनिया भर में और भारत में भी पत्रकारिता खत्म हो रही है। गोदी मीडिया के पास हज़ारों करोड़ों के विज्ञापन तो हैं मगर सरकार के दावों पर सवाल करने वाली रिपोर्ट या डिबेट नज़र नहीं आती। ऐसे में सूचना के अधिकार का महत्व और बढ़ जाता है।

11 दिन पहले दैनिक भास्कर में छपी यह ख़बर सूचना के अधिकार के आधार पर बनाई गई है। एक RTI कार्यकर्ता ने जानकारी इकट्ठा कर बता दिया कि महेवा प्रखंड के गांव दमरास में सड़क नहीं बनी लेकिन उसके नाम पर 16 लाख 33 हज़ार रुपये निकाल लिए गए। इस काम में प्रधान और अधिकारियों की मिलीभगत थी। जब यह सूचना बाहर आई तब ज़िलाधिकारी को कार्रवाई करनी पड़ी और 7 अधिकारियों को सस्पेंड कर दिया गया। इस रिपोर्ट में सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता का नाम नहीं दिया गया है। मानसा के RTI कार्यकर्ता मानिक गोयल ने यह जानकारी हासिल कर ली कि पंजाब की जेलों के लिए 2016 से जैमर नहीं खरीदे गए हैं। 4 जी की शुरूआत के समय ही खरीदे जाने चाहिए थे क्योंकि पुराने जैमर 4 जी फोन को ब्लाक करने में सक्षम नही है। इस एक सूचना से RTI कार्यकर्ता ने जेल मंत्री के दावे को चुनौती दे दी कि पंजाब की जेलें मोबाइल मुक्त हो गई हैं।  

इन दो उदाहरणों से साफ है कि गांव और कस्बों के लोग जब अपनी आंखों के सामने भ्रष्टाचार देखते हैं तब उनके पास पता करने का विश्वसनीय ज़रिया RTI है। अगर मीडिया अपना काम करता तो लोग मीडिया पर भरोसा करते।आपने देखा कि एक सूचना से कार्रवाई भी हुई और सरकार ने सड़क बनाने के लिए जो पैसा दिया था, उसका घोटाला भी पकड़ा गया। इस कानून से सरकार को भी फायदा होता है क्योंकि कई बार उसे भी पता नहीं होता कि उसके अधिकारी ज़िले में या ब्लाक लेवल पर क्या गेम कर रहे हैं। 

अब यह खबर इसी साल 15 जुलाई को द वायर में छपी है। बनजोत कौर ने RTI के ज़रिए ऐसी सूचनाएं हासिल की हैं,जो मंत्री खुद से कभी नहीं बताएंगे और न मंत्रालय के अधिकारी। इन सूचनाओं के आधार पर बनजोत कौर ने अपनी रिपोर्ट में सवाल उठाया है कि कोरोना से बचाव के टीके के दो डोज़ के बाद बूस्टर डोज़ का फैसला किस डेटा के आधार पर हुआ, किसकी मंज़ूरी से हुआ? किस तरह से हुआ, किसकी मंज़ूरी से हुआ? बनजोत बताती है कि प्रधानमंत्री ने जब 10 जनवरी 2022 को बूस्टर डोज़ का एलान किया तब उससे पहले टीकाकरण के लिए बनी राष्ट्रीय सलाहकार समिति और CDSCO (Central Drug Standards Control Organisation) को भरोसे में नहीं लिया गया।यही नहीं जुलाई में जब यह रिपोर्ट द वायर में छपती है तब तक सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल आर्गेनाइज़ेशन ने बूस्टर डोज़ को मंज़ूर नहीं किया। ऐसा लिखा है।  7 जून के जवाब में CDSCO कहता है कि उसने बूस्टर डोज़ को मंज़ूरी नहीं दी है। 

