सुप्रीम कोर्ट ने दो ऐसे फैसले दिए हैं, जिनसे भारतीय समाज में महिलाओं की गरिमा और अलग पहचान को ठोस जगह मिलती है। पिछले दिनों एक मामले को सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रेप के मामलों में दोषी से समझौता एक बहुत बड़ी ग़लती होगी। इसके कुछ ही दिन पहले मद्रास हाई कोर्ट ने एक महिला को दोषी से समझौता करने को कहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में आरोपी या दोषी के लिए नरम रवैया पूरी तरह कानून के खि़लाफ है और आरोपी की तरफ से पीड़ित से शादी करने की पेशकश असल में दबाव बनाने की कोशिश है। किसी महिला की गरिमा से समझौता नहीं किया जा सकता- ये उसके होने (existence) का हिस्सा है।
असल में रेप के मामले में अब भी महिलाओं पर उंगली उठती है। उन्हें उस जघन्य अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की जाती है। कभी पूछा जाता है कि रात के वक्त बाहर क्यों गई थीं। या ऐसे कपड़े क्यों पहने थे। रेप को पीडि़त को ही कलंक बनाने की कोशिश की जाती है। समाज का यही प्रतिबिंब कई बार अदालतों के फैसले में भी देखने को मिला, जब आरोपियों को इसलिए रिहा कर दिया गया, क्योंकि वो पीड़िता से शादी करने को तैयार हो गए।
लगता था कि इस एक हादसे के बाद पीड़िता के लिए समाज में इज्जत से जीने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं। लेकिन वक्त काफी हद तक बदला है। मद्रास हाईकोर्ट ने जिस पीड़िता को समझौते का आदेश दिया उसने समझौते से साफ इंकार किया। कहा, ये आदेश उसके साथ अन्याय है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश न्याय को, एक महिला के न्याय के अधिकार को, उसकी गरिमा को आज वैसे ही देख रहा है जैसे किसी भी दूसरे नागरिक के अधिकारों को। महिला अब आधा इंसान नहीं रही, आधी नागरिक नहीं रही। ये एक बड़ा बदलाव है। उनका समाज में बराबरी की तरफ एक बड़ा कदम है।
सुप्रीम कोर्ट का दूसरा आदेश ग़ैर शादीशुदा महिला के अपने बच्चे के गार्डियनशिप अधिकार पर है। अदालत ने साफ कहा है कि अपने बच्चे के अभिभावक होने के लिए उसे बच्चे के पिता से इजाज़त लेने की कोई ज़रूरत नहीं। पासपोर्ट के लिए तो सिर्फ मां के दस्तख़त काफी थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अब उन महलाओं को भी पूरा अधिकार दे दिया है, जिन्हें अदालतों के चक्कर सिर्फ इसलिए काटने पड़ते थे, क्योंकि पिता की इजाज़त लेनी है अपने ही बच्चे के लालन पालन के लिए, उसकी ज़रूरतों के लिए जिसमें पिता कोई हाथ भी नहीं बंटा रहा।
अब तक हिंदू मैरिज एंड गार्डियनशिप एक्ट के तहत पिता की इजाज़त ज़रूरी थी। कहीं ना कहीं इससे ये लगता रहा कि मां चाहे हर ज़िम्मेदारी निभाए, लेकिन पिता की तरह पूरी अभिभावक नहीं हो सकती। अब अदालत ने अपने फैसले से ये अधिकार महिलाओं को दे दिया है। य़े फैसला इसलिए भी बड़ा है क्योंकि मामले एक बिन ब्याही मां का है जो पिता को किसी भी तरह अपने बच्चे की ज़िंदगी में शामिल नहीं करना चाहती। वक्त के साथ-साथ बदलते इन फैसलों से महिला सशक्तिकरण को ठोस ज़मीन मिल रही है।
This Article is From Jul 06, 2015
समाज में महिलाओं की गरिमा और अलग पहचान को 'ठोस जगह' देते सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले
Kadambini Sharma
- Blogs,
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Updated:जुलाई 06, 2015 17:20 pm IST
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Published On जुलाई 06, 2015 16:33 pm IST
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Last Updated On जुलाई 06, 2015 17:20 pm IST
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