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This Article is From Oct 02, 2015

विराग गुप्ता : सोशल मीडिया - कितना सोशल, कितना मीडिया...

Written by Virag Gupta
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 02, 2015 15:24 pm IST
    • Published On अक्टूबर 02, 2015 15:20 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 02, 2015 15:24 pm IST
'डिजिटल इंडिया' के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बसे दादरी इलाके में 'आदमखोर' भीड़ द्वारा एक व्यक्ति को महज इसलिए पीट-पीटकर मार डाला गया, क्योंकि अफवाहों के अनुसार उसने गोमांस का सेवन किया था। तकनीकी विकास के युग में एक ओर जहां ब्रह्मांड में दूर स्थित ग्रह मंगल पर पानी की तलाश हो रही है, वहीं धरती पर सोशल मीडिया की तकनीक का गुमनाम भीड़ द्वारा अमंगलकारी कार्यों के लिए बहुतायत में प्रयोग हो रहा है।

उत्तर प्रदेश सहित देश के 13 राज्यों में गोवध पर प्रतिबंध है तथा संविधान के नीति-निर्धारक प्रावधानों के अनुसार गौ-सरंक्षण के उत्तरदायित्वों को पूरा करने में राज्य की विफलता पर प्रश्नचिह्न लग सकते हैं, परन्तु इन सबसे ऊपर संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों की जान-माल की सुरक्षा की सर्वोच्च जवाबदेही सरकार पर है, जिसके निर्वहन में राज्य तथा केंद्र सरकार पूर्णतया विफल रही हैं।

इस लोमहर्षक घटना के बाद सोशल मीडिया मे मुजफ्फरनगर की बातें दोहराई जा रही हैं, जहां 2013 के आम चुनाव के पहले हुए दंगों में 62 से अधिक लोगों की मौत हुई थी, और 50,000 से अधिक लोग बेघर हो गए थे। दंगों की जांच कर रहे जस्टिस सहाय आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राजनीतिक दलों की भूमिका पर गहरे सवाल खड़े करते हुए सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाए गए दुष्प्रचार तथा धार्मिक ध्रुवीकरण पर विस्तृत प्रकाश डाला है।

तत्कालीन आईजी (पुलिस) के अनुसार वॉट्सऐप पर गैंगरेप का दो वर्ष पुराना वीडियो पड़ोसी देश द्वारा प्रसारित किया गया था। दादरी की वर्तमान घटना के बाद पुनः यूपी के पुलिस महानिदेशक जगमोहन यादव ने सोशल मीडिया के माध्यम से हो रही अफवाहों को घटना हेतु जिम्मेदार बताया, परंतु प्रभावी कार्रवाई के बारे में सभी दल मौन हैं। मुजफ्फरनगर से आम चुनाव में चुनावी वैतरणी करने के बाद दादरी कांड से बिहार में चुनावी फसल काटने के लिए सियासी दलों में सोशल मीडिया के माध्यम से धार्मिक ध्रुवीकरण का मुकाबला तेज हो गया है।

सोशल मीडिया के पहले भी दंगे और अपराध होते रहे हैं, परन्तु मीडिया में गुमनामी से अपराधियों को पकड़ना मुश्किल होता है। सोशल मीडिया के माध्यम से जिहादी ताकतों द्वारा आईएस में नौजवानों को गुमराह करने के कई मामले सामने आए हैं। देश के अनेक भागों मे सामाजिक-धार्मिक विद्वेष फैलाने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व बेंगलुरू में उत्तर-पूर्व के नागरिकों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था, जिसके जिम्मेदार लोगों पर आज तक कार्रवाई नहीं हुई है। उत्तर प्रदेश के कानपुर, आगरा, कन्नौज, बहराइच एवं जालौन में सोशल मीडिया तथा वॉट्सऐप के माध्यम से अशांति फैलाने के अनेक मामलों में अखिलेश सरकार कार्रवाई करने में पूर्णत: विफल रही है।

सोशल मीडिया का मतलब सामाजिक जिम्मेदारी वाला जनसंचार माध्यम है, जिसके निर्वहन की विफलता से इस प्लेटफार्म का चरित्र सोशल नहीं रहा तथा मीडिया की जवाबदेही के कानूनी प्रावधानों का कभी पालन ही नहीं हुआ। देश में 12 करोड़ से अधिक फेसबुक, नौ करोड़ से अधिक वॉट्सऐप तथा तीन करोड़ से अधिक ट्विटर यूज़र हैं। सोशल मीडिया कंपनियां अमेरिका में सर्वर रखते हुए आयरलैंड की कंपनियों द्वारा भारत में बड़ा व्यापार करती हैं।

कंपनियों की अधिकृत रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया के कुल यूज़रों आठ से 10 फीसदी तक डुप्लीकेट और फर्जी हैं, जबकि इंडस्ट्री के अनुमान के अनुसार फर्जी यूज़रों का आंकड़ा 30 फीसदी तक हो सकता है। इन्हीं गुमनाम और फर्जी यूज़रों द्वारा डिजिटल वर्ल्ड में असहिष्णु, मजहबी और उन्मादी अफवाहें फैलाने का काम किया जाता है, जिसका रियल वर्ल्ड में राजनैतिक दल लाभ लेने का प्रयास करते हैं।

'मेक इन इंडिया' की बात करने वाली सरकार ने 'डिजिटल इंडिया' के नाम पर भारत के पूरे सूचना तंत्र को अमेरिकी कंपनियों के हवाले कर दिया है। इन कंपनियों द्वारा भारत में न ही कोई टैक्स दिया जा रहा है, न ही इनके कार्यालय यहाँ हैं... फलस्वरूप गुमनाम अपराधियों का विवरण पुलिस तथा खुफिया एजेंसियों को अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों से कभी मिल ही नहीं पाता। प्रिज़्म प्रोग्राम के तहत भारत के सामरिक सूचना तंत्र को अमेरिकी खुफिया एजेंसियों से साझा करने वाली ये सोशल मीडिया कंपनियां भारत में अपने सर्वर क्यों नहीं लगातीं, जो रोजगार सृजन के साथ-साथ सुरक्षित समाज का निर्माण भी कर सकें।

क्या 'डिजिटल इंडिया' को 'मेक इन इंडिया' से जोड़कर सरकार भारत को बचा पाएगी। सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश द्वारा कन्या भ्रूण हत्या रोकने हेतु गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, याहू द्वारा लिंग परीक्षण के विज्ञापन प्रसारित करने पर रोक लगाई गई है, परन्तु इंसानों की हत्या को उन्मादित करने वाले संचार पर नियंत्रण नहीं किया गया तो समाज तालिबानी हो जाएगा, और संविधान के प्रावधान तथा गांधी के सिद्धांत अप्रासंगिक हो जाएंगे...

- विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता, साइबर कानून विशेषज्ञ तथा लेखक हैं

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