पहले तो उत्तर प्रदेश विधानसभा के नतीजों ने देश को चौंकाया। फिर जब योगी आदित्यनाथ को वहां का मुख्यमंत्री बनाया गया, तो यह निर्णय पहले से भी अधिक चौंकाने वाला साबित हुआ. इसके बाद से तो वहां के मुख्यमंत्री द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों ने एक प्रकार से चौंकाने की एक श्रृंखला ही तैयार कर दी है. महज़ एक महीने के अंदर स्थिति यह आ गई कि नीति आयोग की बैठक में देश भर के मुख्यमंत्रियों के बीच योगी न केवल अपने पहनावे के कारण, बल्कि अपनी धुंआधार गतिविधियों के कारण पूरे देश के आकर्षण एवं उत्सुकता के केंद्र में थे. इस आकर्षण तथा उत्सुकता का कारण उनकी राजनीति नहीं, बल्कि उनके प्रशासनिक निर्णय एवं कार्यशैली रही है. अनुभवहीनता को उनकी प्रशासनिक क्षमता की सबसे बड़ी कमजोरी और अयोग्यता मानने वाले लोग फिलहाल इनके परिणामों की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
योगी अदित्यनाथ ने अपने अभी तक के बढ़ाए गए कदमों से यह तो सिद्ध करने में सफलता हासिल कर ली है कि 'मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं है'. यह जनविश्वास के लिए बहुत जरूरी था. उन्होंने नौकरशाहों को यह संदेश स्पष्ट रूप से दे दिया है कि काम किए बिना गुजारा नहीं है, और सही तरीके से काम करना पड़ेगा. इसी के साथ जुड़ी हुई बात है- टारगेट फिक्स करना. यानी कि अब 'देखा जाएगा और देखते हैं' के स्थान पर 'होगा' की कार्यसंस्कृति को अपनाने के बहुत स्पष्ट निर्देश दे दिए गए हैं. जाहिर है कि यूपी की ब्यूरोक्रेसी में हड़कंप है. उन्हें 'स्वर्ग का राज' ढहता हुआ मालूम पड़ रहा है. क्या देश यहां से नौकरशाही के किसी नए स्वरूप के अवतार की उम्मीद कर सकता है?
दसवें सिविल सर्विस डे पर प्रधानमंत्री ने सहायक क्रिया के रूप में 'चाहिए, चाहिए' का प्रयोग करते हुए जो लंबा भाषण (उपदेषनुमा) दिया, उससे साफ जाहिर होता है कि भारतीय नौकरशाही के पुराने ढांचे से न तो नई चुनौतियों का सामना किया जा सकता है, और न ही एक नए भारत का निर्माण. आज से 32 साल पहले जब लगभग योगी आदित्यनाथ के उम्र के ही राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब उन्होंने नौकरशाही पर 'नकेल कसने' की बात कही थी. कुछ नहीं हुआ. वर्तमान प्रधानमंत्री के भी शुरू के तेवर कुछ इसी तरह के थे. लेकिन फिलहाल यहां भी कोई मूलभूत गुणात्मक परिवर्तन दिखाई नही दे रहे हैं. संपत्ति का खुलासा, विदेश यात्राओं पर प्रतिबंध, अयोग्य लोगों की सेवा से बर्खास्तगी तथा लाल बत्ती की विदाई जैसे उपायों से वस्तुत: न तो कुछ खास हुआ है, और न ही कुछ खास होने वाला है.
यदि देश नौकरशाहों के वर्तमान ढांचे को ही ढोने को अभिशप्त है, तो उससे काम लेने की 'आदित्यनाथ की प्रणाली' शायद थोड़ी कामयाब हो सके. पक्के तौर पर यह कह पाना थोड़ी जल्दबाजी होगी, क्योंकि नौकरशाहों के पास भी लगभग दो सौ साल पुरानी मजबूत नींव है. पंडित नेहरू के जमाने से स्थायी एवं अस्थायी कार्यपालिका के बीच के टकराव के कई हिस्से इतिहास में दर्ज हैं. यह टकराव आज तक जारी है. हां, राज्यों में यह कुछ ज़्यादा ही है. कहीं-कहीं तो यह टकराव शोभनीयता की सीमा तक को लांघ जाता है.
यहां सवाल यह नहीं है कि इसमें कौन सही है, और कौन गलत. इसका फैसला चाहे जिसके पक्ष में भी हो, उसके दुष्परिणाम देश को भुगतना पड़ रहे हैं, इसलिए इस संघर्ष का यथासंभव एक स्थायी समाधान ढूंढा ही जाना चाहिए. इस समाधान का रास्ता सुधार में नहीं, बल्कि बदलाव में ही हो सकता है. फिलहाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में बदलाव की जो लहरें हिलोरें ले रही हैं, उसे देखते हुए इस समय को इसके लिए एक 'आदर्शतम काल' कहा जा सकता है.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Apr 26, 2017
नौकरशाही के नए अवतार का इंतजार
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 26, 2017 20:34 pm IST
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Published On अप्रैल 26, 2017 20:34 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 26, 2017 20:34 pm IST
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