हाल ही में देश ने एक विख्यात गायिका, पद्मभूषण शारदा सिन्हा को खो दिया. छठ महापर्व के दौरान उनके निधन से असंख्य लोग शोक में डूब गए. उनके जाते ही भावनाओं का सैलाब उमड़ा पड़ा, जैसे पूरा देश लोकगीतों और लोक-गायकों का कद्रदान हो. लेकिन क्या हमारा समाज लोकगीतों की बेशकीमती धरोहर को संजोने के लिए वाकई संवेदनशील है? थोड़ा ठहरकर विचार करते हैं.
शारदा सिन्हा के जाने से एक बड़ा शून्य पैदा हुआ है. लेकिन उन्होंने अनेक लोकगीतों को अपनी आवाज देकर गीत-संगीत जगत में जो उजाला फैलाया है, वह कई पीढ़ियों को रोशनी देने के लिए पर्याप्त है. शर्त्त बस इतनी-सी है कि इस उजाले के आगे हम अपनी आंखें कसकर बंद न करे लें! यकीनन, ऐसा कहे जाने के पीछे भी कुछ वजहें हैं.
भाषा बनाम बोली
अगर हम अपने घर और पास-पड़ोस की ओर नजर दौड़ाएं, तो यही पाएंगे कि लोगों के बीच उस भाषा की कद्र सबसे ज्यादा है, जो किसी न किसी तरह कामयाबी की कुर्सी दिलवाने में मददगार ठहरती हो. सीधे-सीधे कहें, तो वह भाषा है- अंग्रेजी. इस ग्लोबल लैंग्वेज को ठीक से जानने-सीखने, इसके माध्यम से ज्ञान हासिल करने और अंतत: एक मुकाम हासिल कर लेने में कोई समस्या नहीं है. दिक्कत तब पैदा होती है, जब अंग्रेजी को जरूरत से ज्यादा भाव दिए जाने की वजह से हिंदी या अपनी स्थानीय बोलियों से वास्ता कमजोर पड़ता जा रहा हो.
50 करोड़ से भी ज्यादा हिंदीभाषियों के देश में आज स्थिति ऐसी है कि बच्चे उनसठ, उनासी क्या समझेंगे, जब उन्हें पैंतीस और पैंतालीस का मतलब समझने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़ रहा हो. उन्हें सवा, पौन, पाव, पसेरी, मन का अर्थ कौन बताए, जब हम पहले ही मान बैठे हैं कि बच्चों के लिए यह जानना कतई जरूरी नहीं है. वे 'ग्लोबल लैंग्वेज' के जरिए अपनी राह खुद बना लेंगे.
लुप्त होते शब्द
लोकगीतों पर चर्चा के बीच भाषा और बोलियों की चर्चा अकारण नहीं है. देखिए कैसे. छठ हो या कोई अन्य तीज-त्योहार, जन्मदिन-छठी हो या शादी-विवाह, शारदा सिन्हा के गाए गीत हमें केवल इसलिए नहीं भाते हैं कि वे कर्णप्रिय हैं. वे गीत इसलिए भी हमारे जेहन में हमेशा के लिए घर कर जाते हैं, क्योंकि वे ज्यादातर उन बोलियों में रचे गए हैं, जिनसे किसी न किसी रूप में हमारा गहरा वास्ता रहा है. बोलियों से हमारा कनेक्शन होगा, तभी तो उन्हें सुनकर हृदय के तार झंकृत होंगे. अगर नहीं, तो सिर्फ ऑडियो-वीडियो चला देने की रस्म-अदायगी कब तक निबह पाएगी?
वे लोकगीत जब रचे गए होंगे, तब से लेकर अब तक कई शब्द स्थानीय बोलियों के बीच से भी लुप्त हो गए. हाल के कुछेक दशक में गांव-देहात की बोलियों के बीच अंग्रेजी के शब्दों की स्वीकार्यता (इसे घुसपैठ भी कह सकते हैं) तेजी से बढ़ी है. नतीजतन, कई सारे स्थानीय शब्द अंग्रेजी या खड़ी बोली के शब्दों से 'रिप्लेस' कर दिए गए. कहने का सीधा मतलब यह है कि स्थानीय बोली और इनके शब्दों के इस्तेमाल को बढ़ाए बिना इन्हें लुप्त होने से कैसे रोका जा सकेगा? और जब लोकगीतों में इस्तेमाल किए गए ज्यादातर शब्दों के अर्थ नहीं मालूम होंगे, तो लोग इनसे कब तक और किस तरह जुड़ाव महसूस कर पाएंगे?
