प्राइम टाइम इंट्रो : निर्भया कांड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

फैसले का अनुवाद एक मुश्किल काम है. फिर भी तमाम बहस से ज्यादा यह फैसला हमें साक्षर करेगा क्योंकि जजों ने तमाम पहलुओं पर गहराई से लिखा है. बहुतों को लग सकता है कि यह फैसला फांसी के फैसलों को बढ़ावा देने वाला है तो ऐसा सोचना जल्दबाज़ी होगी.

प्राइम टाइम इंट्रो : निर्भया कांड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

फाइल फोटो

निर्भया मामले में फांसी की सज़ा बहाल हुई है. ट्रायल कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने शुरू से लेकर अंत तक फांसी की सज़ा बहाल रखी है. इस मामले ने भारत में बलात्कार के प्रति कानूनी प्रक्रियाओं और नज़रिये को हमेशा के लिए बदल दिया. अभियुक्तों के वकीलों को आपत्ति थी कि सारे अभियुक्तों को सामूहिक सज़ा सुनाई गई है. अपराध में सबकी अलग-अलग भूमिका और उनकी सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक पृष्ठमूभि के हिसाब से सज़ा तय नहीं हुई. इसे अंग्रेज़ी में मिटिगेटिंग फैक्टर कहते हैं. यानी सबको फांसी सुनाई गई, जबकि किसी को उम्र कैद तो किसी को दस साल की सज़ा हो सकती थी. सुप्रीम कोर्ट ने इन आपत्तियों को खारिज करते हुए कहा कि जब हम पूरी सतर्कता और सावधानी के साथ उत्तेजित करने वाली परिस्थिति और अभियुक्तिों की भूमिका और उनकी सामाजिक आर्थिक परिस्थित के बीच तुलना करते हैं तो हम इस एकमात्र निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध अन्य परिस्थितियों पर उत्तेजित करने वाली परिस्थितियां भारी पड़ जाती हैं. इसलिए हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं और फांसी देने के हाई कोर्ट के फैसले को सही पाते हैं. इस फैसले से अलग राय रखने का कोई कारण नज़र नहीं आता है.

शब्दश: अनुवाद नहीं है, भाव है. तीन जजों की बेंच ने एक साल की सुनवाई के बाद फैसला दिया है. तीनों जजों ने सहमति से फैसला दिया और जब फैसला सुनाया तो कोर्ट में ताली बजी. कोर्ट कवर करने वाले संवाददाताओं को थोड़ी हैरानी हुई. हम आज प्राइम टाइम में फैसले पर ही फोकस करेंगे, बहस में हिस्सा लेने वालों को भी 429 पेज के फैसले को पढ़ने का वक्त चाहिए इसलिए हम आज उनके साथ बहस नहीं करेंगे. हम भी पूरा फैसला नहीं पढ़ सके हैं लेकिन मानते हैं कि इसके कुछ हिस्सों को आपके सामने रखना चाहिए.

निर्भया के माता पिता ने कहा है कि उन्हें इंसाफ मिला है. वो शुरू से फांसी की मांग कर रहे थे, और फांसी की सज़ा अंत अंत तक बहाल रही है. हम सब तो एक ही शब्द जानते हैं कि इंसाफ मिला, हो सकता है इस मां बाप के पास भी हमारे लिए यही शब्द हो कि इंसाफ मिल गया, लेकिन सोचिये कि 16 दिसंबर के बाद से वो दिन में कितनी बार उस हादसे से गुज़रते होंगे. उनकी प्रतिक्रिया में एक ज़िम्मेदार नागरिक का संविधान और कानूनी प्रक्रिया में विश्वास ही तो है जो हर हाल में उन्हें ज़िंदा रखे हुए है. उन्हें लड़ने की हिम्मत देता रहा.

