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ट्रेन टु बिहार: हम कब अपनी मिट्टी में राजा बनेंगे? छठ पर घर लौटते बिहार का दर्द

Ranjan Rituraj
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 22, 2025 14:07 pm IST
    • Published On अक्टूबर 22, 2025 14:06 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 22, 2025 14:07 pm IST
ट्रेन टु बिहार: हम कब अपनी मिट्टी में राजा बनेंगे? छठ पर घर लौटते बिहार का दर्द

प्रवासी बिहारी अपने दफ्तर , घर , फैक्ट्री इत्यादि में दीपावली को मनाकर आस्था के महापर्व छठ  व्रत मनाने घर को लौटना शुरू कर दिए . बिहार लौट रहे हैं , छपरा लौट रहे हैं , मिथिला लौट रहे हैं , मुजफ्फरपुर लौट रहे हैं , गया लौट रहे हैं. 

जो जहां हैं, वहीं से घर लौट रहा है. किसी की बड़की माई छठ कर रही है तो किसी की माई छठ कर रही है. माई को अरग देना है.  इसी भाव में बिहारी घर लौट रहे हैं. किसी को प्रमोशन का मन्नत है तो किसी का सूरत में जमीन खरीदने का मन्नत है. 

क्या जिंदगी है , हम बिहारियों की. पलायन नियति है तो राजनेताओं की इस विषय पर चुप्पी भी नियति है. इसी नियति में हमें दो वक्त की रोटी के लिए अपनी जमीन, अपनी मिट्टी, अपनी आबोहवा से उठा कर कहां फेंक देता है, यह स्वयं की आत्मा और नसीब को पता है. 

क्या अमीर और क्या गरीब. क्या मंत्री और क्या संतरी. क्या कलेक्टर और क्या चपरासी. क्या पांडेय जी तो क्या राम जी. 

कौन ऐसा परिवार है जिसका एक सदस्य बिहार के बाहर नहीं कमाने गया हो. और किसे वापस अपने घर लौटने का दिल नहीं करता है. 

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पेट दिल से भारी है और परिस्थिति सब पर भारी है. क्या वो 12 हजार ट्रेन वापस नहीं लौटेगी? लौटेगी वो 12 हजार ट्रेन. जैसे वो हमे सूरत, नोएडा, बॉम्बे, बंगलौर, जालंधर, लुधियाना इत्यादि से ढो कर बिहार लाई, वैसे ही ये ट्रेने हमें वापस सूरत, नोएडा, बॉम्बे, जालंधर, लुधियाना इत्यादि पटक देंगी. 

मुगल आए, अंग्रेज आए और अब लोकतंत्र आया लेकिन हम बिहारी बस पलायन को ही नियति मानते आए. समस्त मॉरीशस भोजपुरी बोलता है. वो जो हमारे पूर्वज वहां गए, मुगल और अंग्रेज की तरह शासन को थोड़े न गए होंगे. मजदूर बन के गए और वहां की मिट्टी ने उनको राजा बना दिया. 

हम कब अपनी मिट्टी में राजा बनेंगे? एक झोला उठा कर ट्रेन पकड़ते वक्त यूट्यूब पर गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंखें नम नहीं होती हैं? ट्रेन की खिड़की से झांककर अपनी मिट्टी छूटती नज़र नहीं आती है? 

पलायन का क्या कष्ट होता है? कितना भी पढ़ लिख के हाकिम बन जाओ, नई मिट्टी कब हमे स्वीकार करती है. एक पीढ़ी स्वाहा हो जाता है तब दूसरी पीढ़ी नई मिट्टी में पनप पाती है लेकिन वो जो पीढ़ी ख़ुद को स्वाहा करती है, उसको पल पल, तिल तिल जलते कब कहां कोई देख पाता है? 

पेट सब पर भारी है और नियति में पलायन है. छठ, होली, ईद घर आना है और फिर जिस ट्रेन से आए थे , उसी ट्रेन से लौट भी जाना है. 

हां, इस बार वोट भी है. गांव घर का लोग जिसे कहेगा उसी को देंगे. छठ बाद थोड़े दिन और रुक जायेंगे. 

लेकिन नियति को कौन रोक पाया है?

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