पचास और साठ के सुनहरे दशकों में हिंदी फ़िल्मों के पार्श्व संगीत में मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, तलत महमूद, हेमंत कुमार और महेंद्र कपूर जैसे पुरुष स्वरों का बोलबाला रहा. सत्तर का दशक आते-आते उनमें कुछ नई आवाज़ें भी शामिल होती चली गईं. रफ़ी और मुकेश के न रहने पर कई मिलती-जुलती आवाज़ें इनकी जगह लेने आईं, उनके कुछ अच्छे गीत भी आए, लेकिन उनमें से कोई अपनी अलग लकीर नहीं बना सका. मनहर, अनवर, शब्बीर कुमार और नितिन मुकेश जैसे कई संभावनाशील गायक इस दुर्घटना के शिकार हुए कि उन्होंने पुरखों को इस तक अपने में उतारने की कोशिश की कि वे अपनी मौलिकता जैसे गंवा बैठे. लेकिन जो कुछ आवाज़ें अपनी पहचान बना पाईं, उनमें एक जसपाल सिंह की थी जिसकी आत्मीय और गंवई मिठास 'गीत गाता चल' से लेकर 'सावन को आने दो' और 'नदिया के पार' तक उन्हें संगीतकारों का प्रिय गायक बनाती रही. इसी सूची में दक्षिण भारत से आकर येसुदास भी जुड़ जाते हैं जिनकी शास्त्रीयता में पगी और अपने में डूबी, गूंजती सी आवाज़ ने एक अलग सा जादू पैदा किया. 'चितचोर' और 'दादा' जैसी फिल्मों में उनके गाए गीत अविस्मरणीय हैं.
लेकिन भूपेंद्र (Singer Bhupinder Singh) इन सबसे अलग थे. इन सबसे कुछ पहले भी आए थे. उनकी आवाज़ में वह फिल्मी मधुरता और तराश नहीं थी जो हिंदी के फिल्म निर्माता अपने चिकने-चुपड़े नायकों के लिए चाहते थे. यह अनायास नहीं है कि उनको शुरू के जो गीत मिले, वे साझा थे- यानी दूसरे गायकों के साथ. इसके अलावा उनकी आवाज़ का ज़्यादातर इस्तेमाल उन फ़िल्मों में हुआ जो मुख्यधारा के समानांतर बनती रहीं और जिनमें सीधे-सादे और खुरदरे नायक काम करते रहे. यह शायद संगीत निर्देशकों को कुछ देर से समझ में आया कि उनकी आवाज़ में एक चीज़ थी जो किसी और के पास नहीं थी- वह गूंजता हुआ भारीपन जिसमें अपनी तरह का सोज़ था. इस आवाज में कुछ कम भारीपन होता तो वह मुकेश के क़रीब होती, अगर कुछ ज़्यादा अनुनासिकता होती तो वह हेमंत कुमार के क़रीब होती- लेकिन वे भूपेंद्र थे जिनमें कुछ मुकेश भी थे और कुछ हेमंत कुमार भी.
दूसरी बात यह कि यह आवाज़ जैसे समय के आरपार टहलती हुई आती-जाती थी, वह अकेलेपन की, सन्नाटे की, दुख की बहुत सारी स्मृतियों को सहेजती हुई आवाज़ थी. वह ख़ुश दिखती थी जो अजब सी मानवीय चमक से भर जाती थी. फिल्म 'घरौंदा' का गीत याद कीजिए- 'एक अकेला इस शहर में'. निश्चय ही इस गीत की ताकत इसके शब्दों में है, लेकिन भूपेंद्र जैसे उस उदासी और अकेलेपन को मूर्तिमान कर देते हैं जिस तक पहुंचने की यह गीत कोशिश करता है. ‘दिन ख़ाली-ख़ाली बर्तन सा' और ‘रातें हैं जैसे अंधा कुआं” जैसे रूपक गढ़ना जितना मुश्किल है, उससे कहीं ज़्यादा अपनी आवाज के दम पर उन्हें बिल्कुल सजीव बना देना.
लेकिन इससे बड़ा सुखद आश्चर्य यह देखकर होता है जब वे इसी गीत का बदला हुआ रूप रूना लैला के साथ गाते हैं- दो दीवाने शहर में रात या दोपहर में. अचानक जैसे यह आवाज़ कुछ हल्की हो जाती है, जैसे एक बड़ा विमान आसमान में उड़ान भर रहा हो- ‘असमानी रंग की आंखों में' और नायिका हंसती है- ‘असमानी या आसमानी?' संगीत का यह वह जादू है जो आज तक पुराना नहीं पड़ा है.