द वायर पर आप यह पूरी रिपोर्ट पढ़ सकते हैं। प्रेस कांफ्रेंस में जो जवाब दिया जाता है वह अक्सर पूरा जवाब नहीं होता है। एक अच्छा पत्रकार हमेशा संदेह करता है और बाकी तथ्यों की पड़ताल करता है। इसके लिए वह RTI का सहारा लेता है। RTI कार्यकर्ता जब सूचना लाते हैं, सूचना लाने के लिए कई बार आयोगों के चक्कर लगाते हैं, मतलब सारा खर्चा खुद उठाते हैं। गनीमत है कि कुछ जगहों पर उनकी सूचनाएं तो छप जाती हैं मगर मीडिया का अपना खर्चा बच जाता है। तो यह मामला अर्थव्यवस्था का भी है। मीडिया को हज़ारों करोड़ों का विज्ञापन इस विश्वास पर मिलता है कि इस काम में पैसे खर्च होंगे। लेकिन उसके काम का खर्चा आम आदमी उठा रहा है।

यह खबर टाइम्स आफ इंडिया की है 22 जुलाई की है। RTI कार्यकर्ता रोबिन ज़ाक्कियस ने RTI से पता लगाया कि हैदराबाद नगर निगम पर 95,275 हज़ार करोड़ का कर्ज़ा है। जबकि निगम की कुल आमदनी करीब 96000 करोड़ है। इसी तरह RTI से जानकारी मिलती है कि मेदिनीपुर में 122 किसानों ने आत्महत्या की है मगर बंगाल सरकार कहती है कि एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है। 

सूचना के अधिकार से आप किसी घटना के बाद कुछ समय बाद भी जानकारी हासिल कर सकते हैं। घटना के समय सरकार के भीतर की मशीनरी अलर्ट पर होती है। जानकारी देने में आना-कानी कर सकती है लेकिन कई बार देखा गया है कि कुछ समय के बाद कोई अधिकारी ऐसा जवाब दे देता है कि सरकार के दावों की पोल खुल जाती है।  

जैसे 2017 में गुजरात चुनावों के पहले आपने यह ईवेंट देखा होगा। तब प्रधानमंत्री मोदी पानी में उतरने वाले और पानी से उड़ जाने वाले जहाज़ में सवारी की थी। इसे ईवेंट की तरह दिखाया गया लेकिन यह फैसाल कब हुआ, कैसे हुआ, किन नियमों को बदला गया, इसकी जानकारी तो दी नहीं जाती और होगी भी तो कोई दिखाएगा नहीं। इस घटना के चार साल बाद अक्तूबर 21 में आर्टिकल 14 RTI से जानकारी हासिल करता है और अपनी रिपोर्ट में दिखाता है कि इस ईवंट के लिए कैसे पर्यावरण से संबंधित नियमों में ढील दी गई। एक्सपर्ट कमेटी के सुझावों के खिलाफ जाने के लिए दबाव बनाया गया। अगर RTI नहीं होगा तो आप कैसे ये सब जान पाते। ये भी सही है कि यह खबर कितने लोगों तक पहुंची होगी, क्या उन लोगों ने पढ़ा होगा जिन्होंने इस ईवेंट का प्रसारण देखा होगा, क्या उन्हें इस बात से फर्क पड़ता है कि पर्यावरण के नियमों के साथ छेड़छाड़ क्यों हुई, क्या सरकार ऐसे फैसला करती है।

कई बार सरकार पर भी असर हो जाता है। इस साल मई में एक खबर छपी कि चंडीगढ़ के अस्पताल में गर्भवती और नवजात बच्चों के डीएनए टेस्ट के लिए खराब किट्स का इस्तेमाल हो रहा है। इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद स्वास्थ्य सचिव ने रिपोर्ट मांग ली। अगर यह कानून खत्म कर दिया गया, इसके तहत जवाबों को टाला जाने लगा तब अगर आपके किसी अपने की जान पुरानी दवा देने से चली जाएगी तो कैसे पता करेंगे? गोदी मीडिया तो ये करेगा नहीं। 

