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This Article is From Nov 16, 2016

नोटबंदी का फैसला : बैठे-बिठाए अपराधबोध में आते जाना

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 16, 2016 14:14 pm IST
    • Published On नवंबर 16, 2016 14:14 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 16, 2016 14:14 pm IST
बहुत सी बातें सरेआम नहीं की जातीं. जैसे एक बात यह है कि शासितों को यानी जनता को भ्रष्ट करके उनपर शासन करना आसान हो जाता है. कोई सरकार अगर जनता को भ्रष्ट न भी बनाए तो जनता में फिजूल के अपराधबोध से ही शासकों का काम चल जाता है. विश्व के बड़े विद्वान बताते आए हैं कि दूसरे क्षेत्रों की सत्ताएं भी इस अवधारणा का इस्तेमाल करती हैं. वे अपने आश्रितों व अनुयायियों को उनके छोटे छोटे पापों, भूलों और गलतियों की याद दिलाती रहती हैं.

अभी यह तो पता नहीं चल रहा है कि कालेधन की मुहिम मोटे-ताजे भ्रष्टाचारियों पर दूर से कितना डर बैठा पा रही है. लेकिन ये जरूर दिखने लगा है कि अब तक जो खुद को भ्रष्टाचारी नहीं समझता था उसके भीतर भी डर बैठ रहा है कि अपनी आमदनी और खर्चे का पूरा हिसाब कैसे बताए.

हिसाब-किताब बनाने में लगे
नोटबंदी की कवायद से ही देश के करोड़ों लोग अपने पैसे का हिसाब-किताब बनाने में लग गए हैं. आखिर में उन्हें यही सोचना पड़ रहा है कि खुद को भ्रष्ट कहलाए जाने से कैसे बचें. यही उनमें अपराधबोध पनप जाने का सबूत है. पिछले दशक में चार छह करोड़ लोगों ने खुद का छोटा-मोटा धंधा करके अपना चार छह लाख रुपए का धंधा जमा पाया था. ये लोग भी अचानक काले-सफेद धन का हिसाब लगाने में लग गए हैं. देश में चार-छह लाख करोड़ की यह रकम मायने जरूर रखती है लेकिन पिछले एक दशक में इसी नए निम्न मध्‍यवर्ग ने देश की माली हालत संभाले रखी थी. वरना बेरोजगारी ने बवंडर खड़ा कर दिया होता.

दुनिया की तमाम पौराणिक कथाओं की एक बात
गुनहगार को सजा देने के कई-कई रूपों पर पौराणिक कहानियों का ढेर लगा है. सबसे ज्यादा बार सुनी गई कहानी वह है जिसमें यह कहा जाता है कि गुनाहगार को पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी गुनाह न किया हो. यह सुनकर ही सभी लोग आंखें झुकाकर पत्थर नीचे गिरा देते हैं. पैसे के हिसाब-किताब  के मामले में कानून कायदे के हिसाब से खुद को पाक साफ साबित करने में अच्छे से अच्छे 'हरिश्चंद' आखिर में माफी की गुहार लगाते पाए जाते हैं और फिर उन पर कृपा करने का श्रेय लेना आसान हो जाता है.

भीड़ की हड़बड़ी का रहस्य
सबकी मजबूरी है कि पहले से चले आ रहे अपने बिना लेखे-जोखे वाले हजार-पांच सौ के नोटों को जल्दी से जल्दी बदलवा लें. उनके पास जो भी जमा पूंजी है उसे खाते में दर्ज करवा दें. बैंकों और एटीएम पर ऐसी भीड़ टूट रही है कि सरकार के भी  हाथपैर फूल रहे हैं. सरकार को लोगों से कहना पड़ा है कि लोग नोट बदलवाने के लिए बार-बार बैंक न आएं. अभी  छह दिन पहले ही सरकार यह कह रही थी कि चार हजार के नोट हर दिन बदलवाए जा सकते है. भीड़ की हड़बड़ी देखकर सरकार के हाथपैर फूलना स्वाभाविक है. लेकिन बगैर तैयारी के इतने बड़े फैसले का एलान करने का कोई वाजिब जवाब अभी बन नही पाया है.

दिल के बहलाने को एक बात
एक बात देख कर सरकार की बांछें भी खिल रही होंगी कि अरे देश के आम आदमी के पास भी हजार और पांच सौ के नोटों की कमी नहीं है. नगदी की भारी कमी से जूझ रहे और अचानक दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुके बैंक लोगों की रकम से लबालब भर रहे हैं. इधर सात दिन बाद भी आम आदमी की भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही है बल्कि हर दिन बेकाबू होकर बढ़ती ही जा रही है. अब ये देश का आम आदमी है या आम आदमी से थोड़ा बड़ा या मझोला है उसकी पहचान मुश्किल है. ये वे लोग हैं जिन्हें सरकारी पाबंदियों के कारण अपनी पूरी रकम को नए नोटों में तब्दील करने के लिए लगातार कई कई दिन यानी बार-बार लाइन में लगना पड़ा और आगे भी लगना पड़ेगा.  ज्यादातर लोगों को डर लग रहा होगा कि बाकी बचे 43 दिनों में वे अपने सारे पुराने नोटों को बदलवा भी पाएंगे कि नहीं. इसी बीच सरकार का यह नया ऐलान सुनकर सामान्य लोग भयभीत हैं कि एक बार बैंक में लेन देन के बाद उनकी उंगली पर पक्की स्याही लगाने की व्यवस्था की जा सकती है ताकि आम लोग दुबारा जल्दी ही बैंक में घुस कर भीड़ न लगा पाएं. पता नहीं यह सोचा गया है या नहीं कि इस तरह के ऐलान से हालत क्या बनेगी.

जनधन खाते का जिक्र भी आने लगा
वे जनधन खाते जो बिना पैसा जमा करवाए खुलवाए गए थे उनका जिक्र किया जाना कान खड़े कर रहा है. सरकार को खुद ऐलान करना पड़ा कि इन खातों पर नजर रखी जाएगी. क्या यह वैसी बात नहीं है कि बेचारे गरीबों को भ्रष्ट किए जाने या गरीबों के सहारे काले को सफेद बनाने के उपायों पर भीड़ में ही चर्चाएं होने लगी हैं. जन-धन खाते बिना रकम के खाली पड़े होने की चर्चा करवाई जाना और दूसरे के पैसे इन खातों में जमा करके पैसे बना लेने का लालच देना क्या आमजन भ्रष्ट हो जाने का लालच देने जैसा ही नहीं था. क्या इसकी जांच नहीं होना चाहिए कि इस तरह की खराब बातों को  प्रचारित करने की शुरुआत किसने की.

नोटबंदी के गुण-दोष की चर्चा गली-गली में
मुख्यधारा का मीडिया राष्‍ट्रहित की भावना में आकर हकीकत को कितना भी छुपाए लेकिन भुक्तभोगी लोगों की जुबान पर रोक नहीं लग पा रही है. मामला ही ऐसा है. देश के हर बैंक, हर एटीएम, हर पोस्ट आफिस के बाहर जिस तरह की बेकाबू भीड़ लगी है वह आपस में एक दूसरे को अपना रोना भी रो रहे हैं. वो तो बड़ा अच्छा रहा कि मीडिया ने या मीडिया के जरिए सरकार ने आम आदमी के दिमाग में यह अच्छी तरह बैठा दिया कि नोटबंदी का फैसला राष्‍ट्रहित में है सो इस फैसले की तारीफ करना अब सबकी मजबूरी है. सबको पता चल चुका है कि कुछ भी बोला तो उसे राष्‍ट्रद्रोही की टोपी पहना दी जाएगी. हालांकि सरकार की इस पेशबंदी के बावजूद धीरे-धीरे जनता की अपनी व्यथा का उच्चारण सुनाई देने लगा है. यह विलाप घंटे-दर-घंटे बढ़ता ही जा रहा है. लाइन में लगी भीड़ की बातों को एक वाक्य में कहें तो लोगों का कहना है कि सरकार को नोट बंदी के पहले सोच समझ कर इंतजाम करने थे. पहले से न सोचने के कारण हर दिन कोई न कोई नई समस्या दिखने लगती है. यह भी नही सोचा गया कि हमारा देश कितना बड़ा है. सो कोई इंतजाम मौके पर ही कर लेने की बात सोचना खुद को ज्यादा ही होशियार समझना है..

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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