निर्भया की मां का नाम आशा है. सालेहा की मां का नाम आशा नहीं है, बिल्किस है, अगर बिल्किस के पास भी यही आशा नहीं होती तो 17 साल तक अदालत का आसरा नहीं देखती. बॉम्‍बे हाई कोर्ट ने इस मां को भी निराश नहीं किया है. हम बिल्किस के हिस्से को भी इसमें शामिल करेंगे लेकिन पहले जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण के फैसले के उस हिस्से को पढ़ते हैं जिसमें सामूहिक चेतना का प्रसंग आया है. जज साहिबान लिखते हैं कि सेक्स की चाह, हिंसा की भूख, ताक़तवर होने की स्थिति और विकृत वृति, ने सामूहिक चेतना को हिला दिया जो नहीं जानता कि क्या करना है. यह ज़ाहिर है कि लंपट इच्छा, मुक्त काम इच्छाओं की गुलामी और जानवरों जैसी घिनौनी चाह की दासता अपीलकर्ताओं को गुनाह की तरफ ले गई जिसने सामूहिक चेतना में सदमे की सुनामी ला दी और परिवेश के सभ्य ताने बाने को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया.

ये शब्दश: अनुवाद नहीं है. जस्टिस मिश्रा की अंग्रेज़ी है भी अच्छी और नफीस. इसलिए कुछ ग़लती हो सकती है. मगर जजमेंट के सिर्फ इस हिस्से पर भारतीय समाज की कुंठाओं पर लंबी बहस छिड़ सकती है. हम सिर्फ सामूहिक चेतना तक ही खुद को सीमित रखते हुए कुछ कहना चाहते हैं. एक बात ध्यान रखियेगा, फैसला सामूहिक चेतना के आधार या उसके लिए नहीं लिया गया है. ऐसा समझना फैसले के महत्व को कम करना होगा मगर ज़िक्र है और कई लोग इसे ग़लत समझ सकते हैं इसलिए यहां बिल्किस बानों का प्रसंग लाना चाहता हूं. 4 मई को बॉम्‍बे हाई कोर्ट ने गुजरात दंगों से जुड़े बिल्किस बानों केस में एक फैसला सुनाया. इस मामले में 12 लोगों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई, इसके अलावा पांच पुलिस अफसर और दो डाक्टर भी सबूतों को मिटाने के मामले में दोषी पाए गए.

यानी आम जनता के साथ-साथ स्टेट यानी राज्य के सदस्य भी बिल्किस बानों के खिलाफ हुई हिंसा में शामिल थे. बॉम्‍बे हाई कोर्ट ने इस मामले में सीबीआई की दलील को सही माना. 19 साल से बिल्किस बानों अपने इंसाफ की लड़ाई लड़ रही है लेकिन क्या बिल्किस के साथ कोई सामूहिक चेतना है. इसीलिए सामूहिक चेतना जैसे शब्द की समीक्षा ज़रूरी है. क्या सामूहिक चेतना इस बात से विचलित हुई कि 19 साल की बिल्किस के साथ बलात्कार तब हुआ जब वह गर्भवती थी. क्या सामूहिक चेतना विचलित हुई जब उसकी बच्ची को उससे छीना गया और एक पत्थर पर सिर पटकर कर मार दिया गया. क्या सामूहिक चेतना उस समय जागी जब बिल्किस की मां और बहन के साथ रेप किया गया. क्या सामूहिक चेतना उस वक्त सड़कों पर उतरी थी जब बिल्किस की बेटी और उसके परिवार के 14 लोग मार दिये गए थे. बिल्किस ने यह नहीं कहा कि फांसी से कम पर मानेंगे फिर भी सालेहा की मां बिल्किस और निर्भया की मां आशा जी की प्रतिक्रियाएं काफी महत्वपूर्ण हैं. बिल्किस ने सावधान किया है कि हम धर्मों के नाम पर इस तरह अपने होश न गंवा बैठें. उसने
भारतवासियों गुजरातवासियों को शुक्रिया कहा है.

