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This Article is From Mar 12, 2017

अब BJP को मुस्लिमों का ज़्यादा ध्यान रखना होगा...

Vivek Rastogi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 20, 2018 14:59 pm IST
    • Published On मार्च 12, 2017 13:46 pm IST
    • Last Updated On मार्च 20, 2018 14:59 pm IST
कहते हैं, दूध को बिल्ली से सुरक्षित रखना हो, तो बिल्ली को उसकी रखवाली का काम सौंप देना चाहिए... यह मुहावरा यूं ही याद नहीं कर रहा हूं... आबादी के लिहाज़ से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में शनिवार को नया इतिहास लिखा गया है... सिर्फ चार दशक (उसमें भी तीन साल कम) पहले जन्मी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार पूरा बहुमत पाकर सत्ता पर काबिज हुई, जिसमें देश की राजनीति को दिशा देने के लिए ख्यात रहे उत्तर प्रदेश से मिलीं 73 (बीजेपी को 71, दो सीटें सहयोगी अपना दल को) सीटों का महती योगदान रहा था, लेकिन इसके बावजूद प्रदेश की गद्दी पर वह कई दशक से बहुमत पाकर सत्ता हासिल नहीं कर पाई थी, सो, वह अभाव पार्टी नेताओं को कहीं न कहीं खटकता था...

शायद यही वजह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'अपने बूते' लोकसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगाने के बाद दो में से जिस एक लोकसभा सीट से इस्तीफा दिया, वह उनके गृहराज्य गुजरात की थी, और लोकसभा सांसदों व विधानसभा सदस्यों की सबसे बड़ी संख्या रखने के नाते राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य पर सबसे ज़्यादा असर छोड़ने वाले उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व वह संसद में करते रहे...

खैर, यह तो हुआ 'बैकग्राउंडर'... अब इस आलेख के मुख्य मुद्दे पर आता हूं... नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने और टिके रहने के दौरान बहुत कुछ नया हुआ - अच्छा या बुरा, इस पर कोई टिप्पणी नहीं... सबसे नया यह हुआ कि लगभग हर प्रदेश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) मजबूती के साथ उभरने लगी, और विकल्प के तौर पर खुद को पेश करती रही... दूसरा नया, जो इससे भी ज़्यादा अहम है, यह हुआ कि सभी राज्यों में विपक्षी दलों में एकता (भले ही वैचारिक तौर पर एकता हो पाए या नहीं) दिखने लगी, और राजनीति बीजेपी और गैर-बीजेपी दलों के बीच सिमटने लगी... इसका सबसे मजबूत उदाहरण हमने पिछले साल बिहार में देखा, जब एक दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक साथ गलबहियां डाले चुनाव लड़ते दिखे भी, और जीते भी, जबकि उससे कुछ वक्त पहले तक लगभग 17 साल नीतीश कुमार खुद बीजेपी के साथ ही गलबहियां डाले दिखते रहे थे...

बहरहाल, मुद्दा यह है कि हर दल बीजेपी के सामने आकर सिर्फ विरोधी सुर क्यों अपनाता जा रहा था... दरअसल, इसकी सबसे अहम वजह बीजेपी की हिन्दूवादी (कट्टर हिन्दूवादी भी पढ़ सकते हैं) छवि है, जो उसे जाने-अनजाने 'अल्पसंख्यकों का दुश्मन' साबित करती रही, या कम से कम विपक्षियों को उसे इस रूप में पेश करने का मौका देती रही... ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी ने अपनी तरफ से इसमें कतई कोई योगदान नहीं दिया... पार्टी के तौर पर कभी भी बीजेपी ने भले ही अल्पसंख्यकों के खिलाफ कुछ न कहा हो, लेकिन उसी के कुछ नेताओं ने सिर्फ अल्पसंख्यकों को नसीहतें (और धमकियां) देने का काम कर ही खुद को नेता के रूप में स्थापित किया, और उनके खिलाफ आवाज़ें उठने पर भी पार्टी ने डैमेज कंट्रोल कभी-कभार ही किया... इसके अलावा राममंदिर के मुद्दे को लेकर खड़ी हुई, और एक तरह से इसी मुद्दे की वजह से बड़े पैमाने पर स्वीकार्य बनी पार्टी की छवि को हिन्दूवादी बनाने में इस मुद्दे ने भी योगदान बनाए रखा, क्योंकि बीजेपी ने राममंदिर का मुद्दा पूरी तरह कभी नहीं छोड़ा...

