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This Article is From Dec 06, 2016

जयललिता: अपवादों से भरा एक जीवन...

Vinod Verma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 06, 2016 16:45 pm IST
    • Published On दिसंबर 06, 2016 14:13 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 06, 2016 16:45 pm IST

राजनीतिज्ञों की सफलता के लिए कुछ घोषित और कुछ अघोषित से नियम क़ायदे होते हैं. अमूमन हर राजनेता इसका पालन करने की कोशिश करता है क्योंकि हर कोई सफल होना ही चाहता है. लेकिन तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता का पूरा राजनीतिक जीवन इन नियम क़ायदों के उलट दिखता है. बावजूद इसके किसी भी पैमाने पर वे असफल राजनीतिज्ञ नहीं कही जा सकतीं. यह उनके दृढ़ निश्चय और अनथक संघर्ष का परिचायक भी है और परिणाम भी.

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जयललिता के निधन से जुड़ी तमाम जानकारियां यहां पढ़ें
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वे कर्नाटक से थीं. लेकिन उनका कार्यक्षेत्र बना तमिलनाडु. हालांकि उन्होंने पैर फ़िल्मों के माध्यम से जमाए. न उनका रंग तमिलनाडु के लोगों से मेल खाता था और न रूप. एकदम गोरी-चिट्टी और सुदर्शना. एमजी रामचंद्रन (या एमजीआर) के निधन के बाद एकाएक लगा कि वे अब हाशिए पर चली जाएंगी लेकिन उन्होंने इसे ग़लत साबित किया. एआईएडीएमके मूल रूप से दलितों की राजनीति करने वाली पार्टी थी और जयललिता ब्राह्मण. लेकिन क्‍या यह कम चमत्कारिक है कि ब्राह्मण जयललिता ब्राह्मण विरोध से जन्मी एक पार्टी के शीर्ष पर पहुंचती हैं और  सर्व-स्वीकार्य-सर्वमान्य नेता बनी रहती हैं.

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अम्मा जिन्हें इन पत्रकार से मिलने में बिल्कुल खुशी नहीं हुई
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दो टूक अपनी बात कहने की पक्षधर रहीं
आमतौर पर कहा जाता है कि राजनेताओं को मृदुभाषी होना चाहिए. लेकिन जयललिता कटु लहजे मेंऔर दो टूक अपनी बात कहने की हामी रहीं. अक्खड़ होने की हद तक. जिस समय प्रमोद महाजन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चहेते हुआ करते थे, वो जयललिता ही थीं जिन्होंने कह दिया, 'हम किसी ऐरे-गैरे को जवाब नहीं देते'. ऐरे-गैरे के लिए उन्होंने अंग्रेज़ी में ‘टॉम डिक एंड हैरी’ का प्रयोग किया था. प्रमोद महाजन का तिलमिलाना और उनकी बेचारगी दोनों लोगों ने अपने आंखों से देखी.

 'लेकिन मुझे आपसे बात करके अच्छा नहीं लगा'
दो लोगों के बीच बातचीत में चाहे जो कड़वाहट आ जाए, आख़िर में यह कहना औपचारिक सा होता है कि ‘आपसे बात करके अच्छा लगा’. लेकिन जयललिता को यह औपचारिकता भी रास नहीं आती थी. बीबीसी के एक कार्यक्रम के लिए करण थापर जयललिता का इंटरव्यू कर रहे थे, सवालों से वे नाराज़ थीं. आख़िर में जब करण थापर ने कहा कि आपसे बात करके अच्छा लगा, तो जयललिता ने कहा, 'लेकिन मुझे आपसे बात करके अच्छा नहीं लगा'. कौन सा राजनेता ऐसा करता है? कुछ लोग नरेंद्र मोदी जी को याद कर सकते हैं जो टेढ़े सवालों पर संवाददाता को अपने हेलिकॉप्टर से उतार सकते हैं या किसी सवाल का जवाब देना बंद कर सकते हैं. लेकिन जयललिता फिर भी अपवाद बनी रहेंगी.

मीडिया के साथ इसी तरह का रिश्‍ता रहा
राजनीतिज्ञ अक्सर ‘बदले की राजनीति’ न करने की कसमें खाते देखे जाते हैं. लेकिन जयललिता में बदला कूट-कूट कर भरा हुआ था. बदला लेने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकती थीं. सरकार गिराने से लेकर अदालतों में घसीटने तक. यहां तक कि उन्होंने डीएमके के नेता करुणानिधि को भी घसीटकर जेल भिजवाने में गुरेज नहीं किया. लगभग यही रवैया उनका मीडिया के साथ भी रहा. न एक शब्द ज़्यादा बोलना, न अपने ख़िलाफ़ एक शब्द को बर्दाश्त करना.