लोकगीतों की प्रासंगिकता
लोकगीतों को लोकगीत कहते ही इसलिए हैं कि ये अपनी स्थानीय सुगंध, ताजगी और अनोखेपन के कारण लोकप्रिय होते हैं. ऐसे गीतों में सांस्कृतिक धरोहरों को संजोने की बेजोड़ क्षमता होती है. खासकर भारत जैसे विशाल देश में लोकगीत समाज की विविधता, परंपराओं, रीति-रिवाजों, मान्यताओं के बीच भावनाएं जताने का मजबूत जरिए रहे हैं. चाहे कोई भी संस्कार हो, सुख हो या दु:ख, हर अवसर के मुताबिक लोकगीत तैयार मिल जाते हैं. ऐसे में लोकगीतों की अहमियत और प्रासंगिकता पर कोई सवाल नहीं है.
सवाल तो यह है कि इन लोकगीतों को आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित पहुंचाना किस तरह मुमकिन हो सकेगा? इतना तो तय है कि ज्यादा से ज्यादा सभ्य दिखने की होड़ में अपनी ही बोलियों से दूरी बनाकर यह लक्ष्य पाना संभव नहीं है. अपनी स्थानीय बोली जानने-समझने वालों के बीच इन्हीं बोलियों में बात करना न तो कहीं से गलत है, न ही 'गंवार' होने की निशानी. हां, इनका संरक्षण न करने को सांस्कृतिक और भाषायी नजरिए से गुनाह जरूर माना जा सकता है.
भाषाओं का संसार
अगर सिर्फ अपने ही देश की कुल भाषाओं के आंकड़े पर नजर डालें, तो किसी को हैरानी हो सकती है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 122 प्रमुख भाषाएं और 544 अन्य भाषाएं मौजूद हैं. वैसे सिर्फ भारत ही नहीं, दुनियाभर की हर भाषा और बोलियों का संरक्षण जरूरी है. ठीक वैसे ही, जैसे धरती के लिए जैव विविधता की जरूरत बताई जाती है.
शारदा सिन्हा के गाए गीतों ने एक बहुत बड़े भौगोलिक क्षेत्र पर अपना गहरा असर डाला, इसकी एक बड़ी वजह तो यह रही कि उन्होंने कई भाषाओं और बोलियों के गीत गाए. इस तरह, हर कोई उन्हें अपना ही मानता रहा. मौजूदा और आने वाली पीढ़ी के गायक-संगीतकार-कलाकार उनके पदचिह्नों पर चलने को आतुर रहेंगे या नहीं, यह देखने वाली बात होगी.
श्लीलता-अश्लीलता का सवाल
लोकगीतों की चर्चा करते हुए अक्सर श्लीलता-अश्लीलता का सवाल भी उठता रहा है. सब जानते हैं कि बाजार में सिक्के का ही जोर चलता है. फिर भी, इस तथ्य को साबित करने की जरूरत नहीं है कि लोगों के दिलोदिमाग पर अमिट छाप वही छोड़ पाता है, जिसमें टिकाऊपन का ठोस तत्त्व मौजूद हो. अन्यथा, खर-पतवार तेजी से बढ़ते हैं और तेजी से ही मिट जाते हैं.
एक बहुत पुराना गीत है, 'बटोहिया'. इसे भोजपुरी के सुप्रसिद्ध कवि रघुवीर नारायण ने साल 1911 में रचा था. इसे भोजपुरी में रचा गया 'राष्ट्रगीत' तक कहा जाता है. एक समय इसकी गूंज देश की सीमाओं से आगे निकलकर मॉरिशस, त्रिनिदाद, फिजी, गुयाना जैसे देशों तक सुनाई पड़ती थी. शुरुआती लाइनें इस तरह हैं-
"सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्रान बसे हिम-खोह रे बटोहिया.
एक द्वार घेरे राम हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया..."
यह गीत आज ढेर सारे यूट्यूब चैनल पर मौजूद है, जिसमें कई नामचीन गायकों ने भी अपनी आवाज दी है. लेकिन यह जानकर किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि इस गीत को सारे चैनलों पर मिलाकर भी इतने व्यूज भी नहीं मिले हैं, जितने आज एक फूहड़ किस्म के गीत को आसानी से मिल जाया करते हैं. जाहिर है कि क्षेत्रीय बोलियों के लिए झुकाव और रुझान को सही दिशा में मोड़े जाने की दरकार है. शारदा सिन्हा का पूरा जीवन ही इस बात का प्रमाण है कि बाजारवाद से समझौता किए बिना भी बेहद शानदार पारी खेली जा सकती है. ऐसी पारी, जिसकी सदियों तक मिसाल दी जा सके.
सार रूप में यही कहा जा सकता है कि लोकगीतों को केवल मनोरंजन के नजरिए से देखना, इनके महत्त्व को कमतर आंकना है. ये गीत हमारी जड़ों, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को जीवित रखते हैं. अगर हम अपनी बोलियों को जीवंत बनाए रखना चाहते हैं, तो दिनभर में पांच-दस लाइनें मगही, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका, अवधी, बुंदेली, हरयाणवी, कुमाउंनी आदि में बतिया लेने में क्या हर्ज है?
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार