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This Article is From Aug 29, 2016

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद की विरासत नहीं संभाल पाया देश

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    August 29, 2016 17:14 IST
    • Published On August 29, 2016 17:14 IST
    • Last Updated On August 29, 2016 17:14 IST
वक्त अगर किसी चीज को लौटाना चाहे तो बिलाशक भारतीय खेल जगत दद्दा यानि मेजर ध्यानचंद को मांगना चाहेगा. उनसा न कोई हुआ और हो सकता है भविष्य में हो भी नहीं. खेल से खिलाड़ी की पहचान बनती है लेकिन ध्यानचंद तो हॉकी का आइना बन गए. उनके खेल को देखने वाला उनके सम्मोहन से बच नहीं पाता था. एडोल्फ हिटलर उनके खेल से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ध्यानचंद को जर्मनी से खेलने का न्योता दे दिया. क्रिकेट की दुनिया जिस डॉन ब्रैडमैन की कायल है वह 1935 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर गए ध्यानचंद से एडिलेड में मिले तो उनसे कहा था, "आप उस रफ्तार से गोल करते हैं जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज रन बनाते हैं."

बॉक्सिंग को मोहम्मद अली, क्रिकेट को सर डॉन ब्रैडमैन और फुटबॉल को पेले पर नाज है तो हॉकी और हिंदुस्तान को ध्यानचंद पर गर्व है. इसीलिए उनके जन्मदिन 29 अगस्त को खेल दिवस के रूप में मनाने की परंपरा रही है.

अपने अंतरराष्ट्रीय करियर में 400 से ज्यादा गोल करने वाले ध्यानचंद के नाम तीन ओलिंपिक स्वर्ण पदक हैं. सन 1928 के एम्सटर्डम ओलिंपिक खेलों में ध्यानचंद ने 5 मैच में 14 गोल ठोक डाले थे. यह जीनियस के जादू की आहट थी. फाइनल में भारत ने हॉलैंड को 3-0 से हराकर स्वर्ण जीता जिसमें दो गोल ध्यानचंद ने किए.

चार साल बाद 1932 के प्री-ओलंपिक टूर में उन्होंने 338 में से 133 गोल किए. लास एंजेल्स ओलिंपिक के दौरान भी 35 में से 19 गोल उनके ही खाते से आए. फाइनल में भारत ने मेजबान अमेरिका को 24-1 से हराया. ध्यानचंद ने 8 गोल ठोके. हॉकी की बादशाहत पर ध्यानचंद की मुहर लग गई.

वर्ष 1936 के बर्लिन ओलिंपिक के पहले अंतरराष्ट्रीय दौरों पर उन्होंने 175 में से 59 गोल किए. उस ओलिंपिक के दौरान 38 में से 11 गोल उनकी स्टिक से ही आए. फाइनल की कहानी बेहद दिलचस्प और ऐतिहासिक है.

15 अगस्त 1936 का दिन था. तब देश के लिए यह तारीख खास नहीं बन पाई थी. सामने थी मेजबान जर्मनी की टीम और स्टेडियम में एक खास और खुंखार तानाशाह भी था जिसे दुनिया एडोल्फ हिटलर के नाम से जानती है. मेजर ध्यानचंद की भारतीय टीम ने जर्मनी को 8-1 से हरा दिया. तीन गोल ध्यानचंद ने किए और दो उनके छोटे भाई रूप सिंह ने.आजादी के 11 साल पहले ही मेजर ध्यानचंद ने 15 अगस्त के दिन को तारीखी बना दिया. मेजर ध्यानचंद की कप्तानी में भारतीय हॉकी टीम ने जर्मनी के दर्प को कुचल दिया.

हिटलर ने ध्यानचंद को कर्नल बनाने तक का प्रस्ताव दिया. जाहिर है ध्यानचंद ने हिटलर के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इसके अलावी भी ध्यानचंद से जुड़ी कई मजेदार कहानियां हैं. ध्यानचंद एक बार मैच में गोल नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने गोल पोस्ट की चौड़ाई नपवाई जो कम निकली. हॉलैंड में एक बार ध्यानचंद की हॉकी स्टिक तोड़कर यह देखा गया कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं है. क्योंकि एक बार जब गेंद उनकी स्टिक पर आती तो चुंबक की तरह चिपक जाती थी. आज भी दुनिया उनका सम्मान करती है. ऑस्ट्रिया के वियना में ध्यानचंद की मूर्ति है. उस मूर्ति में ध्यानचंद के चार हाथ हैं और चारों में हॉकी स्टिक हैं. साल 2012 के लंदन ओलिंपिक के वक्त एक मेट्रो स्टेशन का नाम ध्यानचंद के नाम पर रखा गया.

डिफ्लेक्शन, पोजीशिनिंग, टीम भावना से लेकर गोल करने की रफ्तार में उन्हें आज तक का सबसे बड़ा खिलाड़ी माना जाता है. ध्यानचंद 44 साल की उम्र तक खेलते रहे. उनके खेल की धार आखिर तक बरकरार रही. यही वजह है कि 1947 में ईस्ट अफ्रीका ने भारतीय टीम को न्यौता दिया, लेकिन साथ ही शर्त भी रखी कि ध्यानचंद नहीं तो टीम नहीं.

लेकिन अपनी स्टिक से कभी दुनिया भर को अपने सम्मोहन में बांधने वाले ध्यानचंद के आज बस किस्से भर हैं...न तो भारतीय हॉकी टीम उस विरासत को संभाल पाई... न भारतीय खेल के कर्ता-धर्ता उस मजबूत नींव पर किसी बुलंद इमारत की सोच पाए. जिस देश ने आठ ओलिंपिक गोल्ड जीते और जिस देश के खिलाड़ी को हॉकी का जादूगर कहा जाता है वह पिछले 36 साल से ओलिंपिक में पदक नहीं जीत पाया है. हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा हासिल है मगर हर बार की हार से इस दर्जे का ही मजाक बनता है. कहा जाता है कि हॉकी गरीब खेल जरूर है लेकिन यह गरीबों का खेल नहीं रहा. एक औसत हॉकी स्टिक हजार रुपए से कम में नहीं आती. गेंद के लिए भी हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं. हॉलैंड जैसे छोटे देश में जहां 450 एस्ट्रो टर्फ हैं वहीं एक करोड़ के हिंदुस्तान में यह संख्या दर्जन का आंकड़ा पार नहीं कर सकी. ऐसे में चैंपियन पैदा हों तो कैसे हों?

मेजर ध्यानचंद को 1956 में पद्‌मभूषण से भी नवाजा गया था. शुक्र है कि उनके जन्म दिवस को खेल दिवस का दर्जा भी दिया गया. इसी दिन खेल रत्न और अर्जुन पुरस्कार देने की परंपरा ध्यानचंद की याद दिला जाती है. ध्यानचंद सही मायनों में देशरत्न थे और हैं.

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...

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