इस छवि को आगे ले जाने में नरेंद्र मोदी सरकार के वक्त हुई कुछ घटनाओं ने भी महती भूमिका निभाई... दादरी का अखलाक कांड किसी को कभी नहीं भूल सकता, क्योंकि उस घटना को किसी भी कीमत पर 'वहशियाना' से इतर कुछ नहीं कहा जा सकता... गोमांस को लेकर कानून क्या कहता है, वह कानून मुझे सही लगता है या नहीं, यह बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन अखलाक के साथ 'भीड़' ने जो किया, वह 'वहशत' के अलावा कुछ नहीं था... कानून का शासन कानून से ही चलता है, कानून से ही चलना चाहिए, और उसे कोई भीड़ या संगठन न चला सकता है, और न उसे चलाने का अवसर व अधिकार दिया जाना चाहिए... अगर अखलाक को मारने वाली भीड़ सिर्फ एक खास रंग का झंडा लेकर चलने से खुद को कानून से ऊपर समझने लगती है, तो यह बेहद 'खतरनाक' संदेश है, जो देश के किसी भी नागरिक के पास नहीं पहुंचना चाहिए, क्योंकि इससे खौफ पैदा होता है, और वही 'असहिष्णुता' को भी जन्म देता है...

खैर, असलियत यह है कि बीजेपी की ऐसी छवि (कट्टर हिन्दूवादी या अल्पसंख्यक-विरोधी) किसी भी वजह से बनी, लेकिन बनी, और शनिवार को आए चुनाव परिणामों में सबसे अहम तथ्य यह है, जिस पर शायद ज़्यादा लोगों की नज़र नहीं गई... बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के जिन 325 विधायकों को जीत हासिल हुई है, उनमें से एक भी मुस्लिम नहीं है... यह देश के इतिहास में संभवतः पहला अवसर है, जब लगभग 18 फीसदी मुस्लिम आबादी रखने वाले उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने जा रही पार्टी के विधायकों में कोई भी मुस्लिम नहीं...

सो, अब वही 'खतरनाक' संदेश 'दहशतनाक' संदेश का रूप अख्तियार कर सकता है, क्योंकि अल्पसंख्यकों को तसल्ली देने, उनके मन से डर और दहशत को निकालने, और उन्हें साथ लेकर चलने की ज़िम्मेदारी भी जनता ने (जिनमें केंद्रीय नेतृत्व पर भरोसा करने वाले अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) उन्हें ही सौंप दी है, जो इस दहशत को पैदा करने के लिए बदनाम किए जाते रहे हैं... इस लिहाज़ से अब बीजेपी के पास न सिर्फ राज्य को बेहतर तरीके से चलाने की ज़िम्मेदारी आयद होती है, बल्कि यह ज़िम्मेदारी भी उसी की है कि उन पर भरोसा करने वाले, और भरोसा नहीं करने वाले मुस्लिम समाज समेत समूची जनता बेखौफ नई सरकार को अपनी सरकार मान सके, क्योंकि दादरी कांड और मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव सरकार को लापरवाही और ढिलाई का कसूरवार बताने का मौका बीजेपी के हाथ से जा चुका है... सो, अब बिल्ली के पास ही दूध की देखभाल का जिम्मा आ गया है, और मैं समझता हूं कि बिल्ली कभी नहीं चाहेगी कि उसे 'अमानत में खयानत' का दोषी करार दिया जाए...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

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