लेकिन अभी तो बस अंत की शुरुआत है. यानि रेसलर ने पहला मैच जीता है और फ़ाइनल तक पहुंचने और पदक जीतने का सफ़र अभी बाकी है. दरअसल फ़ाइनल तक पहुंचने के लिए अभी जीएसटी को कई और मकाम हासिल करने होंगे.
जीएसटी की आगे की राह में--
- अभी सबसे पहले बिल वापस लोकसभा जाएगा जहां राज्यसभा में हुए बदलावों को लोकसभा की भी मंज़ूरी के लिए रखा जाएगा.
- इसके बाद बिल को कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं की रज़ामंदी हासिल करनी होगी.
- आख़िर में बिल राष्ट्रपति के पास जाएगा उनकी मंज़ूरी के लिए.
राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद शुरू होगी बिल को अमलीजामा पहनाने यानि उसे लागू करने की कड़ी मशक्कत. दरअसल जीएसटी एक ऐसा बिल है, जो पूरे देश के टैक्स सिस्टम को एक धागे में पिरो देगा. इसलिए केन्द्र और राज्य, दोनों को साथ मिलकर एक साथ बिल को लागू करने की दिशा में काम करना होगा. सरकार चाहती है कि बिल को 1 अप्रैल 2017 से लागू कर दिया जाए जिसके लिए ये काम बहुत तेज़ी से करना होगा. सरकार को 60 दिन के अंदर जीएसटी काउंसिल का गठन करना होगा जो टैक्स की दर तय करने के साथ कई अहम मुद्दों पर इस बिल की रूपरेखा तय कर देगी. हालांकि टैक्स की दर तय करने के साथ साथ कई और कदम तेज़ी से बढ़ाने होंगे अगर बिल को 1 अप्रैल 2017 से लागू करना है. ऐसे में
- तीन नए क़ानून बनाए जाएंगे
- सेंट्रल जीएसटी (CGST), इंटिग्रेटेड जीएसटी और स्टेट जीएसटी बिल
- सेंट्रल जीएसटी और इंटिग्रेटेड जीएसटी को संसद से पास कराना होगा
- स्टेट जीएसटी बिल के लिए 29 राज्यों के रज़ामंदी की ज़रूरत पड़ेगी
- राज्यों का अपना जीएसटी बिल केन्द्र के जीएसटी बिल के अनुरूप ही होगा
कांग्रेस पार्टी चाहती है कि सरकार बिल में 18 फ़ीसदी की दर तय कर दे और इसे जब बिल में शामिल करके लाए तो बिल मनी बिल न होकर फ़ाइनेंस बिल हो. दरअसल, मनी बिल में राज्यसभा के पास वोटिंग का अधिकार नहीं होता और न ही 14 दिन से ज्यादा बिल को रोकने का अधिकार होता है जिसके बाद बिल खुद-ब-खुद राज्यसभा में पास मान लिया जाता है. ऐसे में फाइनेंस बिल की मांग ये सुनिश्चित करने के लिए है कि बिल पर सिर्फ़ लोकसभा की रज़ामंदी ही नहीं बल्कि राज्यसभा की रज़ामंदी का भी असर पड़े क्योंकि विपक्षी पार्टियों की ताक़त राज्यसभा में ही है लोकसभा में नहीं.
बहरहाल, क़ानून बनाने, लाने और पास कराने से अलग जीएसटी को मुकम्मल तौर पर लागू कर देने की एक चुनौती तकनीकी तौर पर भी है. सरकार को जीएसटी नेटवर्क की ज़रूरत पड़ेगी जिससे टैक्स देने वालों के केन्द्र और राज्य दोनों के डेटाबेस जुड़े होंगे. इसके ज़रिए बिना किसी परेशानी के टैक्स वसूली का हिसाब रखा जा सकेगा और राज्यों को उनके हिस्से का टैक्स मिलता रहेगा. हालांकि सरकार ने इसकी तैयारी बिल के पास होने के पहले ही शुरू कर दी थी. साल 2013 में ही जीएसटीएन प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दी गई थी जो तकनीकी पक्ष पर काम कर रही है. इसके अलावा बीते साल ही इंफ़ोसिस कंपनी 1380 करोड़ रुपए का कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया था जो नेटवर्क तैयार करने और तकनीकी पहलुओं को सक्षम बनाने के साथ साथ पांच साल तक देखरेख का भी काम संभालेगी.
यानी मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि जीएसटी बिल की सांसे तभी चलनी शुरू होंगी जब ये सारे काम एक साथ, सही समय पर और एक राय के साथ पूरे हों. हालांकि अब भी माना जा रहा है कि जीएसटी बिल का दिल कहे जाने वाले टैक्स की दर को लेकर तक़रार की स्थिति बन सकती है लेकिन अगर सरकार मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यन और राज्यों के वित्तमंत्रियों की एम्पावर्ड कमिटी की सिफ़ारिशों को सुनती दिखी तो टैक्स की दर 18 फ़ीसदी के आसपास ही रह सकती है और ऐसे में बिल को और ज्यादा पटखनी खाने और दांव पेंच से गुज़रने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.
ऐसे में राजस्व सचिव का यह बयान बिलकुल भी गलत नहीं है कि 'ये तो अंत की शुरुआत है.' और सरकार को इस शुरुआत को अंत तक पहुंचाने के लिए अभी अपनी कोशिशों की गाड़ी के टैंक को मेहनत और सियासी सूझबूझ के पेट्रोल से फ़ुल रखना होगा.
सुशांत सिन्हा एनडीटीवी इंडिया में एसोसिएट न्यूज एडिटर और एंकर हैं...
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