कल यानी गुरुवार को नोटबंदी की दूसरी बरसी थी. विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के हादसे को याद दिलाया. उन्होंने बताया कि देश की अर्थव्यवस्था को चैपट करने में नोटबंदी की क्या और कितनी भूमिका रही. पूर्व प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि नोटबंदी के मारक घातक असर को देश आज भी भुगत रहा है. जवाब में मोदी सरकार की तरफ से मौजूदा वित्तमंत्री ने नोटबंदी के फायदों को नए सिरे से बताया. उन्होंने यह भुलाने की कोशिश की कि नोटबंदी करते समय क्या लक्ष्य बताए गए थे. इसकी जगह अब उन्होंने नोटबंदी को आर्थिक सुधार का एक कदम बताने की कोशिश की. बहरहाल, नोटबंदी के दो साल बाद भी नोटबंदी सरकार का पिंड नहीं छोड़ रही है.
पिछले साल पहली बरसी तक ज्यादा उजागर नहीं था
पिछले साल तक सरकार ने नोटबंदी के आंकड़े छुपाकर ही रखे थे. पिछले साल नोटबंदी का एक साल पूरा होने पर देश में विपक्ष के नेताओं ने काला दिवस मनाया था और जनता को नोटबंदी की नाकामी की तस्वीर दिखाई थी. याद दिलाने के लिए दुबारा क्यों लिखना, पिछले साल इसी स्तंभ में एक आलेख लिखा गया था कि पिंड नहीं छूट रहा नोटबंदी कांड से. इसी बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि नोटबंदी की पूरी सच्चाई दो साल बाद भी सामने नहीं आई है. उधर पूर्व वित्तमंत्री ने देश के राजकोषीय घाटे को लेकर आगाह किया है. उन्होंने कहा है कि सरकार चुनावी साल में ज्यादा से ज्यादा खर्च करने के लिए रिज़र्व बैंक के आरक्षित कोष से पैसा पाने के लिए उसपर बेजा दबाव बना रही है. इस तरह से उन्होंने देश की चिंताजनक अर्थव्यवस्था को लेकर आगाह किया है.
नोटबंदी के ऐलानिया मकसद को भुलाने की कोशिश करनी पड़ी थी
नोटबंदी से मचे हाहाकार के बाद नोटबंदी के नफे नुकसान को लेकर आमलोगों के बीच जल्द ही चर्चा शुरू हो गई थी. दो महीने के भीतर ही पता चल गया था कि सोचा गया फायदा नहीं हुआ. तहलका तब मचने लगा था जब पता चला कि जितने पुराने नोट चलन में हैं वे सारे के सारे बैंकों में जमा होते जा रहे हैं. जबकि सोचा यह गया था कि हजार पांच सौ के रूप में लाखों करोड़ का कालाधन रद्दी के टुकड़े बनकर नष्ट हो जाएगा. और ऐसे जितने नोट बैंकों में जमा नहीं होंगे उतनी रकम के नोट सरकार छाप लेगी. ख्वाब यह था कि इस रकम को कालेधन की जब्ती समझा जाएगा. वैसा हुआ नहीं. सारे नोट बाकायदा वापस आ गए. नोटबंदी की नाकामी साबित होने के लिए यह तथ्य काफी से ज़्यादा था. उस समय इस बारे में इसी स्तंभ में एक आलेख लिखा गया था जिसमें नोटबंदी को महज़ एक हवन की संज्ञा दी गई थी. बहरहाल नोटबंदी के शुरू के तीन महीनों में ही सिद्ध हो चुका था कि नोटबंदी अपने मुख्य मकसद यानी लाखों करोड़ के बहुप्रचारित और अदृश्य कालेधन को पकड़ने में बुरी तरह नाकाम हो चुकी है. कालेधन से जुड़े नोटबंदी के दूसरे दो और मकसद भी नाकाम दिखने लगे थे. आज नोटबंदी के कामयाबी के तौर पर बताया जा रहा है वह कैशलैस रूपी नया मकसद है. लेकिन यह मकसद नोटबंदी के समय बताए गए मकसद में शामिल नहीं था.
