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ठाकरे बंधुओं का साथ आना : क्या अभी मुंबई की राजनीति में प्रासंगिक है मराठीवाद?

Jitendra Dixit
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 06, 2025 11:27 am IST
    • Published On जुलाई 06, 2025 11:27 am IST
    • Last Updated On जुलाई 06, 2025 11:27 am IST
ठाकरे बंधुओं का साथ आना : क्या अभी मुंबई की राजनीति में प्रासंगिक है मराठीवाद?

मराठी के मुद्दे को लेकर राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे अपनी 20 साल पुरानी अदावत भुलाकर फिर एक साथ आए हैं. शुक्रवार को मुंबई के वर्ली इलाके में एक आयोजन के दौरान मंच साझा करके ये संकेत दिया गया कि इन दोनों की करीबी आने वाले बीएमसी चुनाव के लिए एक राजनीतिक गठबंधन में भी तब्दील हो सकती है. दोनों नेताओं की तरफ से यह भी स्पष्ट किया गया की चुनाव मराठीवाद के मुद्दे पर लड़ा जाएगा. सवाल यह है की क्या अभी मराठीवाद का मुद्दा मुंबई के सियासी पटेल पर प्रासंगिक है? 

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साल 2005 में जब राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़कर अपनी अलग पार्टी यानी कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई तो अपनी सियासत को आगे बढ़ाने के लिए मराठीवाद का मुद्दा अपनाया. इस मुद्दे को उनके कार्यकर्ताओं ने जमीन पर उत्तर भारतीय राज्यों से आए लोगों को पीट कर अमल किया गया. यह कथानक चलाया गया की उत्तर भारतीय मराठी लोगों का रोजगार छीन रहे हैं. साल 2009 में जब पहली बार राज ठाकरे की पार्टी ने विधानसभा चुनाव लड़ा तो उसे 13 सीटें मिलीं लेकिन मराठी का मुद्दा आगे के चुनाव के लिए काम नहीं कर पाया. 2014 और 2019 के चुनाव में मनसे को सिर्फ एक एक सीट ही मिली और 2024 के चुनाव में तो एक भी सीट नहीं मिल पाई. 2012 के मुंबई महानगरपालिका चुनाव में भी मनसे अपना झंडा नहीं गाड़ पाई. 227 सीटों वाली मुंबई महानगरपालिका में मनसे के सिर्फ सात ही पार्षद चुने गए और बाद में वह भी अलग-अलग पार्टियों में चले गए.

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दरअसल मराठीवाद का मुद्दा अबसे कुछ दशक पहले तक मुंबई ठाणे और नवी मुंबई जैसे शहरों के लिए प्रासंगिक था लेकिन इन शहरों के अलावा बाकी महाराष्ट्र में जाति और धर्म आधारित राजनीति होते आई है. शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने यह बात 80 के दशक के मध्य में ही जान ली थी. इसलिए उन्होंने मराठीवाद से आगे बढ़कर पार्टी की विचारधारा के तौर पर हिंदुत्व को अपना लिया था.

हिंदुत्ववाद अपनाने के बाद ही शिवसेना का विस्तार महाराष्ट्र के बाकी इलाकों में भी हुआ. हिंदी भाषाओं को करीब लाने के लिए 1993 में बाल ठाकरे ने अपने अखबार सामना का हिंदी संस्करण भी शुरू किया और 1996 में एक उत्तर भारतीय महासम्मेलन का भी आयोजन मुंबई में किया गया.


अगर आंकड़ों पर गौर करें तो नजर आता है कि मराठीवाद की राजनीति करने वाली मनसे का वोट प्रतिशत लगातार गिरा है. 2009 में जब मनुष्य ने पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था तब उसे 5.7 फ़ीसदी वोट मिले थे. 2024 के पिछले चुनाव में ये आंकड़ा घटकर 1.6 फ़ीसदी का हो गया. दूसरी तरफ शिवसेना को 2009 में 16.3 फ़ीसदी वोट मिले थे जो कि 2024 में घटकर 10 फ़ीसदी रह गए. यहां इस बात का ध्यान रखा जाना जरूरी है की जून 2022 में शिवसेना दो फाड़ हो गई। 10 फ़ीसदी का आंकड़ा उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना का है. 

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मुंबई महानगर पालिका में भी मराठीवाद का मुद्दा मनसे के लिए काम नहीं आ सका. 2012 में भले ही मनसे ने 227 में से 28 सीटें जीत ली हो लेकिन 2017 में हुए आखिरी चुनाव में उसे महज 7 सीटें ही मिल पाई. उसके यह सातों पार्षद भी बाद में दल बदल करके अलग-अलग पार्टियों में चले गए. दूसरी तरफ शिवसेना को 2012 में 75 सीटें मिलीं जो 2017 में बढ़कर 84 हो गई. यहां गौरतलब है कि बीजेपी और शिवसेना ने पहली बार गठबंधन से बाहर होकर अलग-अलग चुनाव लड़ा था.

2011 की जनगणना के मुताबिक मुंबई में हिंदी भाषी बोलने वालों की आबादी करीब 36 लाख लोगों की है. गुजराती बोलने वाले करीब 14 लाख हैं जबकि उर्दू बोलने वाले करीब साढे 14 लाख है. इनके मुकाबले मराठी बोलने वालों की संख्या करीब 45 लाख है। इन आंकड़ों का मतलब यह है कि मुंबई में मराठीभाषिकों से कई गुना ज्यादा गैर मराठी लोग रहते हैं.

मौजूदा बीएमसी के चुनाव पिछले बीएमसी के चुनाव की तुलना में इसलिए अलग होंगे क्योंकि भाजपा पहले से काफी मजबूत हुई है, शिवसेना दो हिस्सों में बंट गई है और कांग्रेस फिलहाल सबसे कमजोर स्थिति में है. इसके अलावा एक तरफ जहां सत्ताधारी महायुती गठबंधन के घटक दल साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले हैं तो इन दूसरी तरफ महा विकास आघाड़ी के घटक दल अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे.

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