अगर पूछा जाए कि पूरी दुनिया में विचरते हुए बिहारियों को कौन सी एक चीज बांधे रखती है? जवाब होगा- छठ. यह पर्व महज पर्व ही नहीं, बल्कि वह सांस्कृतिक धारा है जो बिहार को सदियों के संताप से मुक्त करती आ रही है. और कोई भी सांस्कृतिक धारा अपने शीर्ष तक नहीं पहुंचती जब तक उसमें संगीतमय प्रवाह नहीं हो, शारदा सिन्हा के रूप में यहां एक ऐसी गाथाई गायिका रही जिन्होंने अपने गीतों से छठ को पूरी दुनिया में लोकप्रिय बनाया. इनके गीतों ने छठ को वह संवेदनात्मक स्वर दिया जिसे अब तक न किसी ने दिया था और शायद कभी दिया जाएगा. अपने गायन से उन्होंने छठ को अनुभूति की उस सीमा तक पहुंचा दिया जहां से बस निर्मलता की धारा बहती है. इन छठ के गीतों को सुनते ही आदमी के भीतर का दुनियावी पक्ष मानों कुछ पलों के लिए ठहर जाता है. ये गीत दैविक प्रतीत होते हैं, और शायद इसलिए छठ महापर्व के बीच ही इन्होंने अपना देह त्याग किया है- यह सुखद संयोग है. कहा जा सकता है कि बिहार की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संरचना को बचाए रखने में या फिर रचने-गढ़ने में जो योगदान इन्होंने दिया वह अद्वितीय है. इनके गीतों ने बिहार को मनोवैज्ञानिक रूप से एकबद्ध किए रखा है. यह योगदान किसी भी कलाकार के लिए सबसे बड़ा योगदान है, और जो उसे कालजयी बनाती है.
बहुत सारे लोगों ने इन्हें “बिहार की लता मंगेशकर” की संज्ञा दी है. यह संज्ञा अन्यायपूर्ण है, शारदा सिन्हा का व्यक्तित्व इससे छोटा हो जाता है. लता मंगेशकर के गानों के अपने सरोकार हैं, और सिनेमा व संगीत प्रेमियों के बीच उनकी अपनी एक अलग लोकप्रियता है, लेकिन शारदा सिन्हा ने जिन सरोकारों के साथ गीतों को अपना स्वर दिया उसका महत्व बेमिसाल है. कई कारण हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि वह एक महज गायिका नहीं थीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं और सरोकारों की महान सरगम थीं. किसी अन्य कला की तरह गायन भी केवल मनोरंजन नहीं है, यह बहुत कुछ है. इसके सरोकार का दायरा उतना ही व्यापक है जितना किसी जिम्मेवार लेखक का, या राजनेता आदि का होना चाहिए- समाज को जोड़ना, स्मृतियों को सहेजना, संवेदनशीलता का निर्माण आदि- यह सब कला का अपेक्षित पक्ष है. और इन अर्थों में शारदा सिन्हा का हम मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि वे सच में भारत की एक रत्न थीं जिन्होंने एक बड़े जनमानस की छोटी सांस्कृतिक परम्पराओं को महान बनाने में बड़ी भूमिका निभाई.
शारदा सिन्हा के गीतों का कुछ सन्दर्भों में मूल्यांकन करने पर हम उनकी गायिकी के अनन्त आकाश को समझ सकते हैं. जैसे, मनोवैज्ञानिक एकजुटता, सामाजिक सांगठनिकता, विलुप्त परम्पराओं के संरक्षण, और प्रकृति संरक्षण के सन्दर्भ में:
मनोवैज्ञानिक एकजुटता: इनके गीतों में एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है जिसे सुनते ही दुनिया के किसी कोने में बैठा बिहार का व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से एकजुट हो जाता है. इसके लिए भौतिक उपस्थिति अनिवार्य नहीं रह जाती. वह भले ही अमेरिका या यूरोप के किसी जगह हो, लेकिन इनके गीतों से उसकी स्मृति में उसका अतीत लौट आता है. ये स्मृतियां उसके बचपन और यौवन की होती हैं जिसमें वह छठ, दीवाली, जैसे उत्सवों के साथ बड़ा हुआ होता है. शारदा सिन्हा के गीत अतीत को लौटाकर व्यक्ति को उसकी जड़ों की तरफ बहा ले आती है. उसने भले ही किसी अन्य देश की नागरिकता ले रखी हो लेकिन ये गीत उसे अहसास दिलाते हैं कि बिहार के किसी गांव में उसके अस्तित्व का अवशेष है.
सामाजिक सांगठनिकता: इनके गीत केवल मनोवैज्ञानिक आनंद के लिए नहीं हैं, जैसे कि आमतौर पर फिल्मी गीत होते हैं, बल्कि ये समाज और संस्कृति को जोड़े रखने के भी श्रोत हैं. जैसे, बिहार के पास छठ हैं जो यहां के लोगों के बीच मौजूद तमाम भिन्नताओं के बावजूद इसे एकबद्ध किए रहती है. इनके गीत लोक-संस्कृति के विभिन्न आयामों का स्पंदन है, और ये सांस्कृतिक चिन्हों और प्रतीकों का गायन करती है इससे समाज अपनी सांगठनिकता को एक हद तक बचाए रखता है. इन गीतों में नातेदारी और उनके बीच के हास-परिहास हैं, जन्म, मुंडन और विवाह जैसी संस्थाएं और परम्पराएं हैं.
विलुप्त होती परम्पराओं और सामाजिक संस्थाओं का संरक्षण: इन गीतों ने विलुप्त होती सांस्कृतिक परम्पराओं और संस्थाओं को अपने गीतों के द्वारा पुनर्जीवित किया है. उन्होंने केवल छठ ही नहीं, बल्कि कई अन्य त्योहारों और सामाजिक संस्थाओं से सम्बंधित गीतों को भी गाया था. इनमें श्यामा-चकेवा, विवाह, मुंडन, भैया-दूज जैसी अनगिनत परम्पराएं भी हैं. आज जब पुरानी ज्ञान परम्पराओं को बचाए रखने के लिए सरकारें काफी खर्च कर रही हैं, इसके बावजूद ये अपना अस्तित्व खोते जा रही हैं. ऐसे में शारदा सिन्हा ने महज गाकर उन परम्पराओं का सामाजिक मन में दस्तावेजीकरण कर दिया है. गायन के माध्यम से किए गए कार्यों में से यह महानतम है.
प्रकृति संरक्षण: यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने जो भी गाया है वह लोक-जीवन और संस्कृति का हिस्सा है. उनके गायन का नभ लोक से प्रस्फुटित है, इसलिए लोक-जीवन में सहज रूप में मौजूद प्रकृति संरक्षण की प्रेरणा भी इनके गीतों में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद है. इनके गीतों में “चिरैया” है, नदिया हैं, जंगल आदि जैसे अनगिनत प्रकृति के तत्व हैं.
आज शारदा सिन्हा की दैहिक उपस्थिति नहीं है, लेकिन हर साल वह हमारी स्मृति में आती रहेंगी- छठ में, भैया दूज में, श्यामा-चकेवा में, और न जाने अनगिनत कितने अवसरों पर वह हमारे बीच आकर गुनगुनाएंगी- “उगअ हे सूरज देव, अरग के बेर...”
केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं... अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं... इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.