महिला नसबंदी : न मां, न बीवी... वह महज एक 'टारगेट' हैं

नई दिल्ली:

थ्री इडियट फ़िल्म के आख़िर में आमिर ख़ान करीना कपूर की बहन की डिलवरी करा रहा होता है और अचानक बिजली चली जाती है। बॉलीवुड की मान्यताओं के हिसाब से फ़िल्म का हीरो तो कुछ भी करने की क़ाबिलियत रखता है, लेकिन तब भी उसे इनवर्टर की लाइट के सहारे डिलिवरी कराते दिखाया गया। लेकिन झारखंड के चतरा में कहानी इससे भी कहीं आगे चली गई जहां डॉक्टर ने महिलाओं की नसबंदी महज़ टॉर्च की रोशनी में कर दी।

एक बार सिर्फ़ उस तस्वीर को सोचिए जहां एक सर्जरी चल रही हो और वह भी टॉर्च की लाइट में। सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन चतरा में एक स्थानीय एनजीओ से जुड़े डॉक्टर ने एक नहीं, दो नहीं, बल्कि 44 महिलाओं की नसबंदी कर दी... वह भी टॉर्च की लाइट में। इतना ही नहीं, इसके बाद इन महिलाओं को न तो बेड मिला और ना ही दवाई।

इसके बारे में सोचकर भी आपको लग रहा हो कि कोई ऐसा कर कैसे सकता है, लेकिन हमारे भारत देश में यह मजह सोच में नहीं, लेकिन हक़ीकत में होता है क्योंकि यहां कई बार महिला कुछ डॉक्टरों के लिए न तो किसी की मां होती है, न किसी की बीवी... वह सिर्फ़ 'टारगेट' होती हैं। वह सरकारी टारगेट जिसे पूरा करने का दबाव उस और साथ ही सूबे के कई हेल्थ ऑफ़िसर्स पर भी होता है।

छत्तीसगढ़ में 6 घंटे के अंदर 83 महिलाओं की नसबंदी करने वाला डॉक्टर भी उस आंकड़े या टारगेट को हासिल करने के दबाव में था, जो सूबे के स्वास्थ्य विभाग ने तय कर रखा था। तब कई गरीब महिलाओं की मौत हुई, कई बीमार पड़ीं, डॉक्टर पर कार्रवाई हुई लेकिन उस कार्रवाई का नतीजा क्या रहा, वह झारखंड के चतरा में दिख गया, जहां टॉर्च की लाइट में नसबंदी कर दी गई।

दरअसल, भारत में 15 से 49 साल के बीच की 65 फ़ीसदी महिलाएं गर्भ रोकने के लिए नसबंदी का सहारा लेती हैं। इतना ही नहीं, भारत दुनिया का दूसरा ऐसा देश है जहां सबसे बड़ी संख्या में महिलाओं की नसबंदी होती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2011-12 भर में 46 लाख महिलाओं की नसबंदी की गई थी। ये आंकड़े टारगेट के खेल में महिलाओं को सिर्फ़ टारगेट की तरह देखे जाने का सच तो बयां करते ही हैं, तो साथ ही इस सच की भी तस्दीक करते हैं कि देश में अभी भी गर्भ धारण से बचने के लिए ज्यादातर मामलों में ज़िम्मेदारी सिर्फ महिला पर डाल दी जाती है और इसके लिए कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स जैसे विकल्पों की बजाय नसबंदी पर ज्यादा ज़ोर रहता है। ज्यादातर मामलों में तो महिलाओं को पता तक नहीं होता कि गर्भधारण करने से बचने के दूसरे उपाय भी मौजूद हैं।

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ऐसे में बहुत साफ़ है कि जब तक महिलाएं यूं हीं टारगेट के तौर पर देखी जाती रहेंगी और नसबंदी के टारगेट हासिल करने का दबाव यूं हीं बना रहेगा, ज़िंदगियों के साथ यूं हीं खिलवाड़ भी होता रहेगा और सिर्फ़ ऐसे डॉक्टरों पर कार्रवाई करने की बजाय उस नीति पर भी काम करने की ज़रूरत है जो जनसंख्या पर लगाम लगाने के लिए बनाई गई है।