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This Article is From Aug 26, 2014

तिब्बत डायरी : तिब्बत में ढाई घंटे का फेर!

Umashankar Singh
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 16:06 pm IST
    • Published On अगस्त 26, 2014 17:22 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 16:06 pm IST

तिब्बत का ये दौरा मेरे लिए जहां बिल्कुल नए अनुभवों वाला है, वहीं दिनचर्या को उलट पुलट कर देने वाला भी। तिब्बत और भारत के समय में ढाई घंटे का अंतर है। यानि भारतीय घड़ी तिब्बत से ढाई घंटे पीछे है। तिब्बत में जब सुबह के सात बजते हैं, उस समय भारत में सुबह के साढ़े चार ही बज रहे होते हैं। पूरा चीन भी इसी टाइम ज़ोन में आता है। ये अंतर हालांकि बहुत ज़्यादा नहीं है, लेकिन इससे मेरी पूरी की पूरी दिनचर्या ही बदल गई है। किसी गफलत से बचने के लिए मैंने कलाई घड़ी में भारतीय समय ही सेट रखा है और मोबाइल फोन में तिब्बती समय। लेकिन हर घड़ी दो घड़ी देखते रहने से दिनचर्या का तनाव ख़त्म नहीं होता।

तिब्बत में अमूमन लोग रात का खाना शाम सात बजे के आसपास खा लेते हैं। मुझे भी इसी समय खाना पड़ता है। तो समझिए कि जब भारत शाम के साढ़े चार बज रहे होते हैं तो मैं रात का खाना खा रहा होता हूं। स्थानीय समय के हिसाब से नौ बजे के आसपास बिस्तर पर चले जाते हैं। अब हम भारतीयों को शाम साढ़े छह बजे कहां नींद आने वाली! भारत में हम बहुत जल्दी भी करें तो साढ़े दस- ग्यारह बजे के पहले सोते नहीं। तो इसका मतलब ये हुआ कि तिब्बत में मुझे नींद की ख़ुमारी तब आती है, जब यहां रात के एक-डेढ़ बज रहे हों। इस बीच कुछ लिखते या पढ़ते रहने की कोशिश के बीच भी दिमाग़ में ये तनाव रहता है कि सुबह जिल्द उठना है, ताकि तयशुदा कार्यक्रम में हिस्सा ले सकूं। दुविधा में रात कट जाती है। नींद पूरी नहीं हो पाती।

एक समस्या और होती है। अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण रात में कभी कभी सांस लेने में दिक़्क़त होती है। यहां हवा में ऑक्सीजन की मात्रा पतली है। हालांकि ल्हासा पहुंचते ही हमें ऑक्सीजन कैन दिया गया, जो कि साइज़ में किसी बड़े डियो स्प्रे की तरह का है। ये ऐहतियातन दिया गया ताकि ज़्यादा दिक़्क़त की हालत में ऑक्सीजन का तुरंत इस्तेमाल किया जा सके। ऊपर वाले की दुआ से इसके इस्तेमाल की नौबत नहीं आई। हां इसे नाक पर लगा कर एक पीटीसी ज़रूर किया। :)

समय के अंतर का सबसे बड़ा अनुभव 25 अगस्त की सुबह हुई जब हमें स्थानीय समय के हिसाब से सुबह साढ़े पांच बजे ड्रुपंग मॉनेस्ट्री के लिए निकलना था। ड्रुपंग मॉनेस्ट्री दुनिया की सबसे बड़ी मॉनेस्ट्री है और यहां तिब्बत का सबसे बड़ा त्योहार शॉटन बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। ये एक तरह ये भारत के कुंभ मेले जैसा है। चार दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में लाखों श्रद्धालु और सैलानी हिस्सा लेते हैं। ल्हासा की एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित होने के कारण और लाखों लोगों श्रध्दालुओं की वजह से ड्रुपंग मॉनेस्ट्री तक पहुंचने के लिए उन्हें 2 से 3 घंटे पैदल चलना होता है।

हमारे साथ सुविधा ये थी कि हम सीधे अपनी गाड़ी में ऊपर तक जा सकते थे। इसलिए सुबह साढ़े पांच बजे निकलना था। नहीं तो आधी रात को ही निकलना पड़ता। ख़ैर मैं डेढ़ बजे रात को सोया ही था और सुबह साढ़े चार बजे उठना पड़ा। तैयार हो कर साढ़े पांच बजे हम सभी बस में थे। ड्रुपंग मॉनेस्ट्री में हम क़रीब तीन घंटे रहे। सुबह साढ़े पांच बजे हमें ब्रेकफ़ास्ट दिया गया था, लेकिन सोचिए रात के तीन में हम नाश्ता करते हैं क्या! ग़नीमत ये है कि दोपहर 12 बजे खाने का वक़्त हो जाता है (भारतीय समयानुसार साढ़े नौ बजे) और इस तरह नाश्ते के समय मैंने खाना खाकर पेट भरा।

हर बीतते दिन के साथ समय के इस अंतर को शरीर और दिमाग़ पाटता जा रहा है। लेकिन क्या फ़ायदा। अब तो लौटने के दिन आ गए हैं। चलिए आपसे लौट कर मिलते हैं।

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