हमारी मौजूदा सरकार अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों के लिए एक से बढ़कर एक चुनौतियां पेश कर देती है, और अब उसने यह चुनौती पेश की है कि अर्थशास्त्री और पत्रकार विश्लेषण करें कि FDI (यानी Foreign Direct Investment यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के नए सरकारी ऐलानों का क्या असर पड़ेगा...? वैसे इस सरकार का यह कोई नया ऐलान नहीं है, क्योंकि पुरानी सरकार भी यह कवायद कर रही थी और नई सरकार अपने कार्यकाल में शुरू से विदेशी निवेश लाने की कवायद में लगी है. लेकिन उम्मीद के मुताबिक नतीजे अब तक नहीं आए. यह मसला जहां का तहां है कि ऐसा क्या करें कि विदेशी निवेशक अपना पैसा लेकर भारत में कारोबार करने आ जाएं. विदेशी पैसे की ज़रूरत हमें इसलिए है कि हमारे पास करने को बहुत से काम पड़े हैं, लेकिन हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं. ये काम चालू हों, तो अर्थव्यवस्था आगे बढ़े और फिर बेरोज़गारी की समस्या भी निपटे. इसीलिए विदेशी निवेश बढ़ाने के काम में जुटी सरकार अब निर्माण, सिंगल ब्रांड रीटेल और विमानन के क्षेत्र में विदेशी निवेशकों को नए तरीके से लुभाने के लिए नई पेशकश लेकर आई है. इस पेशकश से क्या फर्क पड़ेगा, फिलहाल इसका अंदाज़ा लगाने का काम हमारे पास है.
सरकार के कार्यकाल के आखिरी साल में एक और कोशिश...
वैसे तो सरकार के कार्यकाल का डेढ़ साल बचा है, लेकिन अगले महीने वह अपना आखिरी पूर्ण बजट पेश करने जा रही है. कहते हैं कि किसी सरकार का आखिरी बजट लोकलुभावन ऐलानों का होता है. इन्ही ऐलानों को वह अगले चुनाव में दोहराती है, लेकिन इस बार के बजट में सरकार के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह आने का अंदेशा है कि उन कामों को करने के लिए बजट में पैसे का इंतजाम वह कैसे दिखाएगी. दरअसल अब तक सब करके देख लिया, लेकिन सरकारी खजाने की हालत जस की तस है. सो, विदेशी निवेश और निजीकरण बढ़ाने के अलावा विकल्प हो ही क्या सकता है. वह तो पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ही थे, जो एक बार कह गए कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगते, और वहीं वह यह बात भी दर्ज करा गए कि किफायत बरतिए. लेकिन उनकी वह बात पसंद नहीं की गई थी. एक अर्थशास्त्री की बात का विरोध किया गया था और यहां तक कि खुद उनके विरोधी अर्थशास्त्रियों ने उनका मज़ाक तक उड़ाया था. बहरहाल, आज के मुश्किल हालात में विदेशी निवेश के अलावा कोई तरीका कोई नहीं सुझा पाता.
दावोस के भाषण में काम आएंगे FDI के ऐलान...
इसी महीने दावोस में विश्व आर्थिक मंच की बैठक हो रही है, जिसमें इस बार वित्तमंत्री नहीं, खुद प्रधानमंत्री जा रहे हैं. वह वहां विश्व की कई अर्थशक्तियों के बीच होंगे. दुनिया की बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुखों के बीच भी उन्हें बोलने का मौका मिलेगा. विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए भरपूर वकालत का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है. ज़ाहिर है, उन बैठकों के ऐन पहले अपने यहां निर्माण, सिंगल ब्रांड रीटेल और विमानन के क्षेत्र में विदेशी निवेशकों के लिए भारी छूट का ऐलान करने के बाद ही वह वहां जा रहे हैं. खासतौर पर भारीभरकम जमीन-जायदाद वाली सरकारी विमानन कंपनियों में विदेशी कारोबारियों के लिए हिस्सेदारी का प्रस्ताव लेकर.
कारोबार सुगमता, यानी 'ईज़ ऑफ बिज़नेस' की रैंकिंग बढ़ना तय...
विदेशी निवेश के लिए विश्व में कारोबारियों को संकेत देने का एक माघ्यम कारोबार सुगमता की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग को भी माना जाता है. सरकार के इन ऐलानों से यह रैंकिंग बढ़ने के बानक बन गए हैं. इस रैंकिंग बढ़े आंकड़े से घरेलू राजनीति में प्रचार का एक मुद्दा भी तैयार हो जाता है कि सरकार ने देश की छवि चमकाने में क्या काम किया. विदेशी निवेश आए या न आए, इन ऐलानों से रैंकिंग का मकसद तो सध ही गया है.
अब तक पुरानी कोशिशों का क्या हुआ...
कहने को तो मौजूदा सरकार दावा करती है कि उसकी कोशिशों से अच्छा-खासा विदेशी निवेश आया. आंकड़ों के मुताबिक 17 फीसदी विदेशी निवेश बढ़ा. हालांकि यह उपलब्धि गिनाते वक्त यह नहीं बताया जाता कि हमें उम्मीद कितनी थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि हमें दोगुने-तिगुने यानी 200 या 300 फीसदी बढ़ने की उम्मीद रही हो. अब अपने यहां लक्ष्य की नापतौल करने का रिवाज़ या चलन है नहीं, सो, ऐसे मामले में उपलब्धियों का आकलन भी मुश्किल है. फिर भी अगर FDI को आकर्षित करने के लिए इतने ताबड़तोड़ ढंग से नई छूटों का ऐलान करना पड़ा हो, तो यह खुद ही साबित कर देता है कि हमें पर्याप्त विदेशी निवेश की ज़रूरत है. यानी पुरानी कोशिशों का अपेक्षित असर हुआ नहीं.
