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This Article is From Apr 30, 2016

पश्चिम बंगाल में हिंसा के बीच लोकतंत्र का आह्वान

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 12, 2016 08:24 am IST
    • Published On अप्रैल 30, 2016 22:34 pm IST
    • Last Updated On मई 12, 2016 08:24 am IST
भारत में स्वतंत्रता के बाद क्रांति की प्रयोगशाला के तौर पर पश्चिम बंगाल का नाम सर्वोपरि है। साठ-सत्तर के दशक में हिंसात्मक नक्सलवाद आन्दोलन के बाद वहां कई दशकों तक वाम दलों के मोर्चे की सरकार का शासन रहा। पश्चिम बंगाल भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा की सफलता का सबसे बड़ा उदहारण था और जब पांच साल पहले ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के हाथों वाम मोर्चे को जबरदस्त शिकस्त मिली थी, तब प्रदेश में वाम दलों की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ था।

लेकिन आज, जब पश्चिम बंगाल में विधान सभा के चुनाव अपने अंतिम चरणों में है, तब वही वाम मोर्चा न केवल सत्ता में अपनी वापसी के प्रति उत्साहित है, बल्कि उस प्रदेश में कभी कोई अस्तित्व न रखने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी अपने अच्छे प्रदर्शन की पूरी उम्मीद है। एक मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बनर्जी ने प्रदेश में यदि वर्षों से आई राजनीतिक जड़ता को तोड़ा है, तो दूसरी ओर उनके नेताओं और कार्यकर्ताओं ने तमाम मौकों पर अपनी अपरिपक्वता और अति-उत्साह में लोगों का विश्वास भी खोया है।

आश्चर्य की बात है कि ऐसे प्रदेश में जहां वर्षों तक वाम मोर्चे और कांग्रेस के ही बीच तकरीबन एक-तरफा चुनावी संग्राम होता आया था, वहीं आज तृणमूल कांग्रेस के सामने लम्बे समय तक धुर-विरोधी रहे वाम दल और कांग्रेस एक साथ खड़े हैं। यही नहीं, ममता ‘दीदी’ के सत्ता में आने के बाद भाजपा के रूप में एक तीसरी शक्ति की जगह भी बन गई है। ममता बनर्जी अपने तीखे वाम-विरोधी आन्दोलन के कारण भले ही भारी बहुमत से चुनाव जीतती आई हैं, लेकिन आज उन्हीं के नेताओं, कार्यकर्ताओं और अपने सामाजिक बदलाव - जिसे वे बंगला में पोरिबोरतोन (परिवर्तन) का नाम देती हैं- की बदौलत प्रदेश की जनता के एक वर्ग में तृणमूल शासन से असंतोष की आहट भी सुनाई दे रही है।

बंगाल में वाम मोर्चे के शासन के दौरान मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत अन्य वाम दलों के कार्यकर्ता अपने विरोधियों से हिंसात्मक तरीके से निबटने के लिए प्रख्यात थे। नक्सल आन्दोलन के दौरान आम हो चले हड़ताल, बंद और हिंसात्मक प्रदर्शनों को ही तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने अपना हथियार बनाया और तृणमूल शासन में प्रदेश के तमाम गांवों और कस्बों में वाम दलों के कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न होने की घटनाएं भी आम हो गई थीं। साथ ही, अल्पसंख्यक वर्ग को अपने साथ रखने के अति-उत्साह के फलस्वरूप कई जिलों में अन्य वर्गों में असंतोष इतना बढ़ता गया कि भारतीय जनता पार्टी को वहां अपने पैर जमाने में मदद मिली। यह बात अलग है कि इस पूरे प्रकरण में कांग्रेस की स्थिति न-इधर की न-उधर की हो गई और पार्टी के लिए तृणमूल और भाजपा के प्रभाव से निबटने के लिए वाम दलों का साथ लेना मज़बूरी हो गई।

वाम दलों के दशकों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने ऐसे वर्गों का साथ लिया जिनमें कुछ अतिवादी और माओवादी तत्व भी शामिल हैं, और पिछले कुछ वर्षों में जब वहां वाम दलों के अलावा भाजपा की सक्रियता भी बढ़ी, तो तृणमूल कार्यकर्ताओं के निशाने पर भाजपा कार्यकर्ता भी आ गए।

