एक परंपरा जो भारत में खूब फल-फूल रही है वो है 'बैन' परंपरा। जब आप अपने विवेक का इस्तेमाल न कर पाएं तो सीधा बैन कर के छुटकारा पाइए, ऐसा ही कुछ पिछले कई सालों से सरकारें भारत में करती आई हैं। ब्रिटिश डॉक्यूमेंट्री मेकर लेस्ली उद्वीन अपने परिवार को छोड़ कर पिछले 2 साल से भारत में हैं ताकि 16 दिसंबर को हुए निर्भया बलात्कार पर डाक्यूमेंट्री बना सकें। लेकिन जैसे ही इस डॉक्यूमेंट्री के कुछ अंश में, जिसमें अपराधी मुकेश सिंह ने विवादित बयान दिया है, बीबीसी ने प्रकाशित किया तो मीडिया से लेकर संसद तक बवाल हो गया और आखिरकार अब लेस्ली को इस डॉक्यूमेंट्री को रिलीज़ करवाने के लिए कोर्ट के चक्कर काटने पड़ेंगे।
एक जो धारणा लोगों में बनी है, वो ये है कि यह डॉक्यूमेंट्री अपराधियों का पक्ष दिखा रही है, उन्हें अपनी बात रखने का मौका दे रही है। लेकिन लेस्ली ने ये साफ़ बताया है कि वो बलात्कार की मानसिकता को अपनी डॉक्यूमेंट्री के ज़रिये दिखाना चाहती हैं। किसी अपराधी का यह कोई पहला इंटरव्यू नहीं है। अफज़ल गुरु का भी जेल से इंटरव्यू लिया जा चुका है। कुछ दिन पहले ही वेद प्रताप वैदिक हाफ़िज़ सईद का इंटरव्यू लिए जाने का भी दावा कर रहे थे। क्या सरकार ने इसके खिलाफ कोई कदम उठाया था? अगर किसी अपराधी का इंटरव्यू लिया जाता है तो ये उसको बढ़ावा देना नहीं होता। और यह भी ज़रूरी नहीं कि यह उसका पक्ष दिखा रहा हो। जब न्यूज़ चैनलों पर हम हिंसा, बलात्कार और राजनीतिज्ञों के महिला विरोधी बयान दिखाते हैं या उन पर चर्चा करते हैं तो क्या इसके पीछे की मंशा उस अपराध के पक्ष में हवा बनाना होता है? जब तक आप पूरी फिल्म ना देखें तो फैसला कैसे करेंगे कि नायक कौन है और खलनायक कौन है?
राजनाथ सिंह का कहना है कि इस डॉक्यूमेंट्री को बनाने के लिए इजाज़त सम्बन्धी कायदों का उल्लंघन हुआ है। लेकिन इस डाक्यूमेंट्री को बनाने के लिए गृह मंत्रालय की इजाज़त और अपराधी मुकेश सिंह की लिखित इजाज़त लेस्ली के पास है। वेंकैया नायडू ने कहा है कि ये साजिश है दुनिया भर में भारत का नाम ख़राब करने की, इसलिए हम इस पर प्रतिबन्ध लगाएंगे। लेकिन नायडू जी ये बात भूल जाते हैं कि ये डॉक्यूमेंट्री पूरी दुनिया में दिखाई जाएगी और आपकी सरकार इस पर बैन लगाकर फिर से इस देश की संकीर्ण मानसिकता को पूरे विश्व में उजागर कर रही है।
जो भी बात मुकेश सिंह ने डॉक्यूमेंट्री में कही है, वो हर बात संसद में दोहराई जा चुकी है, न्यूज़ चैनलों पर बहस के दौरान पैनलिस्ट दोहरा चुके हैं। फिर प्रतिबन्ध का क्या मतलब रह जाता है? हो सकता है कि इस फिल्म में कोई नयी बात समाज के सामने ना आ रही हो, लेकिन जो बात समाज में पहले से ही है, उसे इस फिल्म में दिखाए जाने पर प्रतिबन्ध क्यों? इस डॉक्यूमेंट्री में संवेदनशील कंटेंट होने की वजह से एहतियात बरती जा सकती हैं। जैसे कि आप इसे प्राइम टाइम में ना दिखा कर 11 बजे भी इसका प्रसारण कर सकते हैं। ऐसा एहतियाति कदम 'बिग बॉस' के एक सीज़न के लिए भी दिखाया गया था। इसमें अपराधी और वकीलों के चेहरों को ढंका जा सकता है जैसा कि न्यूज़ चैनल एहतियातन करते हैं।
सरकार इस तरह बैन लगा कर सिर्फ अपना पल्ला झाड़ रही है। अगर कोर्ट ने भी इसके प्रसारण पर रोक लगाने को कहा है तब भी सरकार को इसके प्रसारण के पक्ष में लेस्ली के साथ खड़ा होना चाहिए वरना सुनिश्चित करे कि वो हर महिला विरोधी बयान देने वाले को बैन करेगी। क्यों ये सच लोगों के सामने नहीं आना चाहिए कि जेल में अपराधी सुधर नहीं रहे, अपराधी बन रहे हैं? क्यों नहीं ये पक्ष आना चाहिए कि एक कम पढ़े लिखे गरीब तबके के अपराधी से लेकर एक पढ़े लिखे उच्चवर्गीय आदमी की सोच लड़कियों को लेकर लगभग एक सी है। लेकिन हमारा सच ये है कि हम बिना किसी चीज़ को देखे और सोचे-समझे इस 'बैन' परंपरा को सींचते चलेंगे। क्योंकि ये 'सेलेक्टिव' क्रांतिकारियों का देश हैं। जहाँ एक ही बात के लिए किसी को इनाम और किसी को सज़ा दी जाती है।
This Article is From Mar 04, 2015
...ताकि बढ़ती रहे 'बैन' परंपरा
Sarvapriya Sangwan, Rajeev Mishra
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Updated:मार्च 04, 2015 22:50 pm IST
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Published On मार्च 04, 2015 22:04 pm IST
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Last Updated On मार्च 04, 2015 22:50 pm IST
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