"चली भले ही न गई हो सीधे-सीधे अर्थों में, 1947 तक गांधी की नैतिक सत्ता एक बोझ बन गई थी- एक कर्ज – जो उत्तोरत्तर भारी लगने लगा था उनके निकटतम सहयोगियों को। और पहली बार गांधी चाह रहे थे कि उनकी नैतिक सत्ता बनी रहे। देख नहीं पा रहे थे कि जितना चाह रहे हैं उसे बनाए रखना, उतनी ही निकली जा रही है। जितनी ही वह निकलती उतनी की कोशिश बढ़ती उसे बनाए रखने की।"
इतिहासकार सुधीर चंद्र की किताब 'गांधी : एक असम्भव सम्भावना' पढ़ते-पढ़ते इस पैराग्राफ पर पहुंचा, तो गोपाल गांधी की वो बात याद आ गई, जो उन्होंने पिछले हफ्ते चमेली देवी जैन पुरस्कार दिए जाने के वक्त कही थी। गोपाल गांधी बुद्ध और गांधी के ज़रिये बता रहे थे कि जो असहमति का रास्ता चुनता है, उसके लिए स्पेस यानी जगह कम से कमतर होती जाती है। राज सत्ता का दायित्व है कि वो असहमति के स्पेस को फलने-फूलने दे। सुधीर चंद्र ने अपनी इस किताब में मात्र 169 दिनों की मन:स्थिति का विश्लेषण किया है, जिसे गांधी आज़ाद भारत में जी सके।
राजकमल प्रकाशन से आई इस किताब में सुधीर ने गांधी के प्रार्थना, प्रवचनों, नेहरू, पटेल के बीच पत्राचार और हिन्दू-मुस्लिम तनाव की परिस्थिति में गांधी को फेल होने की पीड़ा से गुज़रते देखा है। जिस अहिंसा और सत्याग्रह की तालीम वो अपने 32 साल के आंदोलन जीवन के दौरान गढ़ते रहे, वो भरभराने लगी थी। गांधी उस कांग्रेस को पहचान नहीं पा रहे थे, जिसे उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह की तरफ चलने के लिए प्रेरित किया था। अपने न सुने जाने की पीड़ा को गांधी बार-बार कहते हैं कि अब मेरी कोई नहीं सुनता था। एक समय सब मेरी बात सुनते थे।
"पर मेरे कहने के मुताबिक तो कुछ होगा नहीं। होगा वही जो कांग्रेस करेगी। मेरी आज चलती कहां है? मेरी चलती तो पंजाब न हुआ होता, न बिहार होता, न नोआखली। आज मेरी कोई मानता नहीं है। मैं बहुत छोटा आदमी हूं। हां एक दिन मैं हिन्दुस्तान में बड़ा आदमी था। तब सब मेरी बात मानते थे। आज तो न कांग्रेस मेरी बात मानती है, न हिन्दू और न मुसलमान।"
1 अप्रैल 1947 की प्रार्थना सभा में गांधी की यह बात उनके अकेलेपन की जगह की तस्वीर बनाती है। सुधीर चंद्र कहते हैं कि पहली बार नहीं था कि कांग्रेस गांधी को सुन नहीं रही थी। सदा ही कांग्रेस के संग उनका रिश्ता आवाजाही का रहा था। तीसेक साल के दौरान वे जितना कांग्रेस में रहे थे, उतना ही बाहर भी रहे थे। गांधी स्वराज को लेकर जवाहर लाल नेहरू को एक लंबा खत लिखते हैं। इसी दौरान जवाहर भी कहने लगे थे कि गांधी को समझ पाना दुष्कर था। हम आपस में अक्सर उनकी ख़ब्तों और विचित्रताओं की चर्चा करते थे, और थोड़ा हंसते हुए कहते थे कि स्वराज के बाद इन ख़ब्तों को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए।
स्वराज गांधी की आत्मा थी। नेहरू के लिए ख़ब्त यानी सनक। सुधीर चंद्र ने अपनी इस किताब में गांधी की उस लंबी चिट्ठी को पूरा का पूरा छाप दिया है और नेहरू का संक्षिप्त जवाब भी कि वक्त मिलते ही विस्तार से लिखूंगा। जवाहर, गांधी की किसी बात का जवाब नहीं देते हैं और बाद में भी इस सवाल पर विस्तार से नहीं लिखते हैं। मैं कहूंगा कि सात लाख गांव हैं, तो सात लाख हकूमतें बनीं ऐसा मानो। ये गांधी का वाक्य है जिसे अब हर कोई लिए घूमता है। पोस्टरों पर चिपका देता है, मगर सात लाख हकूमतें बीडीओ और तहसीलदारों की गुलाम बनी हुई हैं।
गांधी के इस अकेलेपन का कोना देखना हो तो आप इस किताब से गुज़र सकते हैं। शायद अकेला पड़ जाना ही किसी भी गांधी की नियति है। "मैं सफल होकर मरना चाहता हूं, विफल होकर नहीं। पर हो सकता है कि विफल ही मरूं।" गांधी ने नोआखली में प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस से यह बात कही थी। असफल होना भी गांधी होने की नियति है। मगर गांधी के बिना न तो गांधी हुआ जा सकता है न लोकतांत्रिक। इसलिए वो असफल आदमी आज भी हमारे अंदर ज़िंदा बचा हुआ है।
गांधी का स्वराज उनकी आंखों के सामने समाप्त हो गया था। कांग्रेस स्वराज का मज़ाक उड़ाने लगी थी। गांधी के स्वराज को समझने के लिए उस चिट्ठी को पढ़ा जाना चाहिए, जो उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को लिखी थी। उनका वो भाषण भी पढ़िये जो उन्होंने 15 जून 1947 को प्रार्थना प्रवचन में दिया था। हिन्दू मुस्लिम दंगों की पृष्ठभूमि में अंहिसा को लेकर छटपटाहट बढ़ती जा रही थी। सुधीर लिखते हैं कि गांधी फिर से अहिंसा के सत्य को सिद्ध करने में जुट जाना चाहते थे। इस संदर्भ में नोआखली से पहले कोलकाता में मुस्लिम लीग के नेता सोहरावर्दी के साथ किसी दंगा पीड़ित इलाके के घर में एक साथ रहने का प्रयोग अद्भुत है। सुधीर चंद्र ने जिस तरह से उन हालातों का विवरण दिया है, वो किसी वर्तमान के समान आकर खड़ा हो जाता है। गांधी फिर से जुआ खेलते हैं। अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा देते हैं।
कांग्रेस ने गांधी को छोड़ दिया था। उसके बाद से एक-एक कर हर दल ने गांधी को छोड़ दिया। उन्होंने भी जो गांधी की बातों को लेकर कांग्रेस को कोसते हैं। उन्हें अपने अंदर झांक कर देखना चाहिए कि क्या वाकई उनके भीतर कोई गांधी बचा है। अहिंसा बची है। स्वराज बचा है। गांधी के रास्ते में लोकतंत्र तो है, मगर सत्ता का नियंत्रण नहीं है। हमने किसी तरह से मान लिया है कि सत्ता और नेतृत्व पर नियंत्रण ही मुक्ति का अंतिम मार्ग है। एक असफल मार्ग पर हम कबसे चलते रहे हैं। कब तक चलते रहेंगे। गांधी असफल होकर चल नहीं सके। हम असफल होकर भी उन्हीं रास्तों पर चले जा रहे हैं। कितना फर्क है गांधी होने में और कितना मज़ा है गांधी नहीं होने में।