बहुत से लोग सोच रहे होंगे कि बिल्किस के साथ जो हुआ वो गोधरा के बाद की सामूहिक चेतना थी. आप सिख भाइयों से पूछिये 84 की दिल्ली में सड़कों पर कौन सी सामूहिक चेतना थी. इसलिए सामूहिक चेतना से सतर्क रहना चाहिए. हर सामूहिक चेतना अच्छी नहीं होती है. एक साल तक सुनने के बाद जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने फैसला दिया है. अभियुक्तों को पूरा मौका दिया गया अपना पक्ष रखने का. सरसरी तौर पर पढ़ते हुए लगा कि जस्टिस मिश्रा ने काफी सावधानी और सतर्कता से फैसला लिखा है. कई राज्यों में इस तरह के मामलों में जो फैसले हुए हैं, उनका उदाहरण दिया है. राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, यूपी, जम्मू कश्मीर, आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश के मामलों का ज़िक्र फैसले में संदर्भ के तौर पर दिखा. यह बात ठीक है कि रायसीना हिल्स पर पहुंची लड़कियां सिर्फ भीड़ नहीं थीं. इन्हें भीड़ कहकर खारिज नहीं किया जा सकता. इस भीड़ में बहुत सी लड़कियां अपने जीवन में पहली बार किसी मुद्दे के लिए घर से निकली थीं. वो भीड़ बनकर किसी को मारने नहीं आई थीं बल्कि संविधान और कानून को जगा रही थीं.

सामूहिक चेतना के नाम पर रायसीना पर आईं लड़कियों की भीड़ को रिजेक्ट करना ग़लती होगी. इस भीड़ की तुलना आप उस भीड़ से नहीं कर सकते जो बुलंदशहर में गुलाम मोहम्मद को हिन्दू लड़की से प्रेम करने के आरोप में मार देती है, जो अलवर में गौ रक्षा के नाम पर पहलू ख़ान को मार देती है. रायसीना पर जमा हुई लड़कियों के हाथ में जो बैनर थे, वो बेहतर और संवैधानिक समाज के सपने देख रहे थे.

यह फैसला ऐतिहासिक है. यह घटना वाकई भयानक थी. इतनी भयानक कि आज भी उसके प्रसंगों का ज़िक्र करते हुए सिहरन पैदा हो जाती है. जस्टिस मिश्रा ने अपने फैसले की शुरूआत इस तरह से करते हैं.... 16 दिसंबर 2012 की दिल्ली की सर्द भरी शाम ने अपने साथी के साथ पीवीआर सलेक्ट सिटी में फिल्म देखने गई 23 साल की लड़की को ज़रा भी भनक नहीं दी होगी कि अगले कुछ घंटों में, तेज़ होती कंपकपाहट भरी रात उसकी ज़िंदगी में एक भयानक अंधेरा लाने वाली है. जब वो मुनिरका बस स्टैंड से अपने दोस्त के साथ बस में सवार होगी. उसने सोचा भी नहीं होगा कि वो छह लोगों के गैंग की हवस का शिकार होने जा रही है, उसपर जानलेवा हमला होगा, वो उनके लिए मौज मस्ती का ज़रिया बन जाएगी और निजी अंगों को छिन्न भिन्न कर दिया जाएगा, एक ऐसी भूख के लिए जिसके बारे में किसी ने सोचा नहीं होगा.

शब्दश: अनुवाद नहीं है, मगर जज साहिबान ने जिस तरह से लिखना शुरू किया है, फैसले के पहले दो तीन पैराग्राफ से ही मन भारी हो जाता है. पढ़ा नहीं जाता है. आरोपी चाहते थे कि फांसी की सज़ा हो रही है तो हर पहलू पर ठीक से सुनवाई हो जाए. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पूरा मौका दिया. आरोपियों के वकील का सवाल था कि एफआईआर में देरी हुई. मतलब सबूत के साथ छेड़छाड़ हुई है लेकिन हमेशा यह बात सही नहीं होती है. एफआईआर में देरी के सवाल पर ही लंबी बहस चली है. फैसले का पढ़ेंगे तो कम से कम सत्तर पन्नों तक यही बहस चल रही है. कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि देरी पर शक करना कई वजहों पर निर्भर करता है. हालांकि लंबी देरी भी माफ की जा सकती है अगर पीड़ित के पास मोटिव नहीं है अभियुक्त को फंसाने का. इस केस में पीड़ितों को 11:05 पर अस्पताल में भरती कराया गया. 3:45 पर पीड़ित लड़के का बयान रिकॉर्ड किया गया. शुरुआत में प्राथमिकता पीड़ितों को मेडिकल सहायता देने की होती है. अगर मान भी लिया जाए कि देरी हुई तो ये बिल्कुल मानवीय है.

एक दूसरा सवाल था कि एफआईआर और मेडिको लीगल केस में आरोपियों के नाम दर्ज नहीं थे तो कोर्ट ने कहा कि एफआईआर कोई एनसाइक्लोपीडिया नहीं होती है. पीड़ित से उम्मीद नहीं की जाती कि वो घटना की पूरी जानकारी एफआईआर में ही दे. इस तरह से एक एक सवाल पर सुनवाई हुई है. एफ आई आर में देरी की तरह डाइंग डिक्लेरेशन को लेकर भी सवाल उठा, इस पर भी लंबी बहस चली है मगर कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हमें यह मानने में कोई दिकक्त नहीं है कि हाव-भाव, इशारे से कोई डाइंग डिक्लरेशन दर्ज होता है, उसे साक्ष्य के तौर पर मान्यता दी जा सकती है. बशर्ते बयान दर्ज करते वक्त पूरी सावधानी बरती गई हो. हमारे रिकॉर्ड पर जो साक्ष्य उपलब्ध हैं उसके आधार पर सभी तीनों डाइंग डिक्लरेशन में एक तरह की निरंतरता दिखती है यानी तीनों में काफी मेल है, और अन्य साक्ष्यों के साथ उनका मिलान भी होता है. इसलिए ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट ने सज़ा देने में डाइंग डिक्लरेशन को जो आधार माना है, वो सही है.

फैसले का अनुवाद एक मुश्किल काम है. फिर भी तमाम बहस से ज्यादा यह फैसला हमें साक्षर करेगा क्योंकि जजों ने तमाम पहलुओं पर गहराई से लिखा है. बहुतों को लग सकता है कि यह फैसला फांसी के फैसलों को बढ़ावा देने वाला है तो ऐसा सोचना जल्दबाज़ी होगी. बल्कि 402 नंबर पेज पर जस्टिस मिश्रा और जस्टिस भूषण लिखते हैं कि यह केस रेयरेस्ट ऑफ रेयर है या नहीं, भारत में फांसी की सज़ा की प्रक्रिया कई नीतिगत सुधारों और न्यायिक फैसलों के कारण अब काफी विकसित हो चुकी है, इससे पता चलता है कि फांसी की सज़ा को लेकर अलग-अलग समय में हमारा क्या नज़रिया रहा है, बेशक सज़ा देने में सुधार की संभावनाओं का पक्ष आगे रहता है और भारत का अंतरराष्ट्रीय दायित्व भी झलकता है कि फांसी की सज़ा को लेकर अदालतों का नज़रिया बदला है. भारत में फांसी की सज़ा का शटर बंद होने की तरफ बढ़ रहा है लेकिन रेयरेस्ट ऑफ रेयर मामले में एक छोटी सी खिड़की खुली हुई है.

अगर सही अनुवाद हुआ है तो यह हिस्सा बताता है कि अदालत फांसी की सज़ा की अंध समर्थक नहीं है. वो इस दिशा में तमाम सबूतों और तर्कों के आधार पर बढ़ रही है. छोटी सी जो खिड़की खुली हुई है उसका इस्तेमाल किया है. इसलिए एक इंसाफ यह भी है कि फैसले को पढ़ा जाए. इस फैसले में जस्टिस आर भानुमति की टिप्पणी भी महत्वपूर्ण है. वो लिखती हैं, महान विद्वान विवेकानंद के शब्दों में किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सबसे अच्छा थर्मामीटर यह है कि वह औरतों के साथ क्या सलूक करता है. औरतों के ख़िलाफ़ अपराध से न सिर्फ उनका स्वाभिमान आहत होता है बल्कि समाज के विकास की गति भी रुक जाती है. मैं उम्मीद करती हूं कि राजधानी में हुई इस जघन्य घटना और एक नौजवान लड़की की मौत से एक जनआंदोलन उभरेगा जो एक महिलाओं के खिलाफ हिंसा को खत्म करेगा.'

आमतौर पर जजों के फैसले में शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ, यीट्स को ही कोट किया जाता है, बहुत दिनों बाद देखा कि विवेकानंद को कोट किया गया है. ये ठीक है. बलात्कार के खिलाफ यह लड़ाई लंबी है. निर्भया मामले का सामूहिक चेतना अक्सर उन मामलों में खामोश रह जाता है जो दिल्ली से दूर समाज के कमज़ोर तबके को अपना शिकार बना रहा होता है. बिल्किस बानों जैसी औरतों और सैकड़ों अनाम दलित लड़कियों के साथ होने वाले बलात्कार के मामले में जिस दिन भारत की महिलायें रायसीना पहुंच जाएंगी उस दिन औरतों की लड़ाई औरतों की बन जाएगी. कड़े कानून और सख्त सज़ा से अपराध पर क्या असर पड़ता है. पड़ता तो दिल्ली में हर दिन बलात्कार के छह मामले दर्ज नहीं होते. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2013 में बलात्कार के 33,707 मामले दर्ज हुए. 2014 में बलात्कार के 36,735 मामले दर्ज हुए. 2015 में बलात्कार के 34,651 मामले दर्ज हुए. इस पूरे मामले को हमारे सहयोगी आशीष भार्गव ने काफी ज़िम्मेदारी के साथ कवर किया है. आशीष उन संवाददाताओं या एंकरों जितने किस्मतवाले नहीं हैं जिनका फोटो होर्डिंग पर लगता है मगर इस संवाददाता की हर रिपोर्ट न्यूज़ में हमें कुछ न कुछ सिखा जाती है.

आशीष ने बताया कि तीन जजों की बेंच स्पेशल बेंच थी. इस बेंच के बैठने का भी एक कायदा होता है. बेंच के प्रमुख जस्टिस दीपक मिश्रा बीच में बैठते हैं. उनकी दायीं ओर उनसे जूनियर जस्टिस आर भानुमति बैठी थीं. जस्टिस मिश्रा के बायीं और जस्टिस अशोक भूषण बैठे थे जो इन तीनों में सबसे जूनियर हैं. इस बेंच ने एक साल तक सोमवार, शुक्रवार और शनिवार को सुनवाई की है. 44 से ज़्यादा हियरिंग हुई हैं. बल्कि मिटिगेटिंग फैक्टर वाले मामले में तो 6 मार्च से दोबारा हियरिंग हुई यानी जिस सवाल को लेकर यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था उस सवाल पर एक साल में दो बार सुनवाई हुई. जजों ने कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखाई. इंसाफ़ का पलड़ा भारी लगे इसलिए आरोपियों के वकीलों की मदद के लिए सुप्रीम कोर्ट ने दो बड़े वकील भी उपबल्ध कराये. राजू रामचंद्रन और संजय हेगड़े. इन दोनों ने दिल्ली पुलिस की जांच और दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर खूब सवाल किये. यानी हर सवाल को मौका मिला. फाइनल फैसले में दिल्ली पुलिस की जांच की सराहना की गई है.


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