हुआ रिकॉर्ड उत्पादन, फिर भी है अनाज की कमी की चिंता

केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्री ने कहा है कि देश में अनाज की रिकॉर्ड पैदावार के बावजूद अनाज को लेकर हम निश्चिंत नहीं हैं. आगे की न्यूनतम ज़रूरतों के लिहाज़ से यह रिकॉर्ड उत्पादन भी कम पड़ रहा है.

हुआ रिकॉर्ड उत्पादन, फिर भी है अनाज की कमी की चिंता

केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण मंत्री ने कहा है कि देश में अनाज की रिकॉर्ड पैदावार के बावजूद अनाज को लेकर हम निश्चिंत नहीं हैं. आगे की न्यूनतम ज़रूरतों के लिहाज़ से यह रिकॉर्ड उत्पादन भी कम पड़ रहा है. यह बात कोई और कहता, तो उसे सरकार का विरोध करने की राजनीति समझा जाता, लेकिन खुद कृषिमंत्री का यह कहना वाकई सोचने को मज़बूर कर रहा है. ऐसा नहीं है कि इसे लेकर अपनी मौजूदा सरकार को आगाह न किया गया हो. मसलन, इसी स्तंभ में आज से लगभग 15 महीने पहले एक विशेष आलेख इसी बारे में लिखा गया था. उस समय सरकार दूसरी प्राथमिकताएं तय कर रही थी, इसलिए उसे आगाह करने की ज़रूरत समझी गई थी.

अर्थशास्त्र के नियम तोड़ता अनाज...
अर्थशास्त्र में सबसे काम का और सबसे सरल सिद्धांत मांग और आपूर्ति का सिद्धांत माना जाता है. अगर मांग ज्यादा हो और आपूर्ति कम हो, तो महंगाई बढ़ती है. यहां गेहूं-चावल की मांग बढ़ रही है, लेकिन दाम नहीं बढ़ पा रहे हैं. हालत यह है कि उनके दाम बढ़ाने के लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ रहा है. किसान अपने उत्पाद की लागत न निकाल पा रहे हों, तो इससे बड़े आश्चर्य की बात क्या हो सकती है. यह आश्चर्य अर्थशास्त्रियों को अपने मांग-आपूर्ति के सिद्धांत की जांच-पड़ताल करने का सुझाव दे रहा है.

रिकॉर्ड उत्पादन का सच...
किसी देश की व्यवस्था का सबसे ज़रूरी काम भोजन-पानी का इंतज़ाम है. ज्ञात इतिहास के दबंग से दबंग शासक अपने नागरिकों के लिए भोजन-पानी के इंतज़ाम को लेकर हमेशा सतर्क रहे. तुगलक और स्टालिन तक. लेकिन इधर शासकों में यह प्रवृत्ति दिख रही है कि वे अनाज को दूसरे देशों से खरीदने की व्यवस्था के कारण निश्चिंत रहने लगे हैं. जो देश अपनी निश्चिंतता के लिए अनाज का अतिरिक्त उत्पादन करते हैं, उनके लिए इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है कि उनका अतिरिक्त अनाज दूसरे देशों में बिकता रहे. लेकिन उस खरीदार देश की बेबसी को अभी समझा नहीं जा रहा है, जिसे कृषिप्रधान कहा जाता है और जहां आधी से ज्यादा आबादी किसानों की ही हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि रिकॉर्ड उत्पादन का प्रचार इसलिए ज़रूरी हो जाता हो कि मूलभूत आवश्यकता वाली चीज़, यानी अनाज के दाम बढ़ न जाएं और आम आदमी को परेशानी हो जाए. यहां सोचने की बात यह है कि अनाज का उत्पादक ही आम आदमी है और वही अनाज उत्पादन से अपनी लागत नहीं निकाल पा रहा है. दूसरी बात यह कि रिकॉर्ड उत्पादन वाले देश में अनाज का आयात क्या किसी आश्चर्य से कम है.