चिंता की बात तो यह है कि इस राजनीतिक संग्राम ने बहुत जल्द सांप्रदायिक रूप ले लिया है क्योंकि तृणमूल कांग्रेस अपने समर्थन के प्रसार के लिए बड़े तौर पर अल्पसंख्यक वर्ग को अपने साथ लेकर चल रही है और उनके निशाने पर आने वालों में अधिकतर दूसरे वर्ग के लोग हैं। यही नहीं, जिस तरह से बांग्लादेश से आने वाले अप्रवासियों को तृणमूल ने अपने वोट बैंक में शामिल किया है, उससे प्रदेश के निवासियों में चिंता बढ़ी है। हाल ही में हुए शारदा चिट फंड घोटाले, नारद स्टिंग ऑपरेशन, देसी बम बनाने और बरामद होने की दर्जनों घटनाओं और तमाम अपराधों के प्रति ममता के रवैये से भी तृणमूल के प्रति एक वर्ग का असंतोष बढ़ा है। कोलकाता के गार्डन रीच इलाके को जिस तरह से तृणमूल के एक नेता द्वारा पाकिस्तान के एक अखबार में दिए गए साक्षात्कार में कथित तौर पर ‘मिनी-पाकिस्तान’ कहा गया उससे विरोधी दल ही नहीं बल्कि तृणमूल कांग्रेस के नेता भी चकित हैं।

लेकिन इन सबके बीच ममता ने अपने आक्रामक रवैये को बरकरार रखते हुए सभी प्रकार के आलोचकों तक को परिवर्तन विरोधी कहा और चुनाव प्रचार व उस दौरान हुई हिंसा पर चुनाव आयोग द्वारा उठाए गए कदमों को अपने विरोध में साजिश बताया। यह भी बड़ा विरोधाभास है कि पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और कांग्रेस के राहुल गांधी जब एक चुनावी रैली में एक मंच पर साथ खड़े हुए तो सामने उपस्थित लोगों को यह नहीं समझ में आ रहा था कि इन दो कट्टर विरोधियों को एक-दूसरे के समर्थन में बोलने पर वे क्या प्रतिक्रिया दें।

इन दो दलों का एक साथ आना बिहार मे पिछले वर्ष हुए विधान सभा चुनाव में कांग्रेस, जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल के महागठबंधन की नीति का ही अगला पड़ाव है, जिसका एक और उदाहारण केरल में कांग्रेस और डीएमके का चुनावी गठजोड़ है, जहां कांग्रेस और वाम मोर्चा एक-दूसरे के खिलाफ तीखा प्रचार कर रहे हैं। भाजपा के लिए एक ओर तृणमूल कांग्रेस और दूसरी ओर कांग्रेस-वाम मोर्चा के मैदान में होने के कारण कुछ स्थानों पर बहुसंख्यक हिन्दुओं का समर्थन मिलने की खबरें हैं, जिससे पार्टी उत्साहित है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल में वाम दल-कांग्रेस गठबंधन को कमजोर करना बड़ी लड़ाई का हिस्सा है, जिसके लिए पार्टी कहीं-कहीं तृणमूल कांग्रेस को अपरोक्ष तौर पर समर्थन दे सकती है। प्रदेश में छः चरणों के चुनाव का अंतिम चरण 5 मई को है और 30 अप्रैल तक हुए मतदान में अप्रत्याशित तौर पर बड़ी संख्या में लोगों ने वोट डाला। जहां चुनाव के शुरुआती दौर में आम राय यही थी कि तृणमूल आसानी से दोबारा सत्ता  में आ जाएगी, लेकिन पांचवे चरण के बाद बंगाल के लोगों की धारणा है कि तृणमूल कांग्रेस की जीत उतने बड़े अंतर से शायद न हो जैसा पहले लगता था। हर चरण में होती आई हिंसा के बावजूद जिस तरह से भारी मतदान हुआ है उससे एक स्पष्ट जनादेश की आशा बनती है। दीदी के अलावा वाम दल और भाजपा इसके अर्थ अपने अपने हित में निकाल रहे हैं।

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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