एक ही विषय के अलग-अलग पक्षों को शब्दों में लिखना आसान था, मगर चित्रों और रेखा चित्रों में रचना मुश्किल- ख़ासकर इसलिए भी कि अपराजिता को अतीत से कुछ भी हासिल नहीं था. उन्हें एक किताब का व्यक्तित्व अपनी रेखाओं से गढ़ना था और इस काम में परंपरा उनकी कुछ खास मददगार नहीं थी. बेशक, इस किताब से कुछ पहले विक्रम नायक ने रवीश कुमार की चर्चित किताब 'इश्क में शहर होना' को अपने ढंग से सजाया था. इस श्रृंखला की दूसरी किताबों- गिरींद्रनाथ झा की 'इश्क में माटी सोना' और विनीत कुमार की 'इश्क कोई न्यूज़ नहीं' को भी, लेकिन यह बस शुरुआत थी जिसके अलग-अलग पहलू खुलने बाक़ी थे.
अपराजिता इस मायने में शायद कुछ घाटे में रहीं कि विक्रम नायक को सार्थक श्रृंखला की किताबों के कवर पृष्ठ पर ही जगह दी गई, जबकि अपराजिता शर्मा का नाम किताब के भीतरी पन्ने पर दर्ज होकर रह गया. यह असावधानी लेकिन उस संघर्ष का बहुत छोटा सा पक्ष है जो शब्दों के वर्चस्व वाली दुनिया में रेखाएं रचने वाले किसी कलाकार को करना पड़ता है. अपराजिता की दूसरी शिकायत पाठकों और आलोचकों से है. उनका कहना है कि इस पूरी किताब में जितनी शब्दों की जगह है, उससे कुछ कम ही चित्रों की, लेकिन लोगों ने चित्र देखे ही नहीं, या कम से कम इस ध्यान से नहीं देखे कि वे मानें कि चित्र भी कुछ कहते हैं. किताब की जितनी प्रशंसा या आलोचना हुई, वह नीलिमा चौहान के लिखे हुए की हुई, उन टिप्पणियों के साथ अपराजिता शर्मा के बनाए रेखांकनों की नहीं. जबकि ये रेखांकन उन टिप्पणियों का आस्वाद कुछ बढ़ाते ही हैं.
बहरहाल, अपराजिता शर्मा इन सारी चुनौतियों के पार भी जा रही हैं और नई चुनौतियां खोज भी रही हैं. इस साल के शुरू में उन्होंने अपने जीवनसाथी और कलाकार भास्कर के साथ मिलकर किताब के वाक्यों और अपने रेखांकनों को मिलाकर कैलेंडर बनाए. ये छोटे-छोटे कैलेंडर अपनी तरह से सुरुचिपूर्ण हैं. शायद अपराजिता ने इन्हें बिल्कुल अपने ख़र्च पर बनाया और वितरित किया. संभवतः इसके विक्रय की भी कोई व्यवस्था थी, लेकिन वह कितनी लाभकर हुई, इसकी कोई जानकारी इन पंक्तियों के लेखक के पास नहीं है. संभव है, यह कैलेंडर किसी एक किताब पर केंद्रित न होकर किसी ज़्यादा बड़ी थीम तक होता तो इसकी स्वीकार्यता कुछ अलग होती, लेकिन एक किताब के प्रचार के लिए अपनाया गया यह अनूठा तरीक़ा अलक्षित रह जाता. बहरहाल, अपराजिता शर्मा या उनकी तरह के कलाकार अक्सर अपनी प्राथमिक पहचान के बाद एक नई मुश्किल का सामना करते हैं. उनके पास तरह-तरह से चित्र बनाने की मांग चली आती है. किताबों के कवर से लेकर सेल्फ पोर्ट्रेट तक.
मांग करने वालों को लगता है कि कलाकार बस यों ही बैठा हुआ है और वह किसी के आदेश पर कुछ रेखाएं खींच कर जादू कर सकता है. दिलचस्प यह है कि इस मांग के साथ कोई भुगतान जुड़़ा नहीं होता. निस्संदेह कला या साहित्य का कोई व्यावसायिक मोल नहीं होता, लेकिन किसी लेखक या कलाकार से यह अपेक्षा कि वह मुफ़्त में काम करे, साहित्य-संस्कृति के प्रति हमारे नज़रिए को भी बताती है. बहरहाल, कला की यह बढ़ी हुई मांग कम से कम यह बताती है कि समाज में कलाकृतियों के प्रति अगर समझ नहीं तो दिलचस्पी तो बची ही हुई है. लोगों को चित्र अच्छे लगते हैं. वे अपनी किताब का अच्छा सा कवर चाहते हैं. वे अपनी एक सुंदर तस्वीर चाहते हैं. यह कामना यह भी बताती है कि कला का आकर्षण बचा हुआ है. यह आकर्षण किस बात का है? क्या कहीं इस एहसास का भी नहीं कि संवेदन का कोई संसार है जो शब्दों से छूटा रह जा रहा है? शब्द जिस विचार या संवेदना का वहन करते हैं, वह बहुत जटिल होता है, शब्दों की तर्कशीलता एक हद तक ही उसका संचार कर पाती है, हम बहुधा यह अनुभव करते हैं कि कुछ है जो अधूरा है, शायद जिसकी कुछ पूर्ति संगीत से हो सकती है, कुछ कला से और कुछ दूसरे माध्यमों से.
