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This Article is From Jul 04, 2023

US सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से आती है अमेरिकी समाज में भीतर तक धंसे नस्लवाद की बू...

Keyoor Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 04, 2023 09:42 am IST
    • Published On जुलाई 04, 2023 08:59 am IST
    • Last Updated On जुलाई 04, 2023 09:42 am IST

अभी कुछ ही दिन पहले अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एक “विवादास्पद” निर्णय दिया गया है. इसके तहत उच्च शैक्षणिक संस्थानों जैसे हार्वर्ड, नार्थ कारिलोना आदि विश्विद्यालय में नस्लीय आधार पर मिलने वाले नामांकन में छूट को रद्द कर दिया गया. इसे अफर्मेटिव-एक्शन की नीतियों पर एक बड़े प्रहार की तरह देखा जा रहा है. वैसे तो अमेरिका में अफर्मेटिव-एक्शन के तत्व बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में भी मौजूद थे, लेकिन अपने आधुनिक स्वरूप में यह 1961 से व्यापक प्रचलन में आया. इस पर 1950-60 के सिविल लिबर्टी आन्दोलन का गहरा प्रभाव रहा. माना जाता है कि इस निर्णय से अश्वेत, हिस्पैनिक और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों का नामांकन प्रभावित होगा, और साथ ही यह कैंपस के भीतर नस्लीय विविधता को भी असंतुलित कर सकता है. 

आंकड़ों के अनुसार, दुनिया के करीब एक चौथाई देशों में अफर्मेटिव-एक्शन अलग-अलग नामों और रूपों से चलन में है- जैसे, आरक्षण, अल्टरनेटिव-एक्सेस, सकारात्मक-विभेद, कोम्पेंसेट्री-डिस्क्रिमिनेशन आदि. इन नीतियों का अंतिम उद्देश्य विभिन्न देशों में ऐतिहासिक या अन्य वजहों से वंचितों समूहों की समस्याओं को हल करना रहा है. कोई भी समुदाय अगर विकास के किन्ही मानक पर पीछे छूट गया है, तो उसे मुख्य समाज से जोड़ना ऐसी नीतियों की प्राथमिकता रही है, क्योंकि उसकी विपन्नता और पिछड़ेपन के पीछे राजकीय नीतियों और अन्य ऐतिहासिक कारकों की भूमिका अधिक होती है. ऐसे में इस तरह की नीतियां राज्य के लिए एक अनिवार्य कर्तव्‍य की तरह हैं, न कि इसके द्वारा दिया गया कोई स्वैच्छिक उपहार.

अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय ‘स्टूडेंट्स फॉर फेयर एड्मिसंस' संस्था के पक्ष में दिया गया. यह संगठन एडवर्ड ब्लूम के द्वारा बनाया गया एक समूह है, और यह साफ़ है कि एडवर्ड ब्लूम अफर्मेटिव-एक्शन से प्रेरित नीतियों का विरोध करनेवाले प्रमुख लोगों में से एक है. सामान्य दृष्टि में इस निर्णय में कोई बड़ी समस्या नहीं दिखती, लेकिन इसके वैश्विक परिणाम गंभीर हो सकते हैं. अमेरिकी समाज के द्वारा अफर्मेटिव-एक्शन के विरुद्ध यह स्वीकृति निश्चय ही दुनिया के अन्य देशों को अपने यहां नस्लीय या मजहबी आदि श्रेष्ठता के आधार पर भेदभाव करने को वैधता देगी. इसका हवाला देते हुए विभिन्न देशों में कमजोर और अल्पसंख्यक समुदायों के नागरिक और अन्य अधिकारों में कटौती की जा सकती है. ऐसे में पहले से ही मौजूद नस्लीय या असमावेशी राष्ट्रवाद को और बढ़ावा मिलेगा. अमेरिकी समाज दुनिया में एक मजबूत लोकतांत्रिक समाज के प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, ऐसे में न्यायालय के हालिया निर्णय को देखें, तो लगता है यह फिर से अपने पुराने नस्लवाद की तरफ लौटने की तैयारी कर रहा है.

अमेरिका दुनिया के उन देशों में से रहा है, जिसने अफर्मेटिव-एक्शन के महत्त्व को समझते हुए इसे अपनी नीतियों में जगह दी थी. अमेरिकी लोकतंत्र अपने इस वर्तमान स्वरूप को पाने से पूर्व अनगिनत सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल से गुजरा है. सिविल-लिबर्टी आन्दोलन सहित अनगिनत प्रयास किये गए, जिसने वहां नस्लीय भेदभाव से मुक्त एक दुनिया बसाने का सपना देखा. ऐसा बिल्कुल भी नहीं रहा कि अमेरिकी समाज ने अपने इस “लोकतंत्र” को रातों-रात पा लिया हो, या फिर इस देश में कोई सामाजिक विसंगति नहीं थी. भारतीय जाति व्यवस्था के वर्तमान दमनकारी स्वरूप की ही तरह यह भी नस्लीय संघर्षों से निकल कर आया है. अमेरिकी समाज में नस्ल के आधार पर शोषण इतना गहरा रहा है कि कई बार इसके लिए भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या की गई. और इस अर्थ में देखें तो इस समाज के लिए जाति कोई अप्रचलित शब्द नहीं रहा है.