जब हम पुराने वक़्त की बात करते हैं तो कुछ अमूर्तन में करते हैं. लेकिन जो बीतता हुआ वक़्त होता है, उसके साथ दृश्य भी होते हैं जो बीत जाते हैं, बिसरा दिए जाते हैं, उसके साथ प्रतीक्षा भी होती है जो कामना करती रहती है कि फिर वह दौर लौटे. फिल्म ‘बाज़ार' का गीत ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी' ऐसा ही एक गीत है जिसमें वक़्त गली के मोड़ पर सूने से किसी दरवाज़े की तरह आता है- किसी की राह देखता हुआ. यह गीत फिर भूपेंद्र की गायन क्षमता का एक मील-पत्थर है.
धीरे-धीरे हम पाते हैं कि भूपेंद्र के संग्रह में ऐसे ख़ज़ाने बढ़ते जा रहे हैं. यहां तक कि जिन संगीतकारों को धूम-धड़ाके और शोर-शराबे के लिए जाना जाता है, उनको भी जब कोई संवेदनशील खरज वाली आवाज़ चाहिए होती है तो वे भूपेंद्र के पास आते हैं. मसलन बप्पी लाहिड़ी उनसे ‘किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है' जैसा गीत गवाते हैं. आरडी बर्मन, जयदेव और खय्याम के तो जैसे वह प्रिय गायक हैं. जब भी कोई गीत ज़िंदगी को पुकारता हुआ आता है, वह जैसे भूपेंद्र की आवाज़ में नई जान हासिल कर लेता है. फिल्म दूरियां में जब वे ‘ज़िंदगी मेरे घर आना' जैसा गीत आते हैं तो ज़िंदगी के नए मायने खुलने लगते हैं. अचानक हम पाते हैं कि इस आवाज़ में एक अलग सी मुलायमियत भी है.
कई लोग मानते हैं कि भूपेंद्र दरअसल ग़ज़लों के लिए बने हैं. बाद के वर्षों में उनकी गैरफिल्मी ग़ज़लें ये बताती भी रहीं. यह सच है कि इस मामले में उन्हें मेहदी हसन, गुलाम अली या जगजीत सिंह जैसी शोहरत नहीं मिली, लेकिन उनका अपना एक मुक़ाम रहा. पत्नी और गायिका मिताली मुखर्जी के साथ उन्होंने गज़लों के जो फूल खिलाए, वे उनके मुरीदों के लिए बेहतरीन सौगात बने रहे.
दूसरी बात यह कि भूपेंद्र ने शुरुआत गिटारिस्ट के रूप में की थी. आरडी बर्मन के कई मशहूर गीतों में उनके गिटार का कमाल दिखता है. ‘द हिंदू' में अनुज कुमार ने अपनी रिपोर्ट में भूपेंद्र के हवाले से याद किया है कि ‘हरे रामा हरे कृष्णा' के गीत ‘दम मारो दम' के लिए देव आनंद ने उनसे अपने अंदाज़ में कहा कि वे धुएं और हेरोइन के बादलों की कल्पना करें, और इसके बाद इन्होंने अपने इलेक्ट्रिक गिटार पर एक धुन बजाई. आरडी बर्मन ने कहा- हां, यही वह चीज़ है.
लेकिन हमारी तरह के श्रोताओं के लिए भूपेंद्र के होने का मतलब उस माहौल और मौसम का होना था जिसमें ज़िंदगी के पुराने पन्ने फड़फड़ाते हैं, बंद दरवाज़ों के जंग लगे ताले एक खोई हुई दुनिया का सुराग देते हैं, सूनी गलियां किन्हीं चेहरों को तलाशती हैं.
सच है कि न वैसे घर बचे हैं, न वैसी गलियां और न ही वैसा ज़माना, जहां जज़्बात और मोहब्बत इस आहिस्तगी के साथ खुलें कि एक पूरी दुनिया खुलती लगे. भूपेंद्र जैसे हमारी उंगली पकड़ कर हमें उन खोई हुई गलियों में ले जाते हैं- याद दिलाते हुए कि कभी हम ऐसे भी हुआ करते थे. आज वह उंगली छूट गई- इसका कुछ मलाल बचा रहेगा और इस मलाल में हम उनके गीत सुनते रहेंगे.