मकसद की सूची में कब जुड़ा कैशलैस
जब पता चला कि जितने पुराने नोट चलन में थे वे सारे के सारे बैंकों में वापस आकर नए नोटों में तब्दील हो रहे हैं तो यह रपट पड़ने जैसी हालत थी. उसी समय रपट पड़े तो हर हर गंगे की तरह कैशलैस कहना शुरू हुआ था. दरअसल जब लोगों के पास नगदी थी ही नहीं तो रोजमर्रा के कामकाज के लिए डिजिटल पेमेंट के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था. इसी बेचारगी की हालत को कैशलैस के नाम से महामंडित किया जाना शुरू हुआ. यह मकसद नोटबंदी के ऐलान के समय नोटबंदी के मकसद की सूची में शामिल नहीं था. लेकिन बाद में पता चला कि तीन महीने तक नगदी की भारी किल्लत के कारण आम लोगों में यह प्रवृत्ति पनप गई कि अफेदफे के लिए ज्यादा से ज्यादा नगदी अपने घर पर रखने लगे. दो साल बाद भी इस प्रवृत्ति का असर बाकी है. अभी कोई शोध अध्ययन उपलब्ध नहीं है लेकिन इस बात को सामान्य अनुभव से जान सकते हैं. मसलन इसी हफ़्ते स्टेट बैंक को फरमान जारी करना पड़ा है कि एटीएम से अब चालीस की बजाए सिर्फ बीस हजार रुपए ही निकाले जा सकते हैं. नोटबंदी के दो साल बाद भी अगर बैंक के खाताधारकों पर इस तरह की पाबंदी लगानी पड़ रही है तो बैंकिंग व्यवस्था पर नगदी के दबाव की बातें क्यों नहीं उठेंगी.
नोटबंदी से नफे नुकसान का औपचारिक आकलन आज तक नहीं
वित्तमंत्री नोटबंदी के जो नफे बता रहे हैं वे इस तरह के हैं कि उनकी नापतोल नहीं हो सकती. मसलन अर्थव्यवस्था में सुधार. अर्थव्यवस्था में सुधार जीडीपी के आंकड़े से पता चलता है. जब नोटबंदी हुई थी उसके बाद की तिमाहियों में देश में उत्पादन के आंकड़े नीचे बैठ गए थे. इस पर कहा गया था कि नोटबंदी का अच्छा असर आगे दिखेगा. लेकिन अगले साल भी वैसा नहीं हुआ. तभी एक आलेख में लिखा गया था कि नोटबंदी को कितना ढक पाएगा जीडीपी का आंकड़ा, देखें लिंक. खैर आज दो साल बाद का आलम यह है कि सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तनातनी की खबरें हैं. सरकार चाह रही है कि रिजर्व बैंक अपने रिजर्व में रखी रकम भी सरकार को दे दे. देश के बैंकों के पास पैसे का टोटा पड़ गया है. क्योंकि उनके दिए कर्ज डूब गए हैं और बैंकों को आगे के कामकाज में दिक्कत आने लगी है. वैसे विद्वान लोग हिसाब लगाकर बता रहे हैं कि नोटबंदी ने जीडीपी के आंकड़े को कम से कम एक फीसद की चोट पहुंचाई. इसके अलावा नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र के कामधंधों में जो तबाही मचाई थी उसकी भरपाई भी आज तक नहीं हो पाई. हालांकि अभी तक कोई भी अध्ययन उपलब्ध नहीं है कि इस समय जो भयावह बेरोज़गारी दिख रही है उसमें नोटबंदी की कितनी भूमिका है.
नोटबंदी की समीक्षा का सबसे बड़ा आधार
इसके अलावा और क्या आधार हो सकता है कि नोटबंदी के जो लक्ष्य बताए गए थे उन्हें देखा जाए. यानी नोटबंदी के समय जो लक्ष्य बताए गए थे वे कितने हासिल हुए. कालाधन, जाली नोट और आतंकवाद और उग्रवाद पर चोट एलानिया मकसद थे. लेकिन नोटबंदी से कालाधन पकड़ में आया नहीं. और अगर वाकई कालाधन वजूद में था तो नोटबंदी से सफेद में तब्दील हो गया. जाली नोट उतनी मात्रा में पकड़े नहीं गए बल्कि सनसनीखेज तौर पर पता यह चल रहा है कि नकली नोट और ज्यादा छपकर आ गए. यानी नोटबंदी के समय जो बढ़चढ़कर प्रचार किया गया था कि नए नोट की नकल नहीं हो पाएगी वह दावा भी गलत साबित हो रहा है. उधर आतंकवाद और उग्रवाद लगभग जहां के तहां हैं. ऊपर से नगदी के रूप में कालेधन होने का रहस्यमयी राजनीतिक मुद्दा भी सरकार के हाथ से जाता रहा.