सूचक पटेल कई साल से RTI के तहत जानकारी मांगते रहते हैं। जब सूचनाओं को न देने को लेकर आयोग में सुनवाई होती है उसमें भी जाते हैं। सूचक हमारे सहयोगी हैं। 2012 से मैं RTI का इस्तेमाल कर रहा हूं।अभी तक 200 से अधिक RTI दायर कर चुका हूं। खुद से सीखा कि RTI कैसे दायर की जाती है। सबसे ज़रूरी होता है कि RTI में आप सवाल कैसे लिखते हैं। सवाल ऐसे बनाने पड़ते हैं कि सरकार टाल न सके और न बात को घुमा सके। मेरा अनुभव है कि जो सवाल पूछा जाता है उसका सीधा जवाब नहीं दिया जाता है। उसके आधार अजीब अजीब होते हैं।

एक बार जब मैंने पूछा कि आयोग की जो परीक्षा होती है उसके सवाल कौन लोग सेट करते हैं, उनकी डिग्री क्या होती है? तो जवाब मिला कि प्राइवेसी का मामला है। इसका एक कारण है कि आयोगों में रिटायर्ट अधिकारी होते हैं। ये अधिकारी बहुत कम बार अधिकारियों को दंड देते हैं। आयोग में कई बार पत्रकार भी लाए जाते हैं, ऐसे पत्रकार भी जिन्होंने शायद ही कभी RTI का इस्तेमाल किया हो। मैंने देखा है कि आयोग के अधिकारी केस की सुनवाई में 5 मिनट से ज्यादा का वक्त मुश्किल से देते हैं।हम लोग जो RTI करते हैं वो अलग अलग काम करते हैं। दफ्तर में होते हैं और आयोग का डेट आ जाता है। हर सुनवाई में काम छोड़ कर जाना संभव नहीं होता। 


RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का भी मसला है। उनसे कहा जाता है कि घर या दफ्तर का पता दें जबकि कोलकाता हाई कोर्ट का आदेश है कि आप भारतीय डाक विभाग से पोस्ट बाक्स लेकर उसका पता दे सकते हैं. मगर स्पीड पोस्ट से सूचना जाती है और स्पीड पोस्ट का डाक पोस्ट बाक्स में नहीं डाला जाता है। एक आंकड़े के अनुसार अभी तक 99 RTI कार्यकर्ताओं की जान जा चुकी है, 180 पर जानलेवा हमला हुआ है, कई लोगों को जान से मारने की धमकियां दी गई हैं। तो कोई नहीं चाहता कि सूचना के अधिकार के तहत व्यवस्था ऐसी हो कि हर नागरिक बेखौफ सूचनाएं ले सके। क्योंकि सबकी पोल खुल जाएगी।अंजिली भारद्वाज का सतर्क नागरिक संगठन लगातार इन सवालों को लेकर काम करता है,तब भी काम करता है जब गोदी मीडिया में बदल चुके मीडिया का ध्यान नहीं जाता है। 


अंजिली से कहना कि आपने जो आंकड़े दिए हैं वो न बोलें, हम स्क्रिप्ट में ले चुके हैं। 2005 में संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट है, जिसमें लिखा था सूचनाएं तभी पहुंचेंगी जब सरकार का सिस्टम ठीक होगा। इसलिए ज़रूरी है कि सूचना आयोग को चुनाव आयोग की तरह स्वायत्त बनाया जाए। इस स्थायी समिति के सदस्य राज्य सभा सांसद रामनाथ कोविंद भी थे। 14 साल बाद 2019 में मोदी सरकार RTI कानून में बदलाव का बिल लाती है उस पर राष्ट्रपति के रुप में रामनाथ कोविंद साइन कर देते हैं। बदलाव यह था कि चुनाव आयोग और सूचना आयोग का काम काफी अलग है। इसलिए दोनों का दर्जा और काम करने वाले लोगों की सेवा शर्तें अलग अलग होंगी। यही पर सारा खेल हो गया। जिस आयोग को स्वायत्त होना था वह आयोग केंद्र सरकार की सेवा शर्तों के अधीन हो गया।