विदेशी निवेश से बेरोज़गारी मिटाने के विचार में कितना दम...
अब तक विदेशी निवेश के जो फायदे गिनवाए जाते रहे हैं, उनमें सबसे लुभावना फायदा रोज़गार के मौके पैदा होने का बताया जाता रहा है. आमतौर पर विशेषज्ञों का कहना है कि यह निवेश देश में पहले से काम कर रहे लोगों के रोज़गार खत्म भी करेगा. इसमें कोई शक नहीं कि विदेशी कंपनियां सबसे पहले अपने व्यापार के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना चाहेंगी, जिसमें मानव संसाधन कम लगते हों. अभी अपना छोटा दुकानदार भी एक-दो नौकरों को ज़रूर रखता है, और वह खुद भी नौकर की तरह लगा रहता है. जब करोड़ों छोटे दुकानदारों पर ही बेरोज़गार हो जाने का अंदेशा बताया जा रहा हो, तो विदेशी कंपनियों के रोज़गार बढ़ाने और देसी कारोबार में रोज़गार खत्म होने का अंतर आसानी से समझा जा सकता है. इस सिलसिले में दो साल पहले इसी स्तंभ में बेरोज़गारी पर लिखे एक आलेख को भी याद किया जा सकता है. यह आलेख उस समय का है, जब कुछ दिनों के लिए सरकार ने 'मेक इन इंडिया' की बात चलाई थी और विदेशों में ब्रांड इंडिया की लोकप्रियता बढ़ाने की बात सोची थी. हालांकि बाद में वह विचार भी आगे बढ़ा नहीं दिखा.
क्यों भूलना पड़ा 'मेक इन इंडिया'...
सत्ता में आते ही सरकार ने ऐसा ही ज़ोर 'मेक इन इंडिया' पर लगाया था. जब ज़ोर लगाया जा रहा था, उस समय विशेषज्ञों और विश्लेशकों ने अपने अनुमान जताए थे. NDTV के इसी स्तंभ एक आलेख में यह हिसाब लगाया गया था कि कोई विदेशी निवेशक तब तक नहीं आएगा, जब तक सरकार उसके बनाए माल को बिकवाने का माहौल न बनाए. यानी भारतीय बाज़ार में जब तक मांग न बढ़ाई जाए, तब तक क्यों विदेशी निवेशक यहां आकर माल बनाएगा और क्यों यहां आकर दुकान खोलेगा. सीधी-सी बात है कि जिस देश के नागरिकों की जेब में पैसा डाला जा रहा हो, वहां अपने आप ही उद्योग-धंधे चलने लगते हैं और नए-नए बाज़ार खुलने लगते हैं. हाल-फिलहाल सिर्फ बाज़ार खुलने की बात है, सो, क्यों न यह अनुमान लगाया जाए कि विदेशी एकल ब्रांड के खुदरा व्यापारी सबसे पहले यह देखेंगे कि भारत में नए ग्राहक बनने के आसार हैं या नहीं. मसलन, मध्यमवर्गीय तबके के ऊपर उठने की क्या संभावनाएं है. एक और संभावना देखें, तो हमारे पास संभावित ग्राहक अपने करोड़ो बेरोज़गार हैं. अगर उनके पास रोज़गार हो, तो उनकी जेब में पैसा होगा और वे एक बहुत बड़ा बाज़ार पैदा कर सकते हैं.
यह उम्मीद लगाना बेकार की बात है कि विदेशी निवेशक पहले करोड़ों बेरोज़गारों को रोज़गार देंगे और फिर उन्हें अपना माल बेचकर मुनाफा कमाएंगे. रही बात खाते-पीते तबके वाले बाज़ार की, तो पिछले दो दशकों में शहरों में इतने मॉल खुल गए हैं कि शायद ही कोई विदेशी ब्रांड हो, जो हमारे देसी खुदरा व्यापारी न बेच रहे हों. बल्कि हालत यह है कि बड़े-बड़े मॉल देशी-विदेशी सामान से अटे पड़े हैं और ग्राहक दिन-ब-दिन घटते जा रहे हैं. अब यह भी बिल्कुल अलग बात है कि ऐसी हालत में भी विदेशी एकल ब्रांड के खुदरा बाज़ार में हम अपने व्यापारियों की कीमत पर विदेशी व्यापारियों को ले आएं. और यह तर्क देकर ले आएं कि वे आएंगे, तो दुकानदारी करने के लिए अपना पैसा लेकर आएंगे, जिसकी हमें सख्त ज़रूरत है. पैसे की ज़रूरत तो मानी जा सकती है, लेकिन उस पैसे के लिए हमारे घरेलू बाज़ार का क्या-क्या चला जाएगा, इसका हिसाब भी अभी से लगा लेना चाहिए.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Jan 12, 2018
FDI के नए ऐलानों का मतलब...?
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 17, 2018 13:37 pm IST
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Published On जनवरी 12, 2018 13:27 pm IST
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Last Updated On जनवरी 17, 2018 13:37 pm IST
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