टैक्स वसूली भी ऐलानिया मकसद में शामिल नहीं था
वित्तमंत्री नोटबंदी का एक नया फायदा सरकारी खजाने में ज्यादा टैक्स जमा होने को बता रहे हैं. यह मकसद भी नोटबंदी के ऐलान के समय लक्ष्यों में शामिल नहीं था. वैसे इनकम टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या बढ़ना एक बात है और ज्यादा टैक्स जमा होना बिल्कुल दूसरी बात है. यह पता चलना अभी बाकी है कि नोटबंदी के कारण देश में कर संग्रह पर कितना असर पड़ा. अगर कोई प्रभावी असर पड़ा होता तो इस बार पेश किए गए बजट में वह दिखता. हो सकता है कि अगले बजट में दिखाई दे. और अगर कर संग्रह दिखाया भी जा सका तो यह भी दिखाना पड़ेगा कि नोटबंदी पर कितने हजार करोड़ या कितने लाख करोड़ का खर्चा बैठा. वैसे मौजूदा सरकार का कार्यकाल खत्म होने को है सो कम से कम मौजूदा सरकार के पास अगला पूर्ण बजट पेश करने का मौका ही नहीं होगा. इस तरह सरकार इस जवाबदेही से फिलहाल तो बची ही रहेगी.
सरकार को सबसे बड़ा नुकसान अप्रत्यक्ष मकसद में नाकामी का
नोटबंदी को एक लोकलुभावन कदम माना गया था. इसका दार्शनिक पक्ष यह था कि अमीरों पर चोट के नारे से देश के बहुसंख्य गरीब गदगद हो जाएंगे. गरीबों ने लाइनों में खड़े होकर जलालत और तकलीफ इसी उम्मीद पर उठाई थी कि अमीरों के पास कालेधन के रूप में जमा हजार पांच सौ के नोट रद्दी का टुकड़ा हो जाएंगे. लेकिन आज जब पता चला कि सारे नोट बदल कर सफेद हो गए तो गरीबों को अमीरों की चीख पुकार का नजारा देखने का भी मौका नहीं मिला. गरीबों को कोई भी अमीर परेशान होते नहीं दिखा. नोटबंदी के दौरान ही कालेधन को सफेद करने का काम चोरी छिपे नहीं बल्कि ऐलानिया भी हुआ. सरकार पर नज़र रखने वालों ने इस सरकारी योजना का मज़ाक फेयर एंड लवली कह कर उड़ाया था. इतना ही नहीं नोटबंदी से गरीबों के कामधंधों को भारी नुकसान पहुचा सो अलग. यानी सरकार अमीरों पर चोट से गरीबों के दिल में ठंडक पहुंचाने के अप्रत्यक्ष मकसद को पाने में भी नाकाम रही. आजतक पता नहीं चला कि नोटबंदी से मिलने वाली रकम को गरीबों के कल्याण के लिए खर्च करने का जो लक्ष्य था उस वायदे का क्या हुआ. गौरतलब है कि नोटबंदी के फौरन बाद कालेधन को टैक्स देकर सफेद बानाने से मिलने वाली कल्पित रकम को गरीबों के कल्याण पर खर्च करने का मकसद का बाकायदा ऐलान किया गया था. ये दीगर बात है कि उस योजना की भी नाकामी के मद्देनजर इसे भी फौरन ही भुला भी दिया गया.
घपले घोटाले का अभी कुछ पता नहीं
नोटबंदी के जरिए घपले घोटाले की बातें उठती जरूर हैं लेकिन तथ्यों पर भारी पहरेदारी के कारण अभी तक इसका कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा है. वैसे वित्तीय कामकाज के जो बड़े जानकार हैं उन्हें इस बात से आज भी हैरत है कि सारे के सारे पुराने नोट वापस कैसे आ गए. नोटबंदी के दौरान ही पुराने नोटों की बोरियां नदी में बहाने और जलाने फेंकने की ढेरों खबरें दिखाई जा रही थीं. क्या वे खबरें झूठ थीं. उधर नोट बदलवाने की आखिरी तारीख तक जो लोग अपने पुराने नोट नहीं बदलवा पाए उनकी संख्या भी अच्छी खासी समझी जाती है. वैसे रहस्य रोमांच की ये सारी बातें फिलहाल फिजूल हैं क्योंकि चर्चा यह सुनाई देती है कि पुराने नोटों की वास्वतिक संख्या का ढेर बनाकर उनकी लुगदी बना दी गई है. हालांकि घपलों घोटालों को पकड़ने के लिए हमेशा ही भौतिक साक्ष्यों की जरूरत नहीं पड़ती. बैंकों के लाखों अफसरों और कर्मचारियों में पता नहीं कौन कब बताने के लिए सामने आ जाए कि नोटबंदी के दौरान फलाना घपला हुआ था.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Nov 09, 2018
सरकार का पिंड नहीं छूटा नोटबंदी कांड से
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 09, 2018 20:40 pm IST
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Published On नवंबर 09, 2018 20:26 pm IST
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Last Updated On नवंबर 09, 2018 20:40 pm IST
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