19वीं सदी में प्रख्यात मानवविज्ञानी हर्बर्ट रिजले ने इसे अश्वेतों और अछूतों की स्थिति में समानता दिखाने के लिए किया था. हालांकि यह तुलना काफी विवादास्पद रही. समाजविज्ञानियों ने इसकी आलोचना की जो आज भी विवाद का विषय बना हुआ है. आज भी कुछ समाजविज्ञानी दोनों में समानता तलाशते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ ऐसी चिंतनधारा भी है जो दोनों की उत्पत्ति और स्वरूप को अलग-अलग मानते हैं. इसी तरह 19वीं सदी तक ‘बोस्टन-ब्राह्मण' एक प्रचलित फ्रेज था, जिसे हार्वर्ड आदि से प्रशिक्षित एलिट लोगों के लिए प्रयुक्त किया जाता था. लेकिन, तमाम भिन्नताओं के बावजूद जो एक बात समान है कि दोनों ही मनुष्यता के शोषण का एक बड़ा कारण रहा है. जैसे, जाति श्रेष्ठता के भाव ने एक विभेदीकृत समाज का निर्माण किया, उससे कहीं अधिक व्यापक स्तर पर नस्लीय श्रेष्ठता ने दुनिया में शोषण और अन्याय का एक काला इतिहास लिखा.

अमेरिका में सिविल-वार के बाद के कई दशकों तक कई ऐसे कानून थे, जिसने नस्लीय आधार पर भेदभाव को मान्य बनाया था, जिसमें ‘ब्लैक-कोड' और ‘जिम-क्रो-लॉज़' जैसे विधान महत्वपूर्ण माने जाते हैं. ‘ब्लैक-कोड' के तहत अश्वेतों को सफाई का कार्य छोड़कर अन्य कार्यों में प्रवेश करने से रोकने का प्रावधान था. इसी प्रकार ‘जिम-क्रो-लॉज़' के तहत अश्वेतों को मुख्य धारा के सार्वजनिक जीवन से दूर रखने का प्रयास किया गया था- स्कूल, चर्च, होटल्स, और ट्रांसपोर्ट सेवाओं में इन्हें श्वेत समाज से अलग रखा गया. ये प्रावधान दासता की तरह थे, जिसमें श्वेत-श्रेष्ठता का घनघोर अहंकार और प्रचंड हिंसा भरी हुई थी.
  
अफर्मेटिव-एक्शन के विरोधी लोग समान प्रतिस्पर्धा और मेरिट की बात करते हैं, जबकि यह भी एक सच्चाई है कि समानता से भरी दुनिया बनाने के लिए अक्सर असमानता की नीतियों का अनुशरण करना पड़ता है, क्योंकि व्याप्त विषमता के पीछे कहीं न कहीं से इतिहास, अर्थतंत्र और राजसत्ता की सामूहिक भूमिका होती है- जैसे, तीसरी दुनिया की अशिक्षा, गरीबी और अराजकता के पीछे निश्चित तौर पर पश्चिम की साम्राज्यवादी नीतियां जिम्मेदार रही हैं. इनकी नीतियों ने इन देशों को लगभग तबाह कर डाला. अनगिनत दस्तावेजों के अतिरिक्त अभी कुछ ही समय पहले जेसन हिकेल (2017) की एक किताब आई थी- ‘द डिवाइड: ए ब्रीफ गाइड टू ग्लोबल इनइक्वलिटी एंड इट्स सोलुसंस'. किताब दावा करती है कि कैसे तीसरी दुनिया की ऐतिहासिक लूटपाट पर अमेरिका समेत सम्पूर्ण पश्चिम की समृद्धि का उदय हुआ था. और इन सबके प्रेरक तत्व के बुनियाद में नस्लीय श्रेष्ठता भी थी. ऐसे में पश्चिमी देशों के लिए यह अनिवार्य दायित्व था कि वह पश्चिम में नस्लीय विविधता को प्रोत्साहित करें, ताकि अतीत में उसके किये गए पापों के लिए उन्हें माफ़ किया जा सके. लेकिन, दुर्भाग्य से न्यायालय के वर्तमान निर्णय से अमेरिकी समाज में भीतर तक धंसे नस्लवाद की बदबदाती महक आती है.     

(केयूर पाठक हैदराबाद के सीएसडी से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए हैं. इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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