बौद्धिकता या संवेदना की दुनिया में कला का प्रवेश यहीं से होता है. लेकिन हमारे समय का संकट यह है कि विचार या संवेदना को हमने शब्दों तक सिकोड़ कर रख दिया है. बल्कि शब्दबाहुल्य इतना है कि अर्थ भी जैसे व्यर्थ होने लगे हैं. दूसरी विडंबना यह है कि शब्देतर माध्यमों के साथ हमारा बौद्धिक रिश्ता कमज़ोर पड़ा है. संगीत की तो एक विपुल-विराट परंपरा फिर भी गुरु-शिष्य और रसिक संवाद के बीच कुछ कायम है. हालांकि गिरावट की शिकायत वहां भी है, लेकिन कला की दुनिया में तो कम से कम हिंदी के स्तर पर सन्नाटा है. पहले हमारे पास अलग-अलग कलाओं की व्याख्या के लिए कुछ आलोचक हुआ करते थे जिनकी परंपरा की समझ और समकालीन कला संसार से पहचान भी अच्छी थी, लेकिन वह सिलसिला अब टूटा हुआ है और अब कला की समीक्षा या शिनाख्त के आलोचकीय औजार हमारे पास नहीं के बराबर हैं.
अपराजिता जैसी कलाकारों की मुश्किल यह भी है. उनके मूल्यांकन का कोई जरिया हमारे पास नहीं बचा है. कला की दुनिया के बारीक फ़र्क का एहसास भी हमारे पास नहीं है. हम ठीक से यह भी तय करने की स्थिति में नहीं हैं कि वे पेंटर हैं, आर्टिस्ट हैं, कार्टूनिस्ट हैं या इलस्ट्रेटर हैं. शब्दों का यह अभाव हिंदी की दुनिया में और बड़ा है. यह स्थिति इन कलाकारों के पास जो विकल्प छोड़ती है वह या तो बड़ी और अभिजात दीर्घाओं में कला प्रदर्शनियों का है जिनकी पहुंच बहुत छोटे तबके तक होती है या फिर अपनी कला को शौकिया मांग और पूर्ति में गर्क हो जाने देने का है. इन दिनों अपराजिता एक और रास्ता अपनाती दिख रही हैं- बेशक, जो कुछ कलाकारों ने पहले भी आज़माया है. वे समकालीन मुद्दों पर लगातार इलस्ट्रेशन बना रही हैं. इससे उनकी अपनी पहचान बनी भी है. कम से कम सोशल मीडिया में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अपराजिता की कला को एक झलक में पहचान सकते हैं. निस्संदेह कुछ और कलाकार इस सिलसिले को आगे बढ़ा रहे हैं. अनुप्रिया का नाम तत्काल ध्यान में आता है. लेकिन बहुत सारे कलाकार जैसे पत्रिकाओं के रेखांकनों तक महदूद होकर रह जा रहे हैं.
लेकिन इस सिलसिले का संकट यह है कि इसकी तात्कालिकता उस गहराई और प्रयोगशीलता को संभव नहीं होने देती, जिसके सहारे कोई कलाकार नए क्षितिजों का संधान करता है. एक स्वायत्त विधा के तौर पर अपने कला माध्यम के प्रति ईमानदारी किसी भी कलाकार को बेचैन करती है. उसे याद दिलाना पड़ता है कि उसकी कला का भी एक मोल है, कि वह पार्ट टाइम में किया जाने वाला वह शौकिया काम नहीं है, जिसमें किसी की पत्रिका में शब्दों से बची रहने वाली ख़ाली जगहों के रेखांकन बनाए जाएं या मित्रों के पोर्ट्रेट. अपराजिता यह समझाने की भी कोशिश कर रही हैं. हिंदी का बौद्धिक संसार यह समझ सके तो वह अपना भी भला करेगा और अपने साथी कलाकारों का भी.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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