सतर्क नागरिक संगठन ने कुछ आंकड़े दिए हैं। देश भर में जितने सूचना आयोग हैं, उन पर एक रिपोर्ट तैयार की है। ताकि आपको पता चल सके कि आप तक जानकारी न पहुंचे इसके लिए केवल गोदी मीडिया का उदय नहीं हुआ है बल्कि इस कानून के भी पर कतरे जा रहे हैं। 
झारखंड और त्रिपुरा का सूचना आयोग पूरी तरह से निष्क्रिय है। नए सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है। मणिपुर, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश के सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त नही नहीं हैं। सूचना आयोगो में अपीलों और शिकायतों का बैकलॉग बढ़ता जा रहा है। सूचना आयोग ने 95 प्रतिशत मामलों में पेनल्टी नहीं लगाई, अगर दंड ही नहीं देंगे तो अधिकारी कैसे सुधरेंगे। आरटीआई अधिनियम की धारा 25 के तहत प्रत्येक आयोग को वार्षिक रिपोर्ट तैयार करनी होती है। 29 में से 20 आयोग ने 2020-21 के लिए वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है।

सूचक पटेल ने गुजरात सूचना आयोग से ही जानकारी मांग दी। 23 सितंबर को जवाब आया वह बड़ा दिलचस्प है। गुजरात सूचना आयोग ने बताया है कि पिछले दस साल में केंद्र सरकार से कोई पैसा नहीं मिला है, जिसका इस्तेमाल इस कानून के प्रति लोगों को जागरुक करने में किया जा सके। राज्य सरकार ने भी कोई पैसा नहीं दिया है। नागरिकों को जागरुक करने के लिए एक भी अभियान या सत्र नहीं चलाया गया। अधिकारियों को जागरुक करने के लिए एक भी सत्र का आयोजन नहीं हुआ है। यह हाल है। आयोग अपने काम का हिसाब नहीं दे रहे हैं। हमने जितनी बातें बताई हैं, उसके साथ अब दिल्ली में चल रहे एक विवाद को देखिए। RTI को लेकर ही हो रहा है। केंद्रीय सूचना  आयोग ने 22 सितंबर के दिन दिल्ली के उपराज्यपाल को पत्र लिखा है कि केजरीवाल सरकार दिल्ली में RTI ठीक से लागू नहीं कर रही है। सरकार भ्रामक जानकारी साझा कर रही है। अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया का उभार ही सूचना के अधिकार कानून से होता है। अब उनकी सरकार पर यह आरोप लगा है। दिल्ली सरकार ने इस पत्र के जवाब में कहा है कि 

'केंद्रीय सूचना आयोग ने यह चिट्ठी BJP के इशारे पर लिखी है। यह बहुत दुखद है कि केंद्रीय सूचना आयोग जैसी संस्था भी गंदी राजनीति में शामिल हो रही है। दिल्ली सरकार को इस बात पर गर्व है कि हम RTI एक्ट को बहुत अच्छे से लागू कर रहे हैं. क्या इस जवाब को आप हु ब हू स्वीकार कर लेंगे, अगर नहीं करेंगे तो इसका एक ही तरीका है। दिल्ली सरकार के किसी विभाग में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन कीजिए। जानकारी मांगिए। हाथ का हाथ पता लग जाएगा। उदय माहुरकर केंद्रीय सूचना आयुक्त हैं। वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं।

इंडिया टुडे के लिए 33 साल काम किया है। अहमदाबाद से इंडिया टुडे के लिए रिपोर्ट करते रहे हैं।उदय माहुरकर ने 2017 में एक किताब लिखी है जिसका नाम है, Marching with a Billion: Analysing Narendra Modi's Government at Midterm.  2020 में उदय माहुरकर को केंद्रीय सूचना आयुक्त नियुक्त किया गया। केंद्रीय सूचना आयोग की वेबसाइट पर ही पूरी पारदर्शिता के साथ जानकारी दी गई है।  

लिखा है कि उदय माहुरकर ने मोदी मॉडल के गर्वनेंस पर भी एक किताब लिखी है। इसका नाम है सेंटरस्टेज। इस किताब में बताया गया है कि प्रशासन को लेकर मोदी मॉडल का विज़न क्या है। यह भी लिखा है कि इस किताब की कई मंचों पर तारीफ हुई है। श्री श्री रविशंकर और  इंफोसिस के चेयरमैन नारायणमूर्ति ने तारीफ की है। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलांद और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने तारीफ की है। उदय माहुरकर वीर सावरकर और रेडिकल इस्लामिक मूवमेंट पर भी एक्सपर्ट हैं। लिखा है कि उन्होंने वीर सावरकर पर एक नया दृष्टिकोण विकसित किया है।उदय माहुरकर को 2018 में इंद्रप्रस्थ संवाद केंद्र ने पत्रकारिता में उल्लेखनीय और श्रेष्ठ योगदानों के लिए नारद सम्मान दिया था। और भी कई सम्मान मिले हैं मगर उनके नाम नहीं दिए गए हैं।

इस पर भी बहस हो सकती है कि पिछले आठ साल में केंद्रीय सूचना आयोग का क्या प्रदर्शन रहा है. आयुक्तों के कितने पद कब तक खाली रहे हैं। केंद्रीय सूचना आयोग की वेबसाइट पर इस समय भी तीन आयुक्तों के नाम नहीं हैं यानी पद खाली लगते हैं। सितंबर और अक्तूबर की बारिश जो तबाही लेकर आई है, उसकी सूचना भी देश को कम है। हमें भी नहीं है। यूपी के बाराबंकी ज़िले में सरयू और घाघरा नदी का पानी उफान पर है। बाढ़ का पानी गांव घरों में घुस गया है।आम गरीब लोग प्रभावित हुए हैं। प्रशासन दावा कर रहा है कि राहत पहुंचाई जा रही है, आठ आठ घंटे के रोस्टर पर सचिव, लेखपाल, मेडिकल और नर्सिंग के लोग राहत के काम में लगाए गए हैं ।लेकिन कई लोग इस दावे से संतुष्ट नहीं है। अब इस बाढ़ का कवरेज़ होता तो प्रशासन को भी उसी समय पता चलता कि उसके काम में कहां कमी रह गई है। सुधार करने का मौका मिलता और लोगों की परेशानी कम होती। लोग भी सरकार की जय जय करते। कवरेज़ होता तो लोगों को यह भी पता चलता कि आपदा राहत के काम में प्रशासन को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन अब के गोदी मीडिया के दौर में यह सब स्पीड न्यूज़ की खबरें हैं। चार सेकेंड में खबर समाप्त।कितने एकड़ फसल बर्बाद हुई है, किस किसान की कितनी लागत डूब गई है, मुआवज़ा मिलने की प्रक्रिया क्या है, सभी को मिल रहा है या कुछ को मिल रहा है, अब ये सभी सवाल पत्रकारिता के कोर्स से बाहर कर दिए गए हैं। 


गुरुग्राम और बंगलुरू में पानी भर गया तो इस तरह कवर हुआ जैसे जल प्रलय आ गया हो मगर आम गरीब लोग बाढ़ में डूबे हैं, मीडिया दूर है। पहले ऐसा नहीं होता था, बाढ़ की खूब कवरेज होती थी, लेकिन अब शाम के डिबेट के कारण ये सब खबरें गायब हैं। नेता और सरकार की तरफ से जो बयान आएंगे जो वीडियो आएंगे उन्हीं पर डिबेट होगी।

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बीजेपी के सांसद प्रवेश वर्मा ने एक समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की बात की। दिल्ली पुलिस वीडियो का अध्ययन कर रही है। उधर केजरीवाल सरकार के समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम को डॉ अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं दोहराने के लिए पद से इस्तीफा भी देना पड़ा और दिल्ली पुलिस के सामने उनकी हाज़िरी भी लग गई। सवाल है कि एक सांसद किसी समुदाय के आर्थिक समुदाय के बहिष्कार की धमकी देते हैं, पुलिस से पहले प्रधानमंत्री और बीजेपी निंदा कर सकती थी लेकिन डॉ अंबेडकर की इस प्रतिज्ञा को दोहराने पर बीजेपी राजेंद्र पाल गौतम के खिलाफ हमलावर हो गई।