तब तक किसी से नहीं मिलती थीं, जब तक खुद न चाहें
वे चाहतीं तो लोकप्रियता के लिए अपने व्यक्तित्व को एक सरल, मिलनसार और मृदुभाषी राजनेता के रूप में ढाल लेतीं. लेकिन किया उन्होंने एकदम उलट. वे हमेशा जटिल दिखती रहीं. ख़ासकर राजनीति में. विनोद मेहता ने अपनी किताब ‘द लखनऊ ब्वॉय’ में इसका ज़िक्र किया है कि कैसे जयललिता से मुलाक़ात से पहले अटल बिहारी वाजपेयी जैसा घुटा हुआ राजनेता भी प्रधानमंत्री होने के बावजूद परेशान दिख रहा था. वे किसी से तब तक नहीं मिलती थीं, जब तक ख़ुद न चाहें. अपने मंत्रियों तक से नहीं. उनकी पार्टी के टीवी चैनल के लिए काम कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि बड़े से बड़े मसले पर भी चर्चा तीन वाक्यों में ख़त्म हो जाती थी. और जब जब राज्य के हित की बात आई तो उन्होंने प्रधानमंत्रियों से सीधे टकराव को भी नहीं टाला. राज्य के हक़ की बात उन्होंने उठाई तो विनम्रता से नहीं पूरी हेकड़ी के साथ.

सीएम के रूप में एक रुपये तनख्‍वाह लेती रहीं लेकिन...
वे ग्लैमर की दुनिया से आई थीं. लेकिन राजनीति में उन्होंने सादगी को अपना लिया. न मेकअप, न गहने और न महंगे लिबास. यह और बात है कि जब भी जयललिता की चर्चा होगी तो उनके घर छापे में मिले सैकड़ों जोड़े जूते-चप्पलों और दूसरे महंगे सामानों की चर्चा ज़रूर होगी. वे मुख्यमंत्री के रूप में एक रुपये तनख़्वाह लेती रहीं लेकिन उन पर आय से अधिक संपत्ति का मुक़दमा चला. कुछ समय जेल में भी रहना पड़ा. हालांकि वे सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गईं लेकिन भ्रष्ट होने का आरोप उनसे चिपका रह गया. राजनीति में इतने गहरे धंसे होने के बावजूद उनके इर्दगिर्द ग़ैर-राजनीतिक लोग दिखते रहे.

गरीबों, असहाय, उपेक्षित लोगों की नेता बनीं
फ़िल्म अभिनेत्री से लेकर राजनीति तक उन्होंने अथाह संपन्नता देखी थी. लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में जो फ़ैसले लिए उसने उन्हें ग़रीबों, असहाय और उपेक्षित लोगों का नेता बना दिया. देवतुल्य अम्मा. इसके लिए उन्होंने मिक्सर ग्राइंडर से लेकर सिलाई मशीन, बकरी, बच्चों के लिए साइकिल तक, कुछ भी बांटने से गुरेज नहीं किया. अम्मा कैंटीन में मिलने वाला सस्ता भोजन हो या सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था, उन्होंने सुनिश्चित किया कि ग़रीबों को कोई परेशानी न हो. महिलाओं के लिए तो मानो वे एक ऐसी देवी बन गई  थीं जिनका अवतरण ही उद्धार के लिए हुआ हो. आज उनके निधन पर दहाड़े मार-मार कर रो रही महिलाएं कोई 'रुदालियां' नहीं हैं, वे सचमुच दर्द से भरी हुई हैं.

राजनेताओं से अपेक्षित विनम्रता उनमें क़तई नहीं थी. उनकी पार्टी का हर उम्र का नेता उनके क़दमों पर बिछकर अभिवादन करता रहा और उन्होंने इसे कभी रोका भी नहीं. शायद वर्चस्व क़ायम करने के लिए यह एक हथियार था जो बहुत कारगर रहा. विपक्षी कांग्रेस में चाटुकारिता को लेकर बहुत उदाहरण देते हैं लेकिन जयललिता के सामने सब उदाहरण फीके ही दिखते हैं. जयललिता शेष देश में राजनीतिज्ञों के लिए एक पहेली बनी रहेंगी क्योंकि अपवादों और उलटबांसियों का जीवन जीकर भी इतनी लोकप्रियता हासिल करना न किसी और के बूते का कभी था और न रहेगा...

विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं...

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