भविष्य की मांग का बहाना...
केंद्रीय कृषि मंत्री ने अनुमानित आंकड़े दिए है कि 13 साल बाद, यानी वर्ष 2030 और 33 साल बाद, यानी वर्ष 2050 में हमें कम से कम कितने अनाज की ज़रूरत होगी. आज की या आने वाले साल-दो साल की परेशानी छोड़कर दशकों बाद की चिंता है. हो सकता है, वाकई आज की परेशानी न हो. लेकिन किसानों द्वारा किसानी छोड़कर शहरों में मज़दूरी या चौकीदारी के काम की तलाश में गांव से पलायन करना क्या कृषि पर आज के संकट के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए...? और वैसे भी खाद्य सुरक्षा कानून को ईमानदारी सें लागू करते रहने के लिए सरकारी तौर पर जितने अनाज की हमें ज़रूरत पड़ती रहनी है, उस हिसाब से कृषिमंत्री की चिंता वाजिब लगती है. लेकिन एक सवाल यह भी है कि इसे भविष्य की चिंता माना जाए या यह आज की चिंता भी है.

अगर आज पर्याप्त अनाज है, तो...
रिकॉर्ड उत्पादन के ताबड़तोड़ प्रचार के बीच अगर मान लें कि आज देश में पर्याप्त अनाज है, तो हम इस बात का जवाब नहीं दे पाएंगे कि अनाज का आयात क्यों...? लेकिन 15 या 30 साल बाद अनाज की कमी के अंदेशों से भी हाथ के हाथ निपट लेना चाहिए. इस बारे में यह सवाल उठाया जा सकता है कि मांग और आपूर्ति के नियम के लिहाज़ से यह रिकार्ड उत्पादन का प्रचार ही तो किसान को उसके अपने उत्पाद का वाजिब दाम दिलाने में अड़चन नहीं है...? अगर ऐसा है, तो भविष्य में अनाज की कमी का अंदेशा यह सुझाव दे रहा है कि 20-30 साल बाद किसान को अनाज के वाजिब दाम मिलने की स्थितियां अपने आप बन जाएंगी, क्योंकि तब अनाज का उत्पादन मांग से बहुत कम होगा और किसान को वाजिब दाम मिलने में आसानी होगी. लेकिन तब तक किसान अपना खेत बचाकर रख पाएगा, यह स्थिति नहीं दिख रही है.

छोटा होता जा रहा है देश का औसत खेत...
केंद्रीय कृषिमंत्री के बयान में एक ज़िक्र यह भी है कि देश का औसत खेत दिन-ब-दिन छोटा होता जा रहा है. आज का यह आंकड़ा एक हेक्टेअर, यानी ढाई एकड़ से भी कम हो गया है. सन 2030 तक औसत खेत जोत एक तिहाई, यानी एक एकड़ से भी कम रह जाएगी. इस स्थिति में यह सनसनीखेज़ तथ्य नहीं जुड़ा है कि इस समय किसान खेती छोड़ गांव से पलायन कर रहा है. और तब तक किसानी करने वाले कितने लोग बचेंगे. एक हिसाब लगा है कि पिछली जनगणना में जितने लोग खेती से जुड़े थे, वे अगली जनगणना, यानी 2021 तक घटकर एक तिहाई रह जाएंगे. खेती-किसानी को घाटे का काम साबित करने के लिए इस तथ्य के अलावा और क्या सबूत चाहिए. इसके बाद भी खेती के उद्यम को आकर्षक बनाने के उपायों की चर्चा बिल्कुल नहीं सुनाई देती. इन हालात में भविष्य में अनाज की कमी पर सिर्फ चिंता जताने का मकसद समझ में नहीं आता.

अनाज की कमी पर एक और नज़र...
खेती-किसानी का काम कम होते जाना संकट है. उससे भी बड़ा यह संकट अभी हमारी नज़र से छूटा जा रहा है कि देश की जनसंख्या कम से कम 15 फीसदी प्रति दशक के हिसाब से बढ़ रही है. यानी 2011 का आंकड़ा 121 करोड़ से बढ़कर सन 2021 की जनगणना तक 140 करोड़ पहुंच जाने का अंदेशा हमारे सिर पर है. कम से कम 20 करोड़ लोगों के भोजन और पानी का अलग से इंतज़ाम इन्हीं दिनों सोचा जाना था. लेकिन सरकारी विशेषज्ञ और योजनाकार पता नहीं सारी बातें वर्ष 2030 और 2050 के बाद की ही क्